Sankhya Darshan Chapter 5, Part 2

Sankhya Darshan Chapter 5, Part 2

नैकस्या-नन्दचिद्रूपत्वे द्वयोर्भेदात् ॥ 5.66 ॥

अर्थ- वेदादि सत् शास्त्र ईश्वर को सच्चिदानन्द कह कर पुकार रहे हैं, और जीव में आनन्द रूप होता नहीं है, इस कारण ईश्वर और जी इन दोनों में भेद है। प्रश्न- जीव में आनन्द तो माना ही नहीं गया है, तो मुक्ति का उपदेश क्यों कहा, क्योंकि मुक्ति अवस्था में दुःखो के दूर हो जाने पर आनन्द होता है ।

दुःखनिवृत्तेर्गौणः ॥ 5.67 ॥

अर्थ- मुक्ति होने पर दुःख दूर हो जाते हैं, ऐसा कहना गौण है। यद्यपि मुक्ति होने पर दुःख दूर जाते हैं परन्तु अल्पज्ञता तो जीव में उस समय भी बनी रहती है, इसलिए फिर भी दुःख उत्पन्न होने का भय बना ही रहता है, इस कारण जीव सर्वदा आनन्द में नहीं रहता है अतः जीव को आनन्द स्वरूप नही कह सकते। आनन्दस्वरूप तो ईश्वर को ही कह सकते हैं। प्रश्न- जब कि आप की मुक्ति ऐसी है कि जिसके होने पर भी फिर कुछ दिनों के बाद दुःख उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है तो एकसी मुक्ति से बद्ध रहना ही अच्छा है ।

विमुक्तिप्रशंसा मन्दानाम् ॥ 5.68 ॥

अर्थ- विमुक्ति को प्रशंसा मूर्ख लोग करते हैं, न कि विद्वान् लोग। कोई-कोई मन को नित्य मानते हैं, उनके मत का भी खण्डन करते है ।

न व्यापकत्वं मनसः करणत्वादिन्द्रियत्वाद्वा ॥ 5.69 ॥

अर्थ- मन व्यापक नहीं , क्योंकि मन को इन्द्रिय और कारण माना है। प्रश्न- कारण किसको कहते हैं? उत्तर- जिसके द्वारा जो अपने कार्य करने में तैयार हो, जैसे कि मन के द्वारा जीवात्मा अपने कार्यों को करता है ।

सक्रियत्वाद्गतिश्रुतेः ॥ 5.70 ॥

अर्थ- मन त्रिया वाला है इसलिए मन हर एक इन्द्रियों के व्यापार और प्रवृत्ति का हेतु है, गति वाला भी है। प्रश्न- यदि मन को नित्य नहीं मानते तो मत मानो, लेकिन निर्विभाग, कारण रहित तो मानना होगा ।

न निर्भागत्वं तद्योगाद्घटवत् ॥ 5.71 ॥

अर्थ- जैसे घट आदि पदार्थ मृत्तिका (मिट्टी) के कार्य हैं इस ही तरह मन भी किसी का कार्य अवश्य है। जबकि कार्य निश्चय हो गया तो उसका कारण-योग भी अवश्य होगा। प्रश्न- मन नित्य है या अनित्य ?

प्रकृतिपुरुषयोरन्यत्सर्वमनित्यम् ॥ 5.72 ॥

अर्थ- प्रकृति और पुरूष के अतिरिक्त जो अन्य पदार्थ हैं। वे सब अनित्य हैं, इस कारण से मन भी अनित्य है। प्रश्न- प्रकृति और पुरूष इन दो को ही नित्य क्यों माना हैं ?

न भागलाभो भागिनः निर्भागत्वश्रुतेः ॥ 5.73 ॥

अर्थ- जो आप ही कारण रूप है उसका और कोई कारण नहीं हो सकता, उसको तो सब ही कारण रहित मानते चले आये हैं, इस कारण प्रकृति, पुरूष दोनों नित्य हैं ?

नानन्दाभिव्यक्तिर्मुक्तिर्निर्धर्मत्वात् ॥ 5.74 ॥

अर्थ- प्रधान जो प्रकृति है उसको आनन्द की अभिव्यक्ति (ज्ञान) नहीं हो सकती, इस कारण उसकी मुक्ति भी नहीं कह सकते, क्योंकि आनन्द प्रधान का धर्म नहीं है किन्तु जीव का है ।

न विशेषगुणोच्छित्तिस्तद्वत् ॥ 5.75 ॥

अर्थ- सत्व, रज, तम, इनके नाश होने को ही यदि मुक्ति माना जाय तो भी ठीक नहीं, क्योंकि उक्त सत्त्वादि तीन गुण प्रधान के स्वाभाविक धर्म हैं, उनका नाश होना प्रधान का धर्म नहीं है, इसलिए उसकी मुक्ति नहीं मानी जाती ।

न विशेषगतिर्निष्क्रियस्य ॥ 5.76 ॥

अर्थ- यदि विशेष गति ऊपर नीचे का जाना आना अर्थात् ब्रह्यलोग की प्राप्ति इत्यादिक को ही मुक्ति मानें सो भी नहीं हो सकती, क्योंकि प्रधान तो त्रियाशून्य है जो कुछ उसमें त्रिया दीखती है सब पुरूष के संसर्ग से है, परन्तु आप ऐसी शक्ति को नहीं रखता ।

नाकारोपरागोच्छित्तिः क्षणिकत्वादिदोषात् ॥ 5.77 ॥

अर्थ- यदि आकार के सम्बन्ध को छोड़ देना ही मुक्ति मानें तो भी ठीक नहीं, क्योंकि उसमें क्षणिकत्वादी दोष प्राप्त होते हैं। इस सूत्र का स्पष्टार्थं यह है-प्रकृति की आकार घड़ा है, उसका जो फूट जाना है उसको ही प्रकृति की मुक्ति मान लिया जाय सो यह कथन कुछ अच्छा नहीं हैं, क्योंकि क्षणिकत्वादि सैकड़ों दोष प्राप्त हो जायेंगे ऐसा मानने से जैये कि कोई घड़ा इस क्षण में टूट गया और फिर इसी क्षण में दूसरा बन गया, इत्यादि कारणों से प्रधान की मुक्ति कैसे हो सकती है ?

