Sankhya Darshan Chapter 1 , part 1

Sankhya Darshan

अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥ 1.1 ॥

अर्थ- तीन प्रकार के दुःखों का अत्यन्ताभाव हो जाना प्राणी मात्र का मुख्य उद्देश्य है ।

न दृष्टात्तत्सिद्धिर्निवृत्तेरप्य-नुवृत्तिदर्शनात् ॥ 1.2 ॥

अर्थ- दष्ट पदार्थों अर्थात् औषधादि द्वारा दुःख का अत्यन्ताभाव हो जाना सम्भव नही, क्योकि जिस पदार्थ के संयोग से दुःख दूर होता है, असके वियोग से वही दुःख फिर उपस्थित हो जाता है, जैसे अग्नि के निकट बैठने या कपड़े के संसर्ग से शीत दूर हो जाता है, और अग्नि या कपड़े के अलग होने से फिर वही शीत उपस्थित हो जाता है, अतएव दृष्ट पदार्थ अनागत दुःख की औषध नही। प्रश्न- क्या दृष्ट पदार्थ दुःख की अत्यन्त निवृत्ति का कारण नही? उत्तर- नही

प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत्तत्प्रतीकारचेष्टनात्पुरुषार्थत्वम् ॥ 1.3 ॥

अर्थ- नित्यप्रति क्षुधा लगती है उसकी निवृत्ति भोजन से हो जाती है। इसी प्रकार और दुःख भी प्राकृतिक वस्तुओं से दूर हो सकते है अर्थात् जैसे औषध से रोग की निवृत्ति हो जाती है अतएव वर्तवान काल के दुःख दृष्ट पदार्थों से दूर हो जाते है, इसी को पुरूषार्थ मानना चाहिये ।

सर्वासम्भवात्सम्भवेऽपि सत्त्वासम्भवाद्धेयः प्रमाणकुशलैः ॥ 1.4 ॥

अर्थ- प्रथक तो प्रत्येक दुःख दृष्ट पदार्थों से दूर ही नही होता, क्योकि सर्व वस्तु प्रत्येक देष और काल में प्राप्त नहीं हो सकती। यदि मान भी लें कि प्रत्येक आवष्यकीय वस्तुयें सुलभ भी हों तथापि उन पदार्थों से दुःख का अभाव नही हो सकता, केवल दुःख का तिरो-भाव कुछ काल के लिये हो जायेगा, अतएव बुद्धिमान को चाहिए कि दृष्ट पदार्थों से दुःख दूर करने का प्रयत्न न करै, दुःख के मूलोच्छेद करने का प्रयत्न करे, जैसा कि लिखा है -

उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षश्रुतेः ॥ 1.5 ॥

अर्थ- मोक्ष सब सुखों से परे है और प्रत्येक बुद्धिमान् सबसे परे पदार्थ की ही इच्छा करता है। इस हेतू से दृष्ट पदार्थों को छोड़कर मोक्ष के लिए प्रयत्न करें, यही प्राणियों का मुख्य उद्देश्य है ।

अविशेषश्चोभयोः ॥ 1.6 ॥

अर्थ- यदि मोक्ष की अन्य सुखों के समान माना जावे तो दोनों बातें समान हो जावेंगी, परन्तु क्षणिक सुख को महाकल्प पर्यन्त सुख के समान समझना बड़ी मूर्खता है ।

न स्वभावतो बद्धस्य मोक्ष-साधनोपदेशविधिः ॥ 1.7 ॥

अर्थ- दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नही, क्योकि जो गुण स्वभाव से होता है, वह गुणी से अलग नही होता है, वह गुणी से अलग नही होता अतएव दुःख के नाश के कथन से ही प्रतीत होता है, कि दुःख जीव का स्वाभाविक गुणी से अलग हो नही सकता ।

स्वभावस्यानपायित्वादननुष्ठानलक्षणमप्रामाण्यम् ॥ 1.8 ॥

अर्थ- स्वाभाविक गुण के अविनाशी होने से जिन मन्त्रों में दुःख दूर करने का उपदेश किया गया है, वह सब प्रमाण नही रहेंगे, अतएव दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नही ।

