Sankhya Darshan Chapter 1 , part 3

Sankhya Darshan

यदि संसार में वादी लोग प्रकृति की असिद्धि में यह यह हेतु दें कि कोई ब्रह्य को जगत् का कारण मानते हैं, कोई परमाणुओं को, कोई जगत् को अनुत्पन्न ही मानते हैं, तो इस जगत्-रूप कार्यसे प्रकृति के अनुमान करने में क्या हेतु है? प्रथम तो जगत् का कार्य होना साध्य है, दूसरे कारण ब्रह्य है, या प्रकृति यह संशयात्मक हैं, इसलिये प्रकृति असिद्धि है।

जब एक कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है और कारण को देखकर कार्य का अनुमान होता हैं, तो प्रकृति को कारण सिद्ध मानना अनुचित नहीं, क्योंकि सब कार्य प्रकृति में लय होते हैं। द्वितीय पुरूष जो अपरिणामी उसको, परिणामी प्रकृति के अविवेक से वन्ध और विवेक से मुक्ति होती हैं।

सब कार्य तीन प्रकार के होते हैं-अतीत अर्थात् गुजरा हुआ, दूसरे वर्तमान, तीसरे आने वाला। यदि कार्य को सत् न मानें तो यह तीन प्रकार का व्यावहार जैसे घट टूट गया, अथवा घट वर्तमान है, अर्थवा घट होगा, नहीं, बन सकेगा। दूसरे दुःख-सुख मोहादि की उत्पत्ति में विरोध होगा, क्योंकि ब्रह्य तो आनन्दस्वरूप होने से दुःखादि से शून्य है, और परमाणु और प्रकृति में नाममात्र भेद है इसलिए प्रकृति जगत् का कारण सिद्ध है, अगले सूत्र में इसे और भी पुष्ट करते हैं-

असत् किसी वस्तु का कारण नहीं हो सकता, जैसे-मनुष्य के सींग नहीं, इसलिए संसार में उसका कोई कार्य भी नही होता, न उससे कोई कुछ बना सकता हैं।

संसार में सब वस्तुओं का उपादान नियत है, जैसे मृत्तिका से घट तो बन सकता है परन्तु पट नहीं सकता, या लोहे से तलवार बन सकती है, रूई से नहीं बन सकती, जल से बर्फ बनती है, घी से नहीं बनती, इसी प्रकार सब पदार्थों के उपादान कारण नियत हैं, नियमित कार्य-कारण भाव से सत् होने से कार्य को भी सत् मानना पड़ेगा।

यह कथन सर्वथा असम्भव है, क्योंकि संसार में ऐसे वाक्यों का साधक कोई भी दृष्टान्तादिक नहीं दीखता कि (असतः सज्जायते) अर्थात् असत् से सत् होता है। अतः मानना पड़ेगा कि (सतः सज्जायते) अर्थात् सत् ही उत्पन्न होता है।

कार्य में कारण का शक्तिमत्त्व होना ही उपादान कारण होता है, क्योंकि जिस द्रव्य में जो कार्यशक्ति वर्तमान ही नहीं है, उससे अभिलषित कार्य कदापि नहीं हो सकता, जैसे कि कृष्ण रंग से श्वेत रंग कदापि नहीं हो सकता। अब इससे यथार्थ सिद्ध हो गया कि जैसे कृष्ण रंग से श्वेत रंग उत्पन्न नहीं हो सकता, इसी प्रकार असत् से सत् भी उत्पन्न नहीं हो सकता।

उत्पत्ति से पहिले ही कार्य का कारण से भेद नहीं है, क्योकि कार्य कारण के भीती ही सदैव रहता है, जैसे कि तेल तिलों के भीतर रहता है।

अब इसमें प्रश्न पैदा होता है कि कार्य तो नित्य है तो भाव रूप ‘सत्’ कार्य में भावरूप उत्पत्तियोग नहीं हो सकता, असत् से सत् की उत्पत्ति के व्यवहार होने से। अब इस विषय में आचार्य अपने मत प्रकाश करते है।