न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वा-दिदोषात् ॥ 5.78 ॥

अर्थ- सबको छोड़ देना भी मोक्ष नहीं हो सकता। यदि प्रधान सम्पूर्ण सृष्टि आदि की रचना को छोड़ दे तो भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रधान के सब कार्य पुरूष के लिये हैं ।

एवं शून्यमपि ॥ 5.79 ॥

अर्थ- यदि सबको छोड़ देना ही प्रधान की मुक्ति का लक्षण मान भ लिया जाय तो वह मुक्ति शून्य रहेगी, क्योंकि आनन्द न रहेगा तो व्यर्थ हैं, इसलिये ऐसा न माना जाये। प्रश्न- पुरूष के साथ रहने वाली प्रकृति किसी स्थान में पुरूष को छोड़ दे इसको ही मुक्ति क्या न माना जाय ?

संयोगाश्च वियोगान्ता इति न देशादिला-भोऽपि ॥ 5.80 ॥

अर्थ- जिसका संयोग होता है उसका वियोग तो निश्चय ही होगा फिर किसी स्थान में जाकर छोड़ा तो क्या मुक्ति हो सकती है? किसी सूरत में नहीं। इसी तरह जब प्रकृति और पुरूष का संयोग है तो वियोग भी जरूर होगा, फिर उसमें देश की क्या जरूरत हैं, क्योंकि स्थान के प्राप्त होने से मुक्ति तो ही नहीं सकती ।

न भागियोगो भागस्य ॥ 5.81 ॥

अर्थ- प्रधान के भा्र (अंश्) जो महात्तत्वादिक हैं उनका भागी (प्रधान) में मिल जाना ही मुक्ति है, सो भी नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो उसमें मिलते ही हैं ।

नाणिमादियोगोऽप्यवश्यम्भा-वित्वात्तदुच्छित्तेरितरयोगवत् ॥ 5.82 ॥

अर्थ- पुरूष योग से अणिमादि ऐश्वय्र्यों का योग होना भी प्रधान की मुक्ति का लक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका योग है उसका वियोग तो अवश्य ही होगा, जैसा कि दूसरे पदार्थों में मालूम होता है ।

नेन्द्रादिपदयोगोऽपि तद्वत् ॥ 5.83 ॥

अर्थ- पुरूष के संयोग से इन्द्रादि पद की प्राप्ति का होना प्रधान की मुक्ति का लक्षण हो सकता, क्योंकि वह सब नाशवान है। अब ‘‘अहंकरित्वश्रुतेर्नं भैतिकानि’’ इस सूत्र में जो बात सूक्ष्म रूप से कही है उसको कहते हैं ।

न भूतप्रकृतित्वमिन्द्रियाणामाहङ्कारिकत्वश्रुतेः ॥ 5.84 ॥

अर्थ- जो बात पृथ्वी आदि भूतों में विद्यमान है वह बात इंद्रियों से नहीं दीखती, इस वास्ते इन्द्रियों को भौतिक नहीं कह सकते, क्योंकि अहंकार से पैदा हुई हैं। प्रश्न- सांख्य के मत के अनुसार प्रकृति और पुरूष का ज्ञान होना ही मुक्ति का हेतु है, किन्तु वैशेषिकादिकों ने जो छः पदार्थ माने हैं उनके ज्ञान् से मुक्ति क्यों नहीं हो सकती ?

न षट्पदार्थनियमस्तद्बोधा-न्मुक्तिः ॥ 5.85 ॥

अर्थ- पदार्थ छः ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं, किन्तु पदार्थ असंख्य हैं। अभाव जानने के वास्ते असंख्य पदार्थ हैं तो छः पदार्थों के जानने से मुक्ति नहीं हो सकती ।

षोडशादिष्वप्येवम् ॥ 5.86 ॥

अर्थ- गौतमादिकों ने तो सोलह पदार्थ माने हैं और जिन-जिन महार्षियों ने पच्चीस पदार्थं माने हैं उनके जान लेने से भी मुक्ति नही हो सकतीं, क्योंकि पदार्थ तो असंख्य हैं। प्रश्न- वैशेषिकादि कों का मत क्यों दूषित माना गया है क्योंकि वह वैशधिकादिक पृथ्वी आदि के अणुओं को नित्य मानते हैं ।

नाणुनित्यता तत्कार्यत्वश्रुतेः ॥ 5.87 ॥

अर्थ- पृथ्वी आदि के अणुओं की नित्यता किसी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि श्रुतियां उनको कार्य रूप कहती है और एक युक्ति भी है। जब पृथ्वी आदि साकार हैं तो उनके अणु भी साकार हो सकते हैं। जब साकारता प्राप्त हो गई तो किसी के कार्य भी जरूर हुए, इस कारण पृथ्वी आदि के अणुओं को नित्य नहीं कह सकते। यहां अणु का अर्थ परमाणु नहीं, उससे स्थूल है। प्रश्न- आप अणुओं को नित्य नहीं मानते तो मत मानो, लेकिन उनका कोई कारण नहीं दीखता, इस वास्ते उनको कारण रहित मानना चाहिये ?

न निर्भागत्वं कार्यत्वात् ॥ 5.88 ॥

अर्थ- जबकि अणु कार्य हैं तो कारण रहित कैसे हो सकते हैं? क्योंकि जो कार्य उसका कारण भी अवश्य ही कोई न कोई होगा। प्रश्न- जबकि प्रकृति और पुरूष दोनों ही आकार रहित हैं तो उनका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है, क्योंकि जब तक रूप न होगा तब तक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता?