नाशक्योपदेशविधिरुपदिष्टेऽप्यनुपदेशः ॥ 1.9 ॥

अर्थ- निष्फल कर्म के निमित्त वेद में कभी उपदेष नही हो सकता क्योकि असम्भव कि लिये उपदेष करना भी न करने के समान है, अतएव दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नही किन्तु नैमित्तिक है ।

शुक्लपटवद्बीजवच्चेत् ॥ 1.10 ॥

अर्थ- स्वाभाविक गुण का भी नाश हो जाता है, जैसे-श्वेत वस्त्र का श्वेत रंग स्वाभाविक गुण है, परन्तु वह मैला हो जाने से नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार बीज में अंकुर लाने का स्वाभाविक गुण है, परन्तु वह बीज के जला देने से नष्ट हो जाता है, अतएव यह विचार करना ठीक नही ।

श-क्त्युद्भवानुद्भवाभ्यां नाशक्योपदेशः ॥ 1.11 ॥

अर्थ- उपर्युक्त उदाहरण स्वाभाविक गुण के अत्यन्ताभाव का सर्वथा अयुक्त व अप्रामाणिक है, क्योकि यह तो शक्ति के गुप्त व प्रकट होने का उदाहरण है, क्योकि यदि रजक के धोने से पुनः यह वस्त्र श्वेत न हो जाता तब यह ठीक होता। इसी प्रकार जला हुआ बीज अनेक औषधियों के मेल से ठीक हो जाता है, अतएव यह कथन ठीक नही कि स्वाभाविक गुण का भी नाश हो सकता है ।

न कालयोगतो व्यापिनो नित्यस्य सर्वसम्बन्धात् ॥ 1.12 ॥

अर्थ- दुःख काल के कारण से नही हो सकता, क्योंकि काल सर्वव्यापक और नित्य है और उसका सबसे सम्बन्ध है, अतएव काल के हेतु से तो बन्धन मुक्त हो नही सकता, क्योकि यदि काल ही दुःख का हेतु माना जावे तो सब ही दुःखी होने चाहियें ।

न देशयोगतोऽप्यस्मात् ॥ 1.13 ॥

अर्थ- चूंकि काल के अनुसार देश भी सर्वव्यापक और सबसे सम्बन्ध रखने वाला तथा नित्य है, इसीलिए देश-योग से बन्धन नही हो सकता ।

नावस्थातो देहधर्मत्वात्तस्याः ॥ 1.14 ॥

अर्थ- प्रश्न- तो फिर क्या अवस्था अर्थात् दशाओं के हेतु से दुःख उत्पन्न होता है? क्योकि तीन अवस्था अर्थात् जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति या बाल्यावस्था या युवावस्था या वृद्धावस्था इन छः दशाओं में किसके हेतु से दुःख और बन्धन होता है ?

असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥ 1.15 ॥

अर्थ- यह जीव सर्वथा असंग है, इसका बाल्य, वृद्ध और युवावस्था से किंचित् सम्बन्ध नही। प्रश्न- तो क्या दुःख अर्थात् बन्धन के उत्पन्न होने का हेतु कर्म है ?

न कर्मणान्यधर्मत्वादतिप्रसक्तेश्च ॥ 1.16 ॥

अर्थ- वेदविहित या निषिद्ध कर्मों से जीव का बन्धन रूपी दुःख उत्पन्न नही होता, क्योकि कर्म करना भी शरीर व चित्त का धर्म है। द्वितीय कर्म शरीर से होगा और शरीर कर्म के फल से होता है, तो अनवस्था दोष उपस्थित हो जायेगा। तीसरे यदि शरीर का कर्म आत्मा के बन्धन का हेतु माना जावे तो बंधन में हुए जीव के कर्म में मुक्त-जीव का बन्धन होना सम्भव हो सकता है, अतएव कर्म द्वारा बन्धन उत्पन्न नही होता ।

विचित्र-भोगानुपपत्तिरन्यधर्मत्वे ॥ 1.17 ॥

अर्थ- यदि दुःख भोग रूप बन्धन केवल चित्त का धर्म माना जाये तो नाना प्रकार के भोग में संसार प्रवृत्त है, नही रहना चाहिये, क्योकि जीव को दुःख होने के बिना ही यदि दुःख का अनुभव कर्ता माना जाये तो सारे मनुष्य दुःखी हो जायेंगे, क्योकि जिस प्रकार दुःख का सम्बन्ध न होने से जैसे दुःखी प्रतीत होता है ऐसे ही दुःख के न होने पर सब लोग दुःखी हो सकते है, अतएव कोई दुःखी या कोई सुखी इस प्रकार अन्य प्रकार का भोग नही हो सकेगा। प्रश्न- क्या प्रकृति के संयोग से दुःख होता है ?

प्रकृतिनिबन्धनाच्चेन्न तस्या अपि पारतन्त्र्यम् ॥ 1.18 ॥

अर्थ- यदि बन्धन का कारण प्रकृति मानो तो प्रकृति स्वयं ही स्वतन्त्र नही, तो परतन्त्र प्रकृति किसी को किस प्रकार बांध सकती है, क्योकि जब तक प्रकृति का संयोग न हो तब तक वह किसी को बांध ही नही सकती और संयोग दूसरे के अधिकार में है। प्रश्न- क्या ब्रह्य की उपाधि से जीव रूप होकर अपने आप बन्ध गया है ?

न नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावस्य तद्योगस्तद्योगादृते ॥ 1.19 ॥

अर्थ- जो ईश्वर नित्य, षुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव है, उसका तो प्रकृति के साथ सदैव सम्बन्ध है इसलिए वह जीव-रूप होकर दुःख नही पा सकता, क्योकि उसके गुण एक रस है, इस कारण ब्रह्य को उपाधिकृत बन्धन नही वरन् जीव अल्पज्ञ नित्य पदार्थ है उसी का प्रकृति के साथ योग होता है और वह मिथ्या ज्ञान के कारण बद्ध हो जाता है, जैसा कि आगे कथन होगा ।

नाविद्यातोऽप्यवस्तुना बन्धायोगात् ॥ 1.20 ॥

अर्थ- जअविद्या से, जो कोई पदार्थ ही नही, बन्धन का होना सम्भव नही, क्योकि आकाश के फूल की सुगन्ध किसी को भी नही आती। यदि मायावादी जो अविद्या, उपाधि से जीव का बन्धन मानते है अविद्या को वस्तु अर्थात् द्रव्य मानते है तो उनका सिद्धान्त उड़ जायेगा जैसा कि लिखा हैः

वस्तुत्वे सिद्धान्तहानिः ॥ 1.21 ॥

अर्थ- यदि अविद्या को वस्तु मान लिया जावे तो उनके एक अद्वैत ब्रह्य के सिद्धान्त का खण्डन हो जायेगा क्योंकि एक वस्तु जो ब्रह्य है दूसरी अविद्या हो गई, इसलिए अद्वैत न रहा। प्रश्न- इसमें क्या दोष है ?

विजातीयद्वैतापत्तिश्च ॥ 1.22 ॥

अर्थ- अद्वैतवादी ब्रह्य को सजातीय अर्थात् बराबर जाति वाले, विजातीय विरूद्ध जाति वाले, स्वगत अपने भाग इत्यादि के भेद से रहित मानते है और यहां अविद्या के वस्तु मानने से विजाति अर्थात् दूसरी जाति का पदार्थ उपस्थित होने से अद्वैत सिद्धान्त का खण्डन हो गया। प्रश्न- हम अविद्या को वस्तु और अवस्तु दोनों से पृथक् अनिर्वचनीय पदार्थ मानते है, जैसे-

विरुद्धोभयरूपा चेत् ॥ 1.23 ॥

अर्थ- यदि दोनों से पृथक् मानो तो यह दोष आ जायेगा ।

न तादृक्पदार्थाप्रतीतेः ॥ 1.24 ॥

अर्थ- इस प्रकार अविद्या वस्तु अवस्तु से पृथक् नही हो सकतो, क्योकि ऐसा कोई पदार्थ नही जो सत्-असत् से पृथक् हो और यहां यह भी प्रश्न उत्पन्न होता है कि तुम्हारी अविद्या के अनिर्वचनीय होने में कोई प्रमाण है या नही। यदि कहो प्रमाण है तो वह प्रमेय हो गई फिर अनिर्वचनीय किस प्रकार हो सकती है। यदि कहो प्रमाण नही, तो उसके होने का क्या प्रमाण है ?

न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत् ॥ 1.25 ॥

अर्थ- हम षट् पदार्थों को वैशेषिक के सदृष नही मानते और न्याय के समान सोलह भी मानते है। इस कारण हमारे मत में सत्-