Patanjali Yog Sutra Chapter 1
Yog Sutra Chapter 1
योगानुशासनम् ॥ 1.1 ॥
सूत्रार्थ - अब योग के स्वरूप को बताने वाले शास्त्र का प्रारम्भ किया जाता है ।
Now, the exposition of yoga begins.
गश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ 1.2 ॥
सूत्रार्थ - चित्त की वृत्तियों का निरोध = रुक जाना ' योग ' अर्थात् ' समाधि ' है ।
Yoga is the restraint of mental activities.
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ 1.3 ॥
सूत्रार्थ - तब असम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप में अवस्थिति होती है अर्थात् जीवात्मा अपने और ईश्वर के स्वरूप को ठीक - ठीक जानता है ।
Then awareness abides in its essential form.
वृत्तिसारूप्यमितरत्र ॥ 1.4 ॥
सूत्रार्थ - निरुद्धावस्था और एकाग्रावस्था से भिन्नावस्था अर्थात् व्युत्थान - अवस्था में जीवात्मा वृत्तियों के समान रूप वाला प्रतीत होता है ।
At other times awareness takes on the form of the mental activities.
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाऽक्लिष्टाः ॥ 1.5 ॥
सूत्रार्थ - वृत्तियाँ पांच प्रकार की होती हैं , दु : खों को उत्पन्न करने वाली और दुःखों को नष्ट करने वाली ।
There are five types of mental activities, and they are either detrimental or conducive to the practice of yoga.
रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥ 1.6 ॥
सूत्रार्थ - प्रमाण, विपर्यय , विकल्प , निद्रा और स्मृति ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ हैं, जिनका लक्षण अगले सूत्र में बतलाया जायेगा।
They are correct knowledge, misconception, imagination, sleep and memory.
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥ 1.7 ॥
सूत्रार्थ - प्रत्यक्ष अनुमान और आगम यह ' प्रमाण वृत्ति ' का स्वरूप है । अर्थात् प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम शब्द प्रमाण , यह ' प्रमाण वृत्ति ' है ।
Correct knowledge is based on perception, inference and testimony.
प्विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥ 1.8 ॥
जिसकी वस्तु के यथार्थरूप में स्थिति न हो ऐसे (मिथ्याज्ञानं) मिथ्याज्ञान को (विपर्ययः) विपर्यय कहते हैं।।
Misconception is false knowledge not based on the actual appearance of something.
प्शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥ 1.9 ॥
शब्दज्ञान के सहात्म्य से होने वाले (वस्तुशून्यः) विषयरहित ज्ञान को (विकल्पः) विकल्प कहते हैं।।
Imagination is following verbal knowledge that is devoid of an actual object.
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥ 1.10 ॥
जाग्रत तथा स्वप्र वृत्तियों के अभाव के कारण सत्त्वगुण तथा रजोगुण के आच्छादक तमोगुण को विषय करने वाली (वृत्तिः) वृत्ति का नाम (निद्रा) निद्रा है।।
Sleep is the mental activity based on the absence of other mental content.
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ॥ 1.11 ॥
पूर्व अनुभव किये हुए विषय के संस्कार से उसी विषय में होनेवाले ज्ञान का नाम (स्मृतिः) स्मृति है।।
सुत्रार्थ - आत्मा द्वारा अनुभव किये विषयों को पुनः स्मरण कर लेना "स्मृति वृत्ति " कहलाती है।
Memory is the retention of the experienced objects.
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ 1.12 ॥
अभ्यास और वैराग्य से (तन्निरोधः) उन वृत्तियों का निरोध होता है।
The restraint of these mental activities is achieved through practice and dispassion.
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥ 1.13 ॥
(तत्र) उन दोनों के मध्य में जो (स्थितौ) चित्त की स्थिति के लिये (यत्र:) यत्र किया जाता है उसको (अभ्यास:) कहते हैं।।
Practice is the exertion to achieve steadiness in the state of restraint.
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥ 1.14 ॥
दीर्घकाल, निरन्तर तथा ब्रहृाचर्य्य आदि से अनुष्ठान किया हुआ (सः, तु) अभ्यास (दृढ़भूमि) दृढ़ होता है।।
But this practice becomes firmly grounded only after it has been cultivated uninterruptedly and with devotion for a long time.
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ 1.15 ॥
इस लोक तथा परलोक के विषयों की तृष्णा से रहित पुरूष के चित्त की स्थिति को (वशीकारसंज्ञावैराग्यम्) वशीकार नामक अपन वैराग्य कहते हैं।।
Dispassion is the knowledge of mastery of one who is without thirst for objects that are seen or heard about.