न रूपनिबन्धनात्प्रत्यक्षनियमः ॥ 5.89 ॥

अर्थ- रूप के बिना प्रत्यक्ष नहीं होता, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि जो बाहर की वस्तु है उसके देखने के वास्ते अवश्यमेव इन्द्रियों से योग की आवश्यकता रहती है, लेकिन जो ज्ञान से जाना जाता है उसको रूपवान्होने की कोई आवश्यकता नहीं है और नास्तिक लोग जो यह बात कहते हैं कि साकार पदार्थ का ही प्रत्यक्ष होता है, निराकार का नही होता, यह कथन ठीक नहीं क्योंकि जब नेत्र आदि इन्द्रियों में दोष हो जाता है तब सामने रक्खे हुए घट पटादि पदार्थें का भी प्रत्यक्ष नहीं होता। इससे साबित होता है कि पदार्थ का स्वरूप होना प्रत्यक्ष होने में नियम नहीं, किन्तु इन्द्रियों की स्वच्छता हेतु है। प्रश्न- आपने जो कार्यरूप कहकर अनित्य सिद्ध किया तो क्या अणु कोई वस्तु आपके मत में है या नहीं? इस पर आचार्य अपना मत्र दिखाते हैं ।

न परिमाणचातुर्विध्यं द्वाभ्यां तद्योगात् ॥ 5.90 ॥

अर्थ- जो अणु, महत, दीर्घहस्व यह चार भेद मानकर परिमाण चार तरह के मानते हैं ऐसा माना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस बात के सिद्ध करने को चार प्रकार के परिमाण मानते हैं, वह बात अणु और महत् इन दो तरह के परिमाणों से भी सिद्ध हो सकती है। दीर्घ और हस्व यह दो महत् परिमाण के अवान्तर भेद हैं। यदि गिनती बढ़ानी ही स्वीकार है तो एक तिरछा अणु, एक सीधा अणु ऐसे ही बहुत से भेद हो सकते हैं, लेकिन ऐसा होना ठीक नहीं। और हमने जो अणुओं को अनित्य प्रतिपादन किया था वह सिर्फ पृथ्वी आदि के अणु को अनित्य कहा था, किन्तु अणु परिमाण द्रव्यों को अनित्य नहीं प्रतिपादन किया था, क्योंकि हम भी तो अणु नित्य मानते हैं। प्रश्न- जब प्रकृति और पुरूष के सिवाय अनित्य कहा तो प्रत्यभिज्ञा किस तरह हो सकती हैं क्योंकि जब सब पदार्थें को नाशवान् मान लेंगे तब प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती है। प्रत्यभिज्ञा का लक्षण पहले अध्याय में कह आये हैं ।

अनित्यत्वेऽपि स्थिरतायोगात्प्रत्य-भिज्ञानं सामान्यस्य ॥ 5.91 ॥

अर्थ- द्यपि प्रकृति और पुरूष के सिवाय जितनने समान्य पदार्थ हैं वे सब ही अनित्य हैं तथापि हम उनका स्थिर मानते हैं लेकिन क्षणिकवादियों के समान हर एक क्षण में परिवर्तंनशील नहीं मानते हैं इस वास्ते प्रत्यभिज्ञा हो सकती है ।

न तदपलापस्तस्मात् ॥ 5.92 ॥

अर्थ- अतएव सामान्य पदार्थ कुछ न रहा ऐसा नहीं कहा जा सकता, किन्तु कहा जा सकता है कि सामान्य पदार्थ नित्य नहीं है ।

नान्यनिवृत्तिरूपत्वं भावप्रतीतेः ॥ 5.93 ॥

अर्थ- सामान्य पदार्थों को अनत्य नहीं कह सकते हैं, क्योकि उनकी विद्यमानता दीखती है। आश्य यह है कि जब आचार्य प्रकृति और पुरूष के सिवाय सबको अनित्य मानते हैं तो प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी? इस शंका को दूर करने के वास्ते यह सूत्र कहा गया है कि सामान्य पदार्थ किसी प्रकार अनित्य नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे भी दीखते हैं ।

न तत्त्वान्तरं सादृश्यं प्रत्यक्षोपलब्धेः ॥ 5.94 ॥

अर्थ- एक घड़े के समान दूसरा घड़ा प्रत्यभिज्ञा का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि यह बात तो प्रत्यक्ष ही से दीखती है कि जो घड़ा पहिले देखा था उसमें, और अब देखा है इसमें फर्क है इसलिए सदृश पदार्थ प्रत्यभिज्ञा का कारण नहीं हैं, इस कारण सामान्य पदार्थ और उनकी स्थिरता माननी पड़ेगी। प्रश्न- जो शक्ति पहिले देखे हुए घड़े में है वही शक्ति इस समय दीखले हुए घड़े में है। उस शक्ति के ही प्रकाश होने से प्रत्यभिज्ञा क्यों न मानी जाय। क्योंकि सब घड़े एक ही शक्ति वाले होते हैं, इस वास्ते दूसरे घड़े के देखने से प्रत्यभिज्ञा को मानना ही चाहिये ?

निजशक्त्य-भिव्यक्तिर्वा वैशिष्ट्यात्तदुपलब्धेः ॥ 5.95 ॥

अर्थ- घटादि पदार्थें की शक्ति का प्रकाश होना प्रत्यभिज्ञा में हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि यह बात तो अर्थापत्ति से सिद्ध है। यदि सब घड़ों में समान शक्ति न होती तो उसका नाम क्यों होता? इस वास्ते समान आकृति और समान शक्ति प्रत्यभिज्ञा का हेतु नहीं हो सकती, किन्तु वहीं पदार्थ जो पहिले देखा है दूसरी बार देखने से प्रत्यभिज्ञा का हेतु हो सकता है, इस बात से सिद्ध हो गया कि सामान्य पदार्थ अनित्य होने पर भी स्थिर है इसी से प्रत्यभिज्ञा भी होती है। प्रश्न- एक घोड़े में जो संज्ञा संज्ञी सम्बन्ध है वही सम्बन्ध दुसरे घड़े में भी है फिर उसमें प्रत्यभिज्ञा क्यों नहीं होती ?

न संज्ञासंज्ञिसम्बन्धोऽपि ॥ 5.96 ॥

अर्थ- संज्ञा संज्ञि का सम्बन्ध भी प्रत्यभिज्ञा में हेतु में हेतु नहीं हो सकता क्योंकि ये भी अर्थापत्ति से जाना जा सकता है कि संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध सब घड़ों में बराबर है परन्तु इतने पर भी अनेक घड़ों में अनेक भेद रहते हैं, इस कारण प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती और संज्ञासंज्ञि सम्बन्ध होने पर भी दूसरा पदार्थ प्रत्यभिज्ञा का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि

न सम्बन्धनित्यतोभयानित्यत्वात् ॥ 5.97 ॥

अर्थ- घटादि पदार्थें का सम्बन्ध नित्य नहीं है, क्योंकि संज्ञा और संज्ञि ये दोनों अनित्य हैं। तात्पर्य यह है कि जो घड़ा घट नाम से पुकारा जाता है उस घड़े के नाश होते ही उसकी संज्ञा का भी नाश हो जाता है क्योंकि उस घड़े के टूटने पर उसकी फिर घड़ा नहीं कह सकते हैं किन्तु कपाल कह सकते हैं। जबकि फिर दूसरा घड़ा नजर आया तो उसकी दूसरी घट संज्ञा हुई। दूसरी घट संज्ञा के होने में समता कहां रही जब समता ही नहीं है तो प्रत्यभिज्ञा कैसी? क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञा उसी पदार्थ में होती है जिसको कभी पहले देखा हो और जो घड़ा पहले देखा था उसका तो नाश हो गया, जिसको अब देख रहे हैं वह दूसरा है, जो वह पहिले देखा हुआ नहीं हो सकता इसी से प्रत्यभिज्ञा भी नहीं हो सकती। प्रश्न- सम्बन्धी अनित्य हो परन्तु सम्बन्ध तो नित्य ही मानना चाहिये ?

नाजः सम्बन्धो धर्मिग्राहकमानबाधात् ॥ 5.98 ॥

अर्थ- जबकि संज्ञा-संज्ञी दोनों ही अनित्य सिद्ध हुए तो उनका सम्बन्ध कैसे नित्य हो सकता है? क्योंकि जिन प्रमाणों से सिद्ध होता है उनके ऐसा कहना नही बन सकता कि संबंधी चाहे अनत्य हो पर सम्बन्ध को नित्य मानना चाहिये। उत्तर यह है कि यह बात किसी प्रकार ठीक नहीं हो सकती कि सम्बन्धी तो अनित्य हो और सम्बन्ध नित्य हो। प्रश्न- गुण और गुणी का नित्य समवाय सम्बन्ध शास्त्रों से सुना जाता है और वास्त में दोनों अनत्य हैं, यह कैसे ठीक हो सकता है ?

न समवायोऽस्ति प्रमाणाभावात् ॥ 5.99 ॥

अर्थ- समवाय कोई सम्बन्ध नहीं है प्रमाण के न होन से ।

उभयत्राप्यन्यथासिद्धेर्न प्रत्यक्षम-नुमानं वा ॥ 5.100 ॥

अर्थ- घड़ा मिट्टी से बना है व बना होगा, इन दोनों तरह के ज्ञानों में अन्यथा सिद्ध है, इस वास्ते समवाय को मानने की कोई जरूरत नहीं। इस सूत्र का स्पष्ट भाव यह है कि घट का उपादान कारण मिट्टी है और यह बात प्रत्यक्ष दीखती है इस मिट्टी से ही घड़ा बनता है और अनुमान भी किया जाता है। इस प्रकार यह भी उक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि बिना मिट्टी के घड़ा नहीं बन सकता, इसलिए घट और मिट्टी का सम्बन्ध हुआ, लेकिन समवाय कोई सम्बन्ध नहीं है ।

नानुमेयत्वमेव क्रियाया नेदिष्ठस्य तत्तद्वतोरेवापरोक्षप्रतीतेः ॥ 5.101 ॥

अर्थ- त्रिया और त्रिया वाले का संयोग होकर वह बनता है, इस बात के जानने के लिए अनमान की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि पास रहने वाले कुम्हार की प्रत्यक्ष त्रिया को देख कर ही जान लेते हैं कि दो कपालों के मिलने से घट बनता है, इसलिए जब तक वह घड़ा मौजूद रहेगा तब तक सम्बन्ध भी जरूर रहेगा, इसके लिए समवाय सम्बन्ध के मानने की कोई जरूरत नहीं है। दूसरे अध्याय में यह मतभेद कह चुके हैं कि शरीर पांच भौतिक है। अब उन मतों की सत्यासत्यता दिखाते हैं कि वे मत सच्चे हैं या झूठे ।

न पाञ्चभौतिकं शरीरं बहूनामुपादानायोगात् ॥ 5.102 ॥

अर्थ- शरीर पांच भौतिक नहीं है अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज वायु, आकाश से शरीर की उत्पत्ति नहीं हैं, क्योंकि बहुत से पदार्थ के उपादान कारण (जो जिससे बने, जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है) नहीं हो सकते, इस कारण शरीर को सिर्फ पार्थिव (पृथ्वी से बना हुआ) ही माना चाहिये और जो अग्नि आदि चार भूत इसमें कहे जाते हैं वे सिर्फ नाममात्र को ही हैं। कोई-कोई स्थूल शरीर को भी मानते हैं उनका भी खण्डन करते हैं ।

न स्थूलमिति नियम आतिवाहिकस्यापि विद्यमानत्वात् ॥ 5.103 ॥

अर्थ- स्थूल शरीर ही है ऐसा कोई भी नहीं है, क्योंकि आतिवाहिक अर्थात् ल्रिग शरीर भी मौजूद है। यदि लिंग शरीर को न माना जाय तो स्थूल शरीर में गमनादि त्रिया ही नहीं हो सकती। इस बात को तीसरे अध्याय में विस्तार विस्तारपूर्वक कह आये है जैसे-तेल बत्ती रूप से उत्पन्न हुईदीप की शिक्षा सम्पूर्ण घर का प्रकाश कर देती है, इसी तरह लिंग शरीर भी स्थूल शरीर को अनेक व्यापारों में लगाता है और इस बात को भी पहले कह आये हैं कि इन्द्रियां गोलकों से अतिरिक्त हैं, इसके साबित करने को ही इन्द्रियों की शक्ति कहते हैं ।