अब यहां पर संदेह होता है कि यद्यपि उत्पत्ति से पहिले सत् कार्य की किसी प्रकार उत्पत्ति हो, परन्तु जब कार्य सत्ता अनादि है, तो उसका नाश क्यों हो सके। इसका उत्तर यह है कि कार्य की उत्पत्ति का व्यवहार और अव्यवहार अभिव्यक्ति निमित्तक है, अर्थात् अभिव्यक्ति के भाव से कार्य की उत्पत्ति होती है अभिव्यक्ति के अभाव से उत्पत्ति का अभाव है। जो पूर्व यह यह शंका की थी, कि यदि कारण में कार्य रहता है, तो उत्पन्न हुआ ऐसा कहना भी नहीं हो सकता। उसके ही उत्तर में यह सूत्र है कि अभिव्यज्यमान कार्य की उत्पत्ति का व्यवहार अभिव्यक्ति निमित्तक है। पूर्व जो कार्य असत् नहीं वा उसकी अब उत्पत्ति हुई यह कथन ठीक नहीं है।

लीड्.’’ श्लेषणे धातु से लय शद बनता है। अति सूक्ष्मता के साथ कार्य का कारण में मिल जाना, इसी का नाम नाश है। कार्य की व्यतीत अवस्था अर्थात् जो अवस्था कार्य की उत्पत्ति से पूर्व थी, उसी को धारण कर लेना और जो नाश भविष्यत् में होने वाला है, उसी का नाम प्रागभाव नामक नाश है।

बीज और अंकुर के समान अर्थात जब विचार किया जाता है कि पहिले बीज था या वृक्ष, इस विषय में परम्परा मानी गई है। इसी तरह अभिव्यक्ति मानी गई है सिर्फ भेद इतना ही है, कि उसमें त्रमित परम्परा दोष उत्पन्न होता है। अर्थात पहिले कौन था और इसमें एक कालिक एक ही समय में एक का दूसरे से उत्पन्न होना यह दोष होगा लेकिन यह दोष इस कारण माना जाता है कि पतंजलि भाष्य में भी व्यास जी ने कार्यों को स्वरूप में नित्य अवस्थाओं से विनाशी माना है, वहां अनवस्था दोष को प्रामाणिक माना है। यह बीजांकुर का दृष्टान्त केवल लौकिक है, वास्तव में यहां जन्म और कर्म का दृष्टान्त दिया जाता तो श्रेष्ठ था, जैसे-जन्म से कर्म होता है या कर्म से जन्म, क्योंकि बीतांकुर के झगड़े में कोई-कोई आदि सर्ग में वृक्ष के बिना ही बीज की उत्पत्ति मानते हैं, वास्तव में अवस्था कोई वस्तु नहीं है, इसको कहते हैः-

जैसे कि घट की उत्पत्ति के स्वरूप को ही वैशेषिकादि असत्कार्यवादी कमी के कारण मानते हैं अर्थात् यह उत्पत्ति किससे उत्पन्न हुई, ऐसा संदेह नहीं करते, केवल एक ही उत्पत्ति को मानते हैं। इसी तरह अभिव्यक्ति की उत्पत्ति किससे हुई यह विवाद नहीं करना चाहिए। केवल अभिव्यक्ति को ही मानना चाहिए। सत्कार्यवादी और और असत्-कार्यवादी इन दोनों में केवल इतना ही भेद है कि असत्कार्यवादी कार्य उत्पत्ति की पूर्व दशा को प्रागभाग और कार्य के कारण में लय हो जाने को ध्वंस कहते हैं, और इन दोनों अवस्थाओं में कार्य का अभाव मानते हैं, और इसी प्रकार सत्कार्यवादी कही हुई दोनों अवस्थाओं को अनागत और अतीत कहते हैं, तथा उन अवस्थाओं में कार्य का भाव मानते हैं, कार्य से कारण का अनुमान कर लेना चाहिए। प्रश्न- किस-किसका कार्य कहते हैं?

उत्तर- हेतुमान अर्थात् कारण वाला, अनित्य अर्थात् हमेशा एक-सा जो न अव्यापि अर्थात् एक देश में रहने वाला, सहत्रय-त्रिया की अपेक्षा वाला, अनेक जिसके अलग-अलगभेद मालूम होवें, आश्रित कारण के अधीन इसकीलिंग अर्थात् कार्य के पहिचानने का चिन्ह कहते हैं।

आंजस्य (प्रत्यक्ष) से वा कारण सामान्य गुण कार्य में पाए जाते हैं। विशेषगुणों में भेद रहता है, इससे प्रधान व्यपदेश से अर्थात् यह कारण है, यह कार्य है। इस लौकिकक व्यवहार से कार्य कारण भेद की सिद्धि होती है।