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥ 1.16 ॥
विवेकज्ञान से (गुणवैतृष्ण्यम्) सत्त्वादि गुणों में होने वाली इच्छा की विवृत्ति को (तत्, परं) परवैराग्य कहते हैं।।
The supreme state of dispassion is the non-thirsting for the gunas which arises from the perception of the purusha.
वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः ॥ 1.17 ॥
वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता, इन चारों के सम्बन्ध से जो समाधि होती है उसको (सम्प्रज्ञातः) सम्प्रज्ञात कहते हैं।।
Samadhi that is accompanied by vitarka, vichara, ananda or asmita is samprajnata.
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥ 1.18 ॥
निखिलवृत्तिनिरोध के कारण परवैराग्य के अभ्यास से होने वाली (संसकारशेष) संस्कारशेष चित्त की स्थिति का नाम (अन्य:) असम्प्रज्ञातसमाधि है।।
The other, asamprajnata samadhi, follows the former upon the practice of the notion of cessation and has only samskaras as residuum.
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥ 1.19 ॥
विदेह और प्रकृतियलं पुरूषों की वृति का निरोध (भवप्रत्ययः) अज्ञानजन्य होती है।।
The samprajnata samadhi of those who have merged into prakriti and of those who are bodiless is due to the notion of becoming.
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥ 1.20
श्रद्धा, वीर्य्य, स्मृति, समाधि तथा प्रज्ञादि उपायों से होने वाले (इतरेषाम्) योगियों के चित्तवृत्त्विनिरोध का नाम उपायप्रत्यय है।।
The asamprajnata samadhi of the others is preceded by faith, energy, mindfulness, samprajnata samadhi and mystical insight.
तीव्रसंवेगानामासन्नः ॥ 1.21 ॥
तीव्रवैराग्य वाले योगियों को (आसन्न:) शीघ्र समाधि तथा उसके फल कैवल्य का लाभ होता है।।
Asamprajnata samadhi is near to those who are intensely committed to their practice of yoga.
मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ 1.22 ॥
मृदु, माध्य, अधिमात्र, इस प्रकार तीव्रता के पुनः तीन भेद होने से अधिमात्रतीव्रसंवेग योगियों को (तत:, अपि) पूर्व की अपेक्षा (विशेष:) आसन्नतर, आसन्नतम अर्थात् अति शीघ्र समाधि तथा उसके फल का लाभ होता है।।
Even among these, there is a further differentiation of intense commitment into degrees of modest, medium and extreme.
ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ 1.23 ॥
ईश्वर के प्रणिधान अर्थात भक्ति विशेष से आसन समाधि का लाभ होता है।।
Or asamprajnata samadhi is near through devotion to Ishvara.
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ 1.24 ॥
क्कश, कर्म, विपाक, आशय, इनसे (अपरामृष्ट:) रहित जो (पुरूषविशेष:) पुरूषविशेष है, उसको (ईश्वर:) ईश्वर कहते हैं।।
Ishvara is a special purusha because he is unaffected by the kleshas, karma and its fruition and by stored samskaras.
तत्र निरतिशयं सार्वज्ञबीजम् ॥ 1.25 ॥
(तत्र) उस ईश्वर में (निरतिशयं) सम से अधिक (सर्वज्ञजीवम्) सर्वज्ञता का कारण ज्ञान ही प्रमाण है।।
In Him the seed of omniscience is unsurpassed.
(पूर्वेषाम्) वह ईश्वर पूर्व ऋषियों का (अपि) भी (गुरूः) गुरू है, क्योंकि (कालेन, अनवच्देदात्) उसका काल से अन्त नहीं होता ।।
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ 1.26 ॥
(पूर्वेषाम्) वह ईश्वर पूर्व ऋषियों का (अपि) भी (गुरूः) गुरू है, क्योंकि (कालेन, अनवच्देदात्) उसका काल से अन्त नहीं होता ।।
Ishvara was also the guru of those who lived earlier by virtue of His temporal continuity.
तस्य वाचकः प्रणवः ॥ 1.27 ॥
(तस्य) उस ईश्वर का (वाचक:) नाम (प्रणव:) ओ३म् है। भाष्य - ओ३म् यह ईश्वर का मुख्य नाम है। सं० - अब प्रणिधान का स्वरूप कथन करते हैं
His symbol is the pranava.
तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥ 1.28 ॥
(तज्जप:) ओ३म् का जप और (तदर्थभावनम्) उसके वाच्य ईश्वर के पुनः २ चिन्तन करने को प्रणिधान कहते हैं।।
Perform japa of the pranava while contemplating on its meaning.
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ 1.29 ॥
(तत:) ईश्वरप्रणिधान से (प्रत्यक्चेतनाविगम:) पुरूष का साक्षात्कार (च) और (अन्तरायाभाव:) उसके साधनयोग में होनेवाले विघ्रों की निवृत्ति (अपि) होती है।।
Thence follows the attainment of inner consciousness and also the disappearance of the obstacles.
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरति-
भ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि
चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ 1.30 ॥
(व्यापिधस्त्यानसंशय०) व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरित, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व, यह नव चित्तको विक्षिप्त=चंचल करते हैं, अतएव (ते) यह (अन्तरायाः) योग में विघ्र हैं।।
Sickness, apathy, doubt, carelessness, laziness, sensual indulgence, false perspective, non-attainment of the stages of yoga and instability in these stages are the distractions to the mind and are the obstacles.
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ 1.31 ॥
(दुःखदौर्म०) दुःखदौर्मनस्य, अंडगमेजयत्व, श्वास, प्रश्वास, यह (विक्षेपसहभुव:) विक्षेपों के साथ २ होनेवाले पांच विघ्र है।।
Sorrow, dejection, trembling limbs and ordinary inhalation and exhalation accompany these distractions.
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥ 1.32 ॥
(तत्प्रतिषेघार्थ) उन विघ्रों की निवृत्ति के लिये (एकतत्त्वाभ्यास:) एकमात्र ईश्वर का प्रणिधान करना ही आवश्यक है।।
In order to counteract these distractions, one should practice concentrating on a single subject.
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ 1.33 ॥
(मैत्रीकरूणामुदितोपेक्षाणां) मित्रता, दया, हर्ष और उदासीनता की (भावनात:) भावना से (चित्तप्रसादनम्) चित्त निर्मल होता है।।
The projection of friendliness, compassion, gladness, and equanimity respectively towards the joyful, sorrowful, meritorious and non-meritorious calms the mind.
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ 1.34 ॥
(वा) अथवा (प्राण्स्य) प्राणवायु के (प्रच्छर्दनविधारणाभ्याम्) रेचन और धारण से चित्त स्थिर होता है।
Or by exhaling and restraining the breath.
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ॥ 1.35 ॥
(वां) अथवा (विषयवती) गन्धादि विषयों का (प्रवृत्ति:) साक्षात्कार करने वाली मानसवृत्ति (उत्पन्ना) उत्पन्न होकर (मनस:) मन की (स्थितिनिबन्धिनी) स्थिति को सम्पादन करती है।।
Or focus on a sense object arises and this causes steadiness of the mind.
विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ 1.36 ॥
(वा) अथवा (विशोका, ज्योतिष्मती) विशोकाज्योतिष्मती नामकः प्रवृत्ति उत्पन्न होकर चित्त को स्थिर करती है।।
Or when experiencing thoughts that are sorrowless and illuminating.
वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ 1.37 ॥
(वा) अथवा (वीतरागविषयं) रागरहित पुरूषों क चित्त में संयम करने से (चित्तम्) योगी का चित्त स्थिर होता है।।
Or when the mind has as its object those who are free from desire.
स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ 1.38 ॥
(वा) अथवा (स्वप्रनिद्राज्ञानालम्बनं) स्वप्रज्ञान तथा निद्रांज्ञान के विषय में संयम वाला चित्त स्थिर होता है।।
Or when the mind is resting on the wisdom arising from dreams and sleep.
यथाभिमतध्यानाद्वा ॥ 1.39 ॥
(वा) अथवा (यथाभिमतध्यानात्) शास्त्रोक्त चित्तस्थिति साधनों के मध्य स्वाभीष्टसाधन में संयम करने से चित्त स्थिर होता है।।
Or through a meditation of one’s inclination.
परमाणु परममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥ 1.40 ॥
(अस्य) इस योगी के चित्त का (परमाणुपरममहत्त्वान्त:) परमाणु से लेकर परममहत् वस्तु पर्य्यन्त (वशीकार:) वशीकार होता है।।
His mastery extends from the most minute to the greatest magnitude.