नाप्राप्तप्रकाशकत्वमिन्द्रियाणा-मप्राप्तेः सर्वप्राप्तेर्वा ॥ 5.104 ॥

अर्थ- जिस पदार्थ का इन्द्रियों से कोई भी सम्बन्ध नही है उसका इन्द्रिया प्रकाश नहीं कर सकतीं। यदि कर्म करती हैं तो देशान्तर में रक्खी कोई वस्तु का भी प्रकाश करना सिद्ध हो जायेगा परन्तु ऐसी बात न तो नेत्रों से देखी और न कानों से सुनी। इस सूत्र का स्पष्ट भाव यह है कि इन्द्रियां उसी पदार्थ को प्रकाश कर सकती है जिसमें उनका सम्बन्ध होता है, सम्बन्ध रहित प्रकाश करने में उनकी शक्ति नहीं हैं। यदि इन्द्रियों में यह शक्ति होती कि बिना सम्बन्ध वाले पदार्थ को भी प्रकाश कर दिया करतीं तो देशान्तर के पदार्थ का भी प्रकाश करना कुछ मुश्किल न होता और दूसरी जगह रक्खे हुए पदार्थां का नत्र आदि इन्द्रियों को ज्ञान हो जाया करता कि वह वस्तु अमुक स्थान में रक्खी है तो उनको सवंज्ञता प्राप्त हो सकती है, इसलिए ईश्वर और इन्द्रियों में कुछ भेद नहीं हो सकता, क्योकि ईश्वर सर्वज्ञ है और इन्द्रियां भी सर्वज्ञ हैं, ऐसा ही कहने में आवेगा। इस कारण यही बात माननी ठीक है कि नेत्र आदि इन्द्रियां उस वस्तु का ही प्रकाश कर सकती हैं जो उनको दीखती है। प्रश्न- अपसर्पण (फैलाना) तेज का धर्म है और तेज पदार्थ का प्रकाश करता है। इसी तरह नेत्र को भी तेजस्परूप मानना चाहिये, क्योंकि वह नेत्र भी पदार्थ का प्रकाश करता है ।

न तेजोऽपसर्पणात्तैजसं चक्षुर्वृत्तितस्तत्सिद्धेः ॥ 5.105 ॥

अर्थ- निस्सन्देह तेज में फैलने की शक्ति है, परन्तु इससे चक्षु को तेज स्वरूप नहीं कह सकते, क्योंकि जिस बात के सिद्ध करने के लिए नेत्र को तेजस्वरूप मानने की जरूरत है वह बात इस रीति से सिद्ध हो सकती है कि जो नेत्र की वृत्ति है (जिससे कि पदार्थ का प्रत्यक्ष होता है) उसी से पदार्थ का प्रत्यक्ष माना जाये ।

प्राप्तार्थप्रकाशलिङ्गाद्वृत्तिसिद्धिः ॥ 5.106 ॥

अर्थ- नत्र का जिस पदार्थ से सम्बन्ध होती है उसको ही प्रकाश करता है, इससे साफ-साफ सिद्ध होता है कि चक्षु की बत्ति तेजस्वरूप है नेत्र तेजस्वरूप नहीं हैं। प्रश्न- जाब नेत्र का पदार्थ से सम्बन्ध होता है तब नेत्र की वृत्ति शरीर को बिना छोड़े उस पदार्थ पर कैसे जा पड़ती है ?

भागगुणाभ्यां तत्त्वान्तरं वृत्तिः सम्बन्धार्थं सर्पतीति ॥ 5.107 ॥

अर्थ- नेत्र आदि की वृत्ति पदार्थ के सम्बन्ध वास्ते जाती है, इससे नेत्र का भाग या रूप आदि गुण वृत्ति नहीं है किन्तु भाग और गुण इन दोनों से भिन्न एक तीसरे पदार्थ का नाम वृत्ति है, क्योंकि यदि चक्षु आदि के भाग का नाम वृत्ति है, क्योंकि यदि चक्षु आदि के भाग का नाम वृत्ति होता तो एक-एक पदार्थ का एक-एक- बार नेत्र से सम्बन्ध होने पर सहस्त्र-सहस्त्र नेत्र के टुकड़े होकर उसका नाश हो जाना योग्य जड़ होते हैं, इस वास्ते वृत्ति का पदार्थ के साथ सम्बन्ध होते ही पदार्थ में चला जाना नहीं हो सकता था। अतः भाग और गुण इन दोनों से वृत्ति भिन्न एक पदार्थ है। प्रश्न- ऐसे लक्षणों के करने से एक वृत्ति द्रव्य सिव् होता है तब इच्छा आदि जो बुद्धि के गुण हैं उनको वृत्ति क्यों माना है? क्योंकि गुणों का नाम वृत्ति नही हो सकता ।

न द्रव्यनियमस्तद्योगात् ॥ 5.108 ॥

अर्थ- वृत्ति द्रव्य ही है यह नियम नहीं, क्योंकि अनेक वाक्यों में ऐसे विषय पर भी वृत्ति का व्यवहार देखने में आता है जहां पर द्रव्य का अर्थ नहीं हो सकता, जैसे-वैश्य वृत्ति शूद्र वृत्ति इत्यादि। अतः हमने जिस विषय पर वृत्ति को द्रव्य माना है उसी विषय पर द्रव्य है और जगह जैसा अर्थ हो वैसा ही करना चाहिये। इस बात को भी पहिले कह छुके हैं कि पांचभौतिक शरीर सिर्फ नाममात्र ही है वास्तव में तो पार्थिव है। अब इस बात का विचार किया जाता है कि जिन इन्द्रियों के आश्रय से शरीर है वे इन्द्रियां जैसे कि हम लोगों की अहंकार पैदा हैं वैसे ही और देशों के मनुष्य की भी अहंकार से ही पैदा होती हैं पंचभूत से नही पैदा होती ।

न देशभेदेऽप्य-न्योपादानतास्मदादिवन्नियमः ॥ 5.109 ॥

अर्थ- देश के भेद होने पर भी वस्तु का दूसरा उपादान नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे हम लोग देशों में जाकर वास करने ल्रते हैं, परन्तु इन्द्रियां नही बदलतीं वेज्यों की त्यों रहती हैं, हमारा देश ही तो पलट जाजा है। यदि देश भेद ही इन्द्रियों के बदलने में वा और उपादान कारण करने के हेतु होता है तो हम लोगों की इन्द्रियां भी वहां जाकर जरूर बदल जातीं, लेकिन देखने में नहीं आता, इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रिया पांचभौतिक नहीं, किन्तु अहंकार से पैदा है? प्रश्न- जब कि इन्द्रियों की तरह अहंकार से उत्पत्ति है तो उनको भोतिक क्यों प्रतिपादन किया है ?

निमित्तव्यपदेशात्तद्व्यपदेशः ॥ 5.110 ॥

अर्थ- अन्द्रियों का निमित्त जो अहंकार है उससे पचंभूतों में भी इन्द्रियों का काणत्व स्थापन किया जाता है, जैसे-आग यद्यपि काष्ठादि रूप नहीं है तथापि उसका लकड़ी की आग इत्यादि रूपों से पुकारते हैं, इसी तरह इन्द्रियां भी भौतिक नहीं हैं, तो भी उनका भौतिक कहते हैं। प्रश्न- सृष्टि किने प्रकार की है? उत्तर- छः प्रकार की, देखे-

ऊष्मजाण्डजजरायुजोद्भिज्जसांकल्पिकसांसिद्धिकं चेति न नियमः ॥ 5.111 ॥

अर्थ- (१) ऊष्मज (जो पसीने से पैदा होते हैं, जैसे लीख आदि), अण्डज (जो अण्डे से पैदा होते हैं, जैसे मुर्गी आदि), (३) जरायुग (जो झिल्लों से पैदा होते हैं, मनुष्य आदि), (४) उद्भिज्ज (जो जमीन को फोड़कर पैदा होते हैं, पेड़ आदि), (५) सांकल्पिक (जैसे सृष्टि के आदि में बिना माता-पिता के देवऋषि पैदा होते हैं), (६) सांसिद्धिक (जैसे खान में धातु बनते हैं)। आचार्य (कपिलजी) ने यही छः प्रकार की सृष्टि मानी है, लेकिन इन छः प्रकार के सिवाय और किसी तरह की सृष्टि नहीं हैं, ऐसा नियम भी नहीं, क्योंकि शायद किसी दशा में भूतों की सृष्टि इनसे अन्य प्रकार की हो। आचार्य के निश्चय से तो छः ही प्रकार की सृष्टि देखने में आती है ।

सर्वेषु पृथिव्युपादानमसाधारण्यात्तद्व्यपदेशः पूर्ववत् ॥ 5.112 ॥

अर्थ- इन सब प्रकार की सृष्टियों का साधारण उपादान कारण पृथ्वी है, इसलिए इनका पार्थिव कहना योग्य है, और जो पंचभूतों का व्यपदेश (नाम) सुना जाता है वह पूर्वकथन के समान समझना चाहिये अर्थात् मुख्य उपादान कारण पृथ्वी है और सब गौण हैं। प्रश्न- इस शरीरा में प्राण ही प्रधान है, इसलिये प्राण को ही देह का कत्र्त मानना चाहिए ?

न देहारम्भकस्य प्राणत्वमिन्द्रियशक्तितस्तत्सिद्धेः ॥ 5.113 ॥

अर्थ- शरीर का कत्र्ता प्राण नहीं हो सकता, क्योकि प्राण इन्द्रियों की शक्ति से अपने कार्यं को करता हैं और इन्द्रियों के साथ प्राण का अन्वय-व्यतिरेक दृष्टान्त भी हो सकता है कि जब तक इन्द्रियां हैं तब तक प्राण हैं, जब इन्द्रियां नाश हो गई तब प्राण भी नाश हो गया, इसलिए प्राण को देह का कारण नहीं कह सकते। प्रश्न- जबकि शरीर के बनने में प्राण नहीं है तो बिना प्राण के भी शरीर की उत्पत्ति होनी चाहिये ?

भोक्तुरधिष्ठानाद्भोगायतननिर्माणम-न्यथा पूतिभावप्रसङ्गात् ॥ 5.114 ॥

अर्थ- भोक्ता (पुरूष) के व्यापार से श्रीर का बनना हो सकता है। यदि वह प्राणों को अपने-अपने स्थान न लगावे तो प्राण-वायु कभी भी ठीक-ठीक रसों को नहीं पका सकता। जब रस ठीक तरह से न पकेंगे तो शरीर में सैकड़ों तरहके रोग पैदा हो जायेंगे और दुर्गन्ध आने लगेंगी। अतएव यद्यपि प्राण कारण है लेकिन मुख्य कारण पुरूष को ही मानना चाहिये। प्रश्न- जो अधिष्ठानतृत्व (बनानेवालापन) पुरूष में माना जाता हैं वह अधिष्ठातृत्व यदि प्राण में ही माना जावे तो क्या हानि है ?

भृत्यद्वारा स्वाम्यधिष्ठितिर्नैकान्तात् ॥ 5.115 ॥

अर्थ- इस प्रकार हम भी पुरूष को अधिष्ठाता मानते है। जैसे राजा अपने भृत्यों (नौकरों) के द्वारा मकानादिकों को बनवाता है और वह मकानादि राजा के बनाये हुए हैं, इस प्राकर लोक में प्रसिद्ध होते हैं और उन मकानों का मालिक भी राजा ही है। इसी प्रकार पुरूष भी प्राण और इन्द्रियों के द्वारा शरीर को चलता है, परन्तु अकेला आप नहीं चलता और बिना उसके यह शरीर चल नहीं सकता इससे वह अधिष्ठाता समझा जाता है। अब इससे आगे पुरूष का मुक्त दशा में स्वरूप आदि कहते हैं ।

समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता ॥ 5.116 ॥

अर्थ- समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में पुरूष को ब्रह्यरूपता हो जाती है अर्थात् जैसा ब्रह्य आनन्स्वरूप हैं वैसे ही जीव भी आनन्दस्वरूप हो जाता है। इस सूत्र का अर्थ और टीकाकारों ने ऐसा किया है कि समाधि, सुषुप्ति, मोक्ष इन तीनों अवस्थाओं में जीव ब्रह्य हो जाता है, परन्तु ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं हैं, क्योंकि रूप शब्द का सादृश अर्थ है, जैसा कि अमुक मनुष्य देवस्वरूप है इसके कहने से यह प्रयोजन सिद्ध हो जाता है कि यह देव नहीं है, किन्तु देवताओं के से उसमें गुण है जो विद्वान हैं उनको ही देवता कहते हैं, इस बात को यह कह चुके हैं। इसी से उसको देवस्वरूप कहा गया। यदि देवता ही कहना स्वीकार होता तो अमुक मनुष्य देवता है उतना ही कहना योग्य था, इसलिये इस कहे हुए सूत्र में भी ब्रह्य के से कितने ही गुण इन अवस्थाओं में हो जाते हैं, परन्तु जीव ब्रह्य नहीं हो जाता है तो ‘ब्रह्यरूपता’ न कहते, किन्तु ‘‘ब्रह्यत्वम्’’ ऐसा कहते। जो ब्रह्य को और जीव को एक मानते हैं उनका मत इस ज्ञापन से दूषित हुआ। प्रश्न- जबकि समाधि और सुषुप्ति में भी आनन्द हो जाता है, तो मुक्ति के लिस उपाय को क्या जरूरत है, और मुक्ति में अधिक कौनसी बात रही है ?

द्वयोः सबीजमन्यत्र तद्धतिः ॥ 5.117 ॥

अर्थ- समाधि और सुषुप्ति में जो आनन्द प्रात होता है वह थोड़े ही समय के लिए होता है और उसमें बन्ध भी बना रहता है। मोक्ष का आनन्दों और मोक्ष के आनन्द में है। प्रश्न- समाधि और सुषुप्ति यह दोंनों प्रत्यक्ष दीखती हैं, परन्तु मोक्ष प्रत्यक्ष नहीं दीखता, इसलिए इसमें आनन्द न कहना चाहिए ।

द्वयोरिव त्रयस्यापि दृष्टत्वान्न तु द्वौ ॥ 5.118 ॥

अर्थ- जैसे समाधि और सुषुप्ति यहदोनों प्रत्यक्ष दीखती हैं, वैसे ही मोक्ष भी प्रत्यक्ष दीखता हैं वह प्रत्यक्ष इस प्रकार होता है कि जब तक मनुष्य किसी कर्म को करके उसका फल नहीं भोग लेता है तब तक कर्म के साधन करने के लिए उसकी नीयत नहीं होती, जैसे-पहले भोजन कर चुके हैं तो दूसरे दिन भी भोजन करने के लिए उपाय किया जाता है। इसी तरह जब पहिले जीव मोक्ष के सुख को जान चुका है तब फिर भी मोक्ष सुख के लिए उपाय करने की नीयत होती है। यदि यह कहा जावे कि इस जन्म में जिस मनुष्य ने कभी राज्य सुख नहीं भोगा है, परन्तु उसकी यह इच्छा रहती है कि राज्य का सुख प्राप्त हो। इसका यह उत्तर है कि राज्य में जो सुख होता है उसका तो नेत्रों से देखते हैं इससे यह साबित हुआ कि या तो मोक्ष का सुख कभी आप उठाया है अथवा किसी को मोक्ष से आनन्दित देखा है, इसलिये उसकी मोक्ष में नीयत होती है, यही प्रत्यक्ष प्रमाण है औा अनुमान से इस प्रकार मोक्ष को जान सकता है कि सुषुप्ति में जो आनन्द प्राप्त होता है उसको नाश करने वाले चित्त के रागादि दोष हैं वे रागादिक ज्ञान के अतिरिक्त और किसी प्रकार नाश नहीं हो सकते हैं। जब ज्ञान प्राप्त हो जायेगा तब सुषुप्ति आदि सब अवस्थाओें की अपेक्षा जिसमें अधिक समय तक आनन्द की प्राप्ति हो, ऐसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं। प्रश्न- समाधि में तो वैराग्य से कर्मों की वासना कमती हों जाती है, इस वास्ते समाधि में तो आनन्द प्राप्त हो सकता है, परन्तु सुषुप्ति में वासना प्रबल होती है, तो पदार्थों का ज्ञान भी अवश्य होगा अर्थात् वासनायें अपने विषय की तरफ खेंकर उनमें जीव को लगा देंगी। जब पदार्थ का ज्ञान रहा तो आनन्द प्राप्ति कैसी ?

वासनयानर्थख्यापनं दोषयोगेऽपि न निमित्तस्य प्रधानबाधकत्वम् ॥ 5.119 ॥

अर्थ- जैसे वैराग्य में वासना कमती होकर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती, इस तरह निद्रा दोष के योग से भी वासना अपने विषय की ओर नहीं खींच सकती, क्योंकि वासनाओं का निमित्त जो संस्कार है वह निद्रा के दोष से बाधित हो चुका है, इस वास्ते सुषुप्ति में भी समाधि की तरह आनन्द रहता है। पहले इस बात को कह चुके हैं कि संस्कार के लेश से जीवान्मुक्त शरीर बन सकता है। प्रश्न- जब संस्कार से शरीर बना रहता है वह एक ही संस्कार उस जीव के प्राण धारणरूपी त्रिया को दूर कर देता है वा पृथक्-पृथक् त्रियाओं के लिए पृथक्-पृथक् संस्कार हैं ?

एकः संस्कारः क्रियानिर्वर्तको न तु प्रतिक्रियं संस्कारभेदा बहुकल्पनाप्रसक्तेः ॥ 5.120 ॥

अर्थ- जिस संस्कार से शरीर का कार्य चल रहा है वह एक ही संस्कार निवृत्त होकर शारिरिक त्रियाओं को भी दूर कर देता है। हर एक त्रिया के वास्ते अलग-अलग संस्कार नहीं मानने चाहियें, क्योंकि बहुत से संस्कार हो जायेंगे और उन बहुत से संस्कारों का होना व्यर्थ हैं। प्रश्न- सुषुप्ति अवस्था में बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, इस कारण उस दशा में शरीर को भोगायतन मानना ठीक नहीं ।

न बाह्यबुद्धिनियमो वृक्षगु-ल्मलतौषधिवनस्पतितृणवीरुधादीनामपि भोक्तृभोगायतनत्वं पूर्ववत् ॥ 5.121 ॥

अर्थ- कुछ पुस्तके में दो सूत्र माने गए हैं। अर्थ- जिसमें बाह्य बुद्धि होती है उसको शरीर कहते हैं, यह नियम भी नहीं हैं, क्योंकि मृतक शरीर में बाह्य बुद्धि नहीं होती है तो क्या उसको शरीर नही कह सकते हैं। और वृक्ष, गुल्म, औषधि, वनस्पति, तृणः वीरूध आदिकों में बहुत से जीव भाग के नितित्त रहते हैं और उनका बाहर के पदार्थों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, यदि बाहर के पदार्थों के ज्ञान से ही शरीर माना जावे तो उनको शरी को शरीर न मानना चाहिए ।

स्मृतेश्च ॥ 5.122 ॥

अर्थ- ‘‘शरीरजैः कमदोपैर्याति सर्थावरतां रनः’’ शरीर से पैदा हुए कर्म के दोषों से मनुष्य स्थावर योनि को प्राप्त होता है, इस बात को स्मृतियां कहती हैं। इससे सिद्ध होता है कि स्थावर भी शरीरी हैं? प्रश्न- जबकि वृक्षादिकों को भी शरीरधरी मानते हो तो उनमें धर्माधर्म मानने चाहियें ?

न देहमात्रतः कर्माधिकारित्वं वैशिष्ट्यश्रुतेः ॥ 5.123 ॥

अर्थ- देहधारी मात्र को शुभा शुभ कर्मों का अधिकार नहीं दिया गया है किन्तु श्रुतियों ने मनुष्य जाति को ही धर्माधर्म का अधिकार प्रतिपादन किया है। देह के भेद से ही कर्म-भेद हैं, इस बात को आगे के सूत्र से युद्ध करते हैं ।

त्रिधा त्रयाणां व्यवस्था कर्मदेहोपभोगदेहोभयदेहाः ॥ 5.124 ॥

अर्थ- उत्तम, मध्यम, अधम, इन तीन तरह के शरीरों की तीन व्यवस्था हैं और उनके वास्ते ही धर्म आदि अधिकार हैं एक कर्म-देह जो सिर्फ कर्मों के करते-करते ही पूरा हो जाय जैसे अनेक ऋषि मुनियों का जन्म तप के करने ही में पूरा हो जाता है। दूसरा उपभोग देह जैसे अनेक पशु-पक्षी कीटादि का शरीर कर्मफल भोगते ही पूरा हो जाता है। तीसरा समान्य उभय देह है, जिसने कर्म भी किये हों और भोग भी भोगे हों, जैसे सामान्य मनुष्यों का शरीर। केवल दो प्रकार के देहों के लिए कर्म की विधि है, भोग योनि के वास्ते नहीं। मनुष्यों के अतिरिक्त और सब उपभोग देह अर्थात् भोग योनि हैं, इसलिये उनको धर्माधर्म का विधान नहीं है ।

न किं चिदप्यनुशयिनः ॥ 5.125 ॥

अर्थ- जो मुक्त हो गया है उसके वास्ते कोई भी विधान नहीं हैं, औ न उसको किसी विशेष नाम से कह सकते हैं। प्रश्न- जीव को इस शास्त्र में नित्य माना है तो उस जीव के आश्रय में रहने वाली बुद्धि को भी नित्य मानना चाहिये ?

न बुद्ध्यादिनित्यत्वमाश्रयविशेषेऽपि वह्निवत् ॥ 5.126 ॥

अर्थ- यद्यपि बुद्धि आदि का आश्रय जीव नित्य है तो भी बुद्धि आदि नित्य नहीं है, जैसे चन्दन का काठ शीत प्रकृति वाला होता है परन्तु आग के संयोग होने पर उसकी शीतलता आग में नहीं हो सकती ।

आश्रयासिद्धेश्च ॥ 5.127 ॥

अर्थ- जीव बुद्धि का आश्रय हो ही नहीं सकता। इनका सम्बन्ध इस तरह जैसे स्फटिक और फूल का है, इस वास्ते प्रतिबिम्ब कहना चाहिए आश्रय नहीं। इस विषय पर यह संदेह होता है कि आचार्य योग की सिद्धियों को सच्ची मानते हैं और उनके द्वारा मुक्ति को भी मानते हैं, परन्तु योग की ऐसी भी सैकड़ों सिद्धियां हैं जो समझ में नहीं आतीं। इस विषय पर आचार्य आप ही कहते हैं ।

योगसिद्धयोऽप्यौषधादिसिद्धिवन्नापलपनीयाः ॥ 5.128 ॥

अर्थ- जैसे औषधियों की सिद्धि होती है अर्थात् एक-एक औषध से अनेक रोगों की शान्ति होती है, इसी तरह योग की सिद्धियों को भी जानना चाहिए। कपिलाचार्य को चैतन्य मानते हैं अतएव जो पृथ्वी आदि भूतों को चैतन्य मानते हैं उनके मत को दोषयुक्त ठहरा कर अध्याय को समाप्त करते हैं ।

न भूतचैतन्यं प्रत्येका-दृष्टेः सांहत्येऽपि च सांहत्येऽपि च ॥ 5.129 ॥

अर्थ- मिलने पर भी भूतों में चैतन्य नहीं हो सकता। यदि उनमें चेतनता होती तो उनके अलग-अलग होने पर भी दीखती, किन्तु पृथक् होने पर उनको जड़ देखते हैं तो चेतना कैसे मानें? ‘‘सांहत्येऽपि च’’ ऐसा दो बार कहना अध्याय की समाप्ति का सूचक है। इति सांख्यदर्शंने पंचमोऽध्यायः समाप्तः ।

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