अब कार्य कारण का भेद कहकर कार्य कारण के साधम्र्य अर्थात् बराबरीपन कहते हैं- कि सत्य, रज तम, यह तीनों गुण अचेतनत्वादि का धर्म दोदों के समान ही हैं, आदि शब्द से परिणामित्वादि का ग्रहण होता है।

जब कार्य कारण का परस्पर (आपस में) वैधम्र्य कहते हैं। सत्य, रज, तम, इन गुणों का सुख-दुःख मोह इनमें अन्योऽन्य वैधम्र्य (एक ही कारण से अनेक-अनेक प्रकार के कार्यकी उत्पत्ति होना) दिखाई पड़ता है। इस सूत्र में आदि शब्द से जितना ग्रहण होता है, उनका वर्णन पंचाशिखाचार्य ने इस प्रकार किया है कि सत्वगुण से प्रोति, तितिक्षा, सन्तोष आदि सुखात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं। इस रीति से रजोगुण से अप्रीत शोक आदि दुःखात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं, एवं तम से विषाद, निद्रा (नींद) आदि मोहात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं। घटरूप कार्य में केवल मिट्टी से रूपमात्र का ही वैधम्र्य हैं।

लघुत्वादि धर्मो से सत्वादि गुणों का सामाथ्र्य और वैधम्र्य है, जैसे लघुत्व के साथ सर्व सत्वव्यक्तियों का (सतोगुण के पदार्थों का) साधम्र्य है, रज और तम का वैधम्र्म है, एवं चंचलत्वादि के साथ रजोव्यक्तियों का (रजोगुण के पदार्थों का) साधम्र्य है, और सत्व तम का वैधम्र्य है, इस ही प्रकार गुरूत्व आदि के साथ तमोव्यक्तियों का (तमोगुण के पदार्थों का) साधम्र्म है, और सत्व, रज से वैधम्र्य है। प्रश्न- यद्यपि महदादि स्वरूप से सिद्धि है तो भी प्रत्यक्ष से उनकी उत्पत्ति नननहीं दीखती, इसी कारण महदादिकों के कार्य होने में कोई भी प्रमाण नहीं?

प्रकृति और पुरूष इन दोनों से महदादिक और ही है, इस सबब उन्हे कार्य मानना चाहिए, जैसे-घट मिट्टी से अलग है इसी सबब कार्य है, क्योंकि मिट्टी कहने से न तो घट का बोध होता है, और न घट कहने से मिट्टी का ही ज्ञान होता है। इसी प्रकार प्रकृति और पुरूष कहने से महादादिकों का भी ज्ञान नहीं होता है। इस कारण महादादिकों को प्रकृति और पुरूष से भिन्न कार्य मानना चाहिए, क्योंकि प्रकृति और पुरूष कारण हैं किन्तु कार्य नहीं है।

प्रकृति पुरूष परिमित भाव से रहते हैं, कभी घटते बढ़ते नहीं। इसी सबब उनको कार्य नहीं नहीं कह सकते, क्योंकि-

मन को आदि ले के जो कि महादादियों के अवान्तर भेद हैं सो अन्नादिकों के मिलने से बढ़ते रहते हैं, और भूखे रहने से क्षीण होते हैं। इस पूर्वोंक्त समन्वय से भी महादादिकों का कार्यत्व मालूम होता है, क्योंकि जो नित्य पदार्थ होता है वह अवयव (टुकड़ा) रहित होता है अतः उनका घटना बढ़ना नहीं हो सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि घटना-बढ़ना आदि कार्य में हो सकता है। कारण में नही हो सकता। मन आदि अन्त के मिलने से बढ़ते हैं, और न मिलने से घटते हैं। इसी से महादादिकों का कार्यत्व सिद्ध होता है।

महादादिक पुरूष के कारण हैं, इसी में महदादिकों को कार्यत्व है, क्योंकि इनके बिना पुरूष कुढ नही कर सकता, जैसे कि नेत्रों के बिना पुरूष कुछ नहीं कर सकता, अर्थात् देख नहीं सकता, और पुरूष के बिना नेत्र में देखने की शक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि नेत्र तो जड़ है, इस कारण मनुष्य दर्शन रूप त्रिया को नेत्र रूपी कारण के बिना नहीं रह सकता, इस ही सबब से नेत्रादिकों को कार्यत्व माना है। इस सूत्र में इति शब्द से यह जानना चाहिए कि प्रत्येक कार्य सिद्धि में इतने ही प्रमाण होते है।

महदादिको को कार्य नहीं माने महत्तत्व को प्रकृति वा पुरूष इन दोनों में से एक अवश्य माना जाएगा, क्योंकि जो महदादि परिणाम हों तो प्रकृति, और महदादि अपरिणामी हों तो पुरूष मानना पड़ेगा। प्रश्न- प्रकृति और पुरूष से अर्थात् और कोई यथार्थ मान लिया जाय तो हानि हैं?

हां! हानि है, तुच्छत्व दोष की प्राप्ति होती है।, क्योंकि लोग में प्रकृति और पुरूष के सिवाय अन्य को अबस्तु माना है अर्थात् प्रकृति और पुरूष यह दो ही वस्तु हैं और सब अवस्तु हैं, अतएव इसकों प्रकृति का कार्य मानना चाहिए। यदि दूसरा मानें तो इसके कारण भी दूसरे ही मानने पड़ेंगे। इस प्रकार अनुमान सिद्ध करते है।

कार्य से कारण का अनुमान होता है, क्योंकि जहां-जहाँ कार्य होता है, वहीं-वहीं कारण भी होता है, और महादादिक भी अपने कार्यों के उपादान कारण हैं, जैसे कि तिल-रूप कार्य स्वगत (अपने में रहने वाले) तेल का उपादान कारण है। इस कथन से महदादिकों के कार्यत्व में किसी प्रकार की हानि नहीं है।

महत्तत्वादियों की अपेक्षा भी मूल कारण प्रकृति अव्यक्त अर्थात् सूक्ष्म है क्योंकि महत्तत्व के कार्य सुखादिकों का प्रत्यक्ष होता है और सूक्ष्मता के कारण प्रकृति का कोई गुण प्रत्यक्ष नहीं होता है। प्रश्न- प्रकृति तो परम सूक्ष्म है, अतः उसका न होना ही सिद्ध होता है?

प्रकृति का अभाव (न होना) नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति की सिद्धि (होना) मालूम पड़ती है। उसके महदादिक उसको सिद्ध कर रहे हैं। यहां तक प्रकृति का अनुमान समाप्त हुआ। अब अध्याय की समाप्ति तक पुरूष का अनुमान कहेंगे।

जिस वस्तु में सामान्य ही से विवाद नहीं है उसकी सिद्धि में साधनों की कोई अपेक्षा नही है जैसे-प्रकृति में सामान्य ही से विवाद है, उसकी सिद्धि के वास्ते साधनों की अपेक्षा आवश्यक है, वैसे पुरूष में नहीं हैं, क्योंकि बिना चेतन के संसार में अंधेरा प्रतीत (मालूम) होगा, यहां तक कि बौद्ध भी सामान्यतः कर्म भोक्ता अहं पदार्थ को पुरूष मानते हैं, तो उसमें किसी प्रकार का विवाद नहीं हो सकता। उदाहरण, धर्मवत्-धर्म की तरह जैसे कि धर्म को सभी बौद्ध नास्तिक आदि मानते हैं। वैसे ही एक चेतन को सभी मानते हैं। प्रश्न- पुरूष किसको कहते हैं।

शरीर को आदि से लेकर प्रकृति तक जो २३ पदार्थ हैं उनसे जो पृथक् है उसका नाम पुरूष है। प्रश्न- शरीरादि से जो भिन्न उसका ही नाम पुरूष है। इसमें क्या हेतु है?

जैसें शैय्या आदिक संहत पदार्थ दूसरे के वास्ते के सुख देने वाले होते हैं, अपने वास्ते नहीं। इसी प्रकार प्रकृत्यादिक पदार्थ भी दूसरे के वास्ते है। स्पष्ट आशय यह है, कि प्रकृति आदि जितने संहत पदार्थ हैं, वह किसी दूसरे के वास्ते हैं और जो वह दूसरा है, उसी का नाम पुरूष है, और संहत देहादि से भिन्न का नाम पुरूष है। यह पहिले भी भी कह आये हैं फिर यहाँ कहना हेतुओं को केवल गिनती बढ़ानी है। प्रश्न- पुरूष को प्रकृति ही क्यों न माना जाय, इसमें क्या कारण हैं?

त्रिगुण अर्थात् सत्व, रज, तम, आदि शब्द से मोह जड़त्वादि, इनसे विपरीत होने से पुरूष प्रकृति नहीं हो सकता, अर्थात् वह प्रकृति से भिन्न है, क्योंकि त्रिगुणत्व विशिष्ट का नाम प्रकृति हैं, अर्थात् सत्वोगुण, रजोगुण तमोगुण इन से जिसका सम्बन्ध है उसका ही नाम प्रकृति माना है, और जिसमें नित्यत्व, शुद्धत्व, बद्धत्व, मुक्तत्व, यह धर्म है उसका ही नाम पुरूष है, तो विचारना चाहिए प्रकृति और पुरूष में कितना भेद है। इस ही कारण पुरूष को प्रकृति नहीं मान सकते हैं।

और भी कारण है, पुरूष अधिष्ठान होने से प्रकृति से जुदा ही है। अधिष्ठान अधिष्ठेय संयोग से मालूम पड़ता है, कि दो के बिना संयोग हो ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि पुरूष प्रकृति से भिन्न है। आशय यह है कि जब प्रकृति को आधार कहते हैं तब उसमें आधेय भी अवश्य होना चाहिए, वह आधेय पुरूष है।

यदि यह कहो, शरीरादिक ही भोक्ता है, तो कर्ता और कर्म का विरोध होता है, क्योंकि आप ही अपने को भोग नहीं सकता, अर्थात् शरीरादिक प्रकृति के कार्य हैं, और स्त्रक्चन्दनादिक भी प्रकृति के कार्य हैं। इस कारण आप अपना भोग नहीं कर सकता।

यदि शरीरादिक को ही भोक्ता माना जाएगा, तो दूसरा दोष यह भी होगा कि मोक्ष के उपाय करने में किसी की प्रवृत्ति न होगी, क्योंकि शरीरादिक के विनाश होने से आप ही मोक्ष होना सम्भव है, और तीसरा दोष यह होगा, कि सुख दुःखादि प्रकृति के कारण स्वाभाविक धर्म हैं, और स्वभाव से किसी का नाश नहीं होता, इस कारण मोक्ष असम्भव हैं, इससे पुरूष को ही भोक्ता मानना ठीक है। पूर्वं कहे हुए प्रमाणों से पुरूष को २३ तत्वों से भिन्न कह चुके हैं, अब पुरूष क्या वस्तु है, यह बिचार करते हैं।

इस विषय में वैशेषिक कहते हैं कि प्रकाश स्वरूप आत्मा मन के संयोग होने से वाध्य ज्ञान से मुक्त होता है और परमात्मा प्रकाशमय हैं, जड़ प्रकृति से प्रकाशमय नहीं हो सकता। लोक में जड़ (प्रकाश रहित) कोष्ठ लोष्ठादिक है, इसमें प्रकाश किसी तरह नहीं देखने में आता। इस कारण सूर्यादिक के समान प्रकाश रूप पुरूष जानना चाहिए। प्रश्न- प्रकाश स्वरूप आत्मा में तमादि गुणों का भाव है, या नहीं?

उत्तर- नहीं! कारण यह है कि पुरूष निर्गुण है, इसी से चित् सत् रजादि गुणवाला नहीं हो सकता, क्योंकि ये गुण प्रकृति के धर्म हैं। प्रश्न- बहुत से तीन गुण पुरूष में मानकर उसको शिव, विष्णु, ब्रह्या कहते हैं?

यद्यपि उक्त कथन से पुरूष में गुण कल्पना किया जाता है, लेकिन युक्ति और श्रति इन दोनों से विरूद्ध है, क्योंकि श्रुतियों में भी साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इत्यादि विशेषणों से पुरूष को निर्गुण ही प्रतिपादन किया है, एवं उस अनुभव प्रत्यक्ष में दोष भी हो सकता है, क्योंकि वह अनुभव किसको होगा। यदि पुरूष को होगा, तो ज्ञान को पुरूष से पृथक् वस्तु मानना पड़ेगा। इस कारण पुरूष निर्गुण है। प्रश्न-जो पुरूष प्रकाश स्वरूप ही है, तो सुषुप्ति आदि अवस्थाओं की कल्पना नहीं हो सकती, क्योंकि उन अवस्थाओं में प्रकाश स्वरूपता नहीं रहती। यह जीव पर शंका है?

पुरूष सुषुप्ति का आद्य साक्षी है अर्थात् जिन अन्तःकरण की वत्तियों का नाम सुषुप्ति है, वह अन्तःकरण पुरूष के आश्रय है इसी कारण उस सुषुप्ति का साक्षी पुरूष है, और सुषुप्ति अन्तःकरण का धर्म है। प्रश्न- यदि पुरूष प्रकाश स्वरूप है, और अन्तःकरण वृत्तियों का आश्रय है, तो वह पुरूष एक है या अनेक?

संसार में जन्म को आदि लेकर अनेक अवस्था देखने में आती हैं तो इससे ही सिद्ध होता कि पुरूष बहुत हैं, क्योंकि यदि सब अन्तःकरण की वृत्तियों का आधार एक ही पुरूष होता, तो यह घट है, इस घट को मैं जानता हूं, इस घट को मैं देखता हूं। इस प्रकार का अनुभव जिस क्षण में एक अन्तःकरण को होता हैं, उसी क्षण में सब अन्तः कारणें को होना चाहिए, क्योंकि वह एक ही सबका आश्रयी है, लेकिन संसार में ऐसा देखने में नहीं आता है, इस कारण पुरूष अनेक हैं, और जो कोई-कोई टीकाकार इस सूत्र का यह अर्थ करते हैं कि जन्मादि व्यवस्था ही से बहुत प्रतीत होते है वस्तुतः नहीं। उनका कहना इस कारण अयोग्य है ‘‘पुण्यवान स्वर्गे जयते’’ पापो नरके, अज्ञोवध्यते, ज्ञानी मुच्यते। ‘‘पुण्यात्मा स्वर्ग में पैदा होता है, और पापी नरक में पैदा होता है, अज्ञ बन्धन का प्राप्त होता है, ज्ञानी मुक्त होता है, इत्यादि श्रुतियां बहुत्व का प्रतिपादन करती हैं उनसे विरोध होगा। प्रश्न- एक पुरूष को ही अनेक जन्मादि व्यवस्था हो सकती हैं या एक पुरूष को ही जन्मादि व्यवस्था है?

उपाधि (शरीरादि) भेद होने पर भी एक पुरूष का अने जन्मों में अनेक शरीरों से योग होता हैं, जैसे कि एक आकाश का घटादिकों के साथ योग होता है एक ही पुरूष जन्मान्तर में अनेक उपाधियों को धारण करता है और अनेक योग बाला कहाता है, आकाश के समान, जैसे कि आकाश एक ही है, लेकिन जब घट के साथ योग को प्राप्त होता है, तो घटाकाश कहलाता है और मठ के साथ योग को प्राप्त होता है, तो मठाकाश कहलाता है। लेकिन वे उपाधियां आकाश को एक ही समय और एक ही देश में एक साथ नहीं हो सकतीं, अर्थात जितने स्थान आकाश का नाम मठाकाश है, उस वक्त उस ही आकाश का नाम घटाकाश किसी प्रकार नहीं हो सकता, किन्तु मठ की उपाधि का नाश करके दूसरे वक्त घट के स्स्थापन होने पर घटाकाश कह सकते हैं। इस प्रकार ही पुरूष भी देशकाल में अनेक उपाधियों को धारण करके नाना योग वाला कहने में आता है अर्थात् एक ही जीव कभी मनुष्य कभी पश, पक्षी आदि नाना प्रकार के शरीर धारण करके एक ही रहता हैं, इस ही प्रकार अनेक जीव अनेक उपाधियों को धारण करते हैं, यह ज्ञाननियों का ही अनुभव हो सकता है, और भी इस ही विषय में कहते हैं।

उपाधि के बहुत से रूप होते हैं और उपाधि को ही नाना रूपों में बोलते हैं लेकिन उपाधि वाला पुरूष एक ही है। यद्यपि अनेक नव्य वेदान्ती यह कहा करते हैं, कि एक आत्मा का कार्य कारण उपाधि में में प्रतिबिम्ब के पडने से जीव ईश्वर का भेद है और प्रतिबिम्ब आपस में पृथक् होने से जन्मादि व्यवस्था भी हो सकती है यह कथन इस प्रकार अयोग्य है इसमें भेद और अभेद की कोई कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि बिम्ब (परछाई) वाला प्रतिबिम्ब परछाई इन दोनों को बिना पथक् माने विम्ब प्रतिबिम्ब भाव हो ही नहीं सकता, और जीव को ब्रह्य का प्रतिबिम्ब मानते हैं, तो देखते हैं कि प्रतिबिम्ब जड़ है। अतएव पुरूष को भोक्ता, बद्ध, मुक्त कभी नहीं कह सकते हैं, और जीव ब्रह्य की एकता के विषय में हानि होगी। अतएव सांख्य मतानुसार, जीव ब्रह्य को एक मानना भी नहीं हो सकता है। एक ही जीव रूप को धारण करता इस पक्ष का खण्डन इस सूत्र से होता है-

यदि एक ही ब्रह्य सम्पूर्ण उपाधियों से मिलकर जीव रूप हो जाता है, तो उसमें विरूद्ध धर्म दुःख बन्धनादि का अध्याय अवश्य होता इस कारण जीव ब्रह्य को एक मानना योग नहीं है।

मन आदिकों का धर्म जो सुख-दुःखादि धर्म का पुरूष में आरोप करने पर भी पुरूष को परिणामित्व को सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि सुख दुःखादि पुरूष के धर्म नहीं है किन्तु मन के धर्म हैं। पुरूष जन्मान्तरमें एक ही बना रहता है, जब हर एक शरीर में एक-एक पुरूष है तो नाना पुरूष सिद्ध हुए और ‘‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्य’’ इत्यादिक अद्वैत प्रतिपादक भुतियों से विरोध होगा?

अद्वैत की प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से विरोध न होगा कि क्योंकि वहां पर अद्वैत शब्द जाति पर है, जैसे एक आदमी के समान कोई नहीं है, जैसाकि संसार में देखने में आता है कि अमुक पुरूष अद्वितीय है। इसका आशय यह है कि उसके समान दूसरा और कोई नहीं है इस ही प्रकार ईश्वर को भी अद्वैत व अद्वितीय कहते हैं। प्रश्न- जिस रीति से अद्वैत श्रुतियों का विरोध दूर करने के वास्ते ईश्वर में अद्वैत शब्द जाति पर कहा है, उस प्रकार ही पुरूष को भी ईश्वर का ही रूपान्तर क्यों नहीं मानते हैं।

मनुष्य के बन्ध आदि कारण सब विदित हैं, और ईश्वर, नित्य, शुद्ध, मुक्तस्वरूप है, इस कारण ईश्वर का रूपान्तर नहीं हो सकता। प्रश्न- यदि जीव ईश्वर का रूपान्तर नहीं है, तो अनेक शरीर धारण करने पर भी एक ही पुरूष रहता है, इसमें क्या प्रमाण है?

जो पदार्थ अन्धे को नहीं दीखे, उसका अभाव नेत्रवान् मनुष्य कदापि नहीं कह सकता, क्योंकि उसकी नेत्रन्द्रिय की शक्ति नष्ट हो गई है, इस कारण उसको दीख नहीं सकता, और चक्षुष्मान के नेत्रेन्द्रिय की शक्ति वर्तमान है, इस कारण वह अभाव नहीं कह सकता।

यद्यपि वामदेवादिक मुक्त हो गये, लेकिन अद्वैत स्वरूप तो नहीं हुए, क्योंकि यदि मुक्त जीव सब ही अद्वैतस्वरूप हो जाते तो आज तक सहज-सहज सब पुरूष अद्वैत होकर पुरूष का नाममात्र भी न रहता। प्रश्न- वामदेवादिकों का परम मोक्ष नहीं हुआ?

अनादि काल से लेकर आज तक जो बात नहीं हुई है वह भविष्यत् काल में भी होगी, यही नियम है। इससे यह सिद्ध होता है कि अनादि काल से लेकर आज तक कोई भी पुरूष मुक्त होकर ब्रह्य नहीं हुआ, क्योंकि पुरूषों की संख्या कमती देखने में नहीं आती, और नई पुरूषों की उत्पत्ति मानी गई है, तो भविष्यत् काल में भी ऐसा ही होगा। अब मोक्ष के विषय में सांख्यकार अपना सिद्धान्त कहते हैं।

इस वर्तमान काल के दृष्टांत से यह जानना चाहिये कि पुरूष के बन्धन का किसी समय में भी अत्यन्त उच्छेद नहीं हो सकता। इसका मतलब यह है कि कोई भी पुरूष ऐसा मुक्त नहीं है, कि फिर उसका कभी बन्धन न हो सके और इससे यह भी मालूम होता है, कि मुक्त पुरूष फिर भी जन्म होता है।

मुक्ति संसार के दुःख दोनों ही से विलक्षण है, अर्थात् मुक्ति में पुरूष को शान्त सुख होता है स्वरूप है। प्रश्न- जबकि पुरूष को शांत साक्षो कह चुके वह साक्षीपन मोक्ष समय में नहीं हो सकता, क्योंकि वहां मनादि का अभाव है, तो पुरूष सदा एक रूप रहता है, यह कहना असंगत हुआ?

पुरूष को जो साक्षित्व कहा है, वह मन आदि के साथ साक्षत् सम्बन्ध में काह है, किंतु वास्तव में पुरूष साक्षी नहीं है, क्योंकि पाणिनिमुनि ने साक्षी शब्द का ऐसा अर्थ किया है ‘‘साक्षाद् द्रष्टरि संज्ञायाम्’’। इस सूत्र से साक्षी शब्द निपातन किया है, कि जितने समय में निरन्तर देखता है उतने ही समय में उसको साक्षी संज्ञा है। इसमें यह सिद्ध होता है, कि जितने समय तक पुरूष का मन से सम्बन्ध रहता है, उतने ही समय तक पुरूष की साक्षी संज्ञा रहती है, अथवा मन के संसर्ग से पुरूष में दुःख सुख आदि को माना जाय, तो पुरूष को वास्तव में दुःखादि से मुक्ति होने में यह दोष होगा कि-

यदि पुरूष को नित्यमुक्त मानें, तो मुक्ति का साधन करना व्यर्थ होता है, मुक्ति प्रतिपादक जो श्रुतियां हैं उनमें भी दोषारोपन होगा, और इस सूत्र के अर्थ में जो विज्ञान भिक्षु ने (नित्य-मुक्तत्वम्) यह पुरूष को विशेषण दिया है, अर्थात् पुरूष को नित्य मुक्त माना है। यह कथन इस कारण अयोग्य है, कि ‘‘इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः’’ इस सूत्र से पुरूष का अनित्य मुक्त कपिलाचार्य ने माना है। इससे यहां विरोध होगा। उन टीकाकारों ने यह सोचा क्या उन ऋषियों की बुद्धि मनुष्यों की बुद्धि की तरह क्षणिक होती है, कि कभी कुछ कहें कभी कुछ कहें, जबकि उक्त सूत्र ‘‘इदानीमित्यादि’’ से पुरूष को अनित्य मुक्त प्रतिपादन कर चुके, फिर नित्य-मुक्त कैसे कह सकते हैं और पूर्वोक्त टीकाकार के कथन में इस कारण से भी अयोग्यता है कि जो दोष कपिलाचार्य को अपने कहे हुए विशेषणों से दीखे, उनके दुरूस्त करने के लिए ‘‘साक्षात् संबंधात् साक्षित्वम्’’ यह सूत्र फिर कहा, इसी प्रकार ‘‘नित्यमुक्तत्वम्’’ और ‘‘औदासीन्यत्वम्’’यह दो तरह के दो दोष आवेंगे उनका समाधान इस अध्याय के अन्तिम से सिद्ध कर दिया गया है। इस ही कारण ‘‘नित्यमुक्तत्वम्’’ और ‘‘औदासीन्यत्र्चेति,’’ यह दोनों सूत्र दोष के दिखाने वाले हैं।

अर्थ- और पुरूष को वास्तव में मुक्त मानें तो औदासीन्य दोष होगा, क्योंकि पुरूष का किसी से सम्बन्ध ही नहीं है, तो वह किसी कर्म का कत्र्ता क्यों होगा। जब किसी कर्म का कत्र्ता तो रहा ही नहीं तो बन्धन् आदि में क्यों पड़ेगा, तब उसमें औदासीन्य दोष होगा। इस सूत्र का भाव और पुरूष कत्र्तव्य अगले सुत्र से प्रतिपादन करेंगे। प्रश्न- ‘‘औदासीन्यत्र्चेति’’ इस सूत्र में ‘इति’ शब्द क्यों है? उत्तर- यह इस वास्ते है कि पुरूष की सिद्धि में दोष आदि का खंडन कर चुके।

पुरूष में जो कर्तृत्व है, सो मन के उपराग से है, और मन में जो चित्तशक्ति है; वह पुरूष के संसर्ग से है। यहां पर जो ‘‘चित्सा-निध्यात्’’ यह दो बार कहा है सो अध्याय की समाप्ति का जताने वाला है और इस अध्याय में शास्त्र के मुख्य चार ही अर्थ कहे गये हैं ‘‘हेय’’ त्यागने के लायक, ‘‘हान’’ त्यागना। ‘‘हेय’’ और ‘‘हान’’ और इन दोनों के हेतु।

Comments

Popular posts from this blog

Thristy crow story in Sanskrit

Shiradi Sai Baba Decoded