क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु
तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः ॥ 1.41 ॥
अभिजातस्य) अतिषुद्ध (मणे:) मणि को (इव) भांति (क्षीणवृत्ते:) राजसतामसवृत्तिरहित शुद्धसत्त्वमय चित्त का (गृहीतृग्रहणग्राहृोषु) गृहीता, ग्रहण तथा ग्राहृा में (तत्स्थतदजनता) स्थिर होकर इनके समान आकार को धारण करना (समापत्ति:) सम्प्रज्ञातसमाधि है।।
When mental activities have dwindled, the mind’s stability on and coalescence with the object of meditation, like pure crystal, whether it be the grasper, the grasping or the grasped, is called samapatti.
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥ 1.42 ॥
(तत्र) पूर्वोक्त समाधियों के मध्य में (शब्दार्थज्ञानविकल्पै:) शब्द, अर्थ, ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से (सडंकीर्णा) मिली हुई जो (समपत्ति:) सम्प्रज्ञातसमाधि है उसको (सवितर्का) सवितर्क कहते हैं।।
That samapatti in which there is intermixed a gross object’s name, the object itself and conceptual knowledge of the object is called savitarka.
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥ 1.43 ॥
(स्मृतिपरिशुद्धौ) विकल्प के कारण वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध के विस्मरण हो जानेपर (स्वरूपशून्ययइव) अपने स्वरूप से शून्यकी भांति (अर्थमात्रनिर्भासा) केवल निर्विकल्प अर्थ के स्वरूप से भान होनेवाली चित्तवृत्ति को (विर्वितर्का) निर्वितर्क समाधि कहते हैं।।
On the purification of memory which has become, as it were, empty of its essence and when the object alone shines forth, that samapatti is called nirvitarka.
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ॥ 1.44 ॥
(एतया, एव) इस सवितर्क तथा निर्वितर्कसमाधि के लक्षण से ही (सूक्ष्मविषया) सूक्ष्मविषय में होनेवाली (सविचारा) सविचारसमाधि, तथा (निर्विचारा) निर्विचारसमाधि का भी (व्याख्याता) लक्षण जानना चाहिये।।
In the same way, samapatti of subtle objects is described as savichara and nirvichara.
सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥ 1.45 ॥
(च) और सूक्ष्म विषय में होनेवाली समाधि का (अलिड्डपर्यवसानम्) ईश्वर पर्य्यन्त (सूक्ष्मविषपत्वं) सूक्ष्मविषय है।।
And the subtle objects terminate in the undifferentiate.
ता एव सबीजः समाधिः ॥ 1.46 ॥
(ताः, एव) पूर्वाक्त चारो समाधियों को ही (सबीज: समाधि:) सम्प्रज्ञात योग कहते हैं।।
These are the samadhis that are with object.
निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥ 1.47 ॥
निर्विचार समाधि की निर्मलता से (अध्यात्मप्रसाद:) सब पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है।।
When there is lucidity in nirvichara samadhi, there is clarity of the inner being.
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञाः ॥ 1.48 ॥
(तत्र) उस निर्विचारसमाधि की निर्मलता होने पर एकाग्रचित्त योगी को जो (प्रज्ञा) जानकी प्राप्ति होती है योगीजन उसको (ऋतंभरा) ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं।।
In that state, mystical insight is truth-bearing.
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्ञा ॥ 1.49 ॥
(श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यां) शब्दज्ञान तथा अनुमान ज्ञान से (अन्यविषया) समाधिप्रज्ञा का विषय भिन्न है क्योंकि वह (विशषार्थत्वात्) यथार्थ अर्थ को विषय करती है।
The scope of this mystical insight is distinct from the insight gained from scripture and inference owing to its particular purposiveness.
तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धीञा ॥ 1.50 ॥
(तज्जः) समाधिप्रज्ञा से उत्पन्न हुआ (संस्कार:) संस्कार (अन्यसंस्कारप्रतिबन्धी) व्युत्थान संस्कारों का प्रतिबन्धक होता है।।
The samskaras born from that mystical insight obstruct the other samskaras.
तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिःञा ॥ 1.51 ॥
(तस्य, अपि) पर वैराग्य द्वारा प्रज्ञा तथा प्रज् ञासंस्कारों का (निरोघे) निरोघ हो जाने पर (सर्घनिरोघात्.) पुरातन नूतन सर्व संस्कारों के न रहने से (विर्वीजः, समाधि:) निर्वीज समाधि होती है।।
When these are restrained, the entire mind is restrained and samadhi is then without object.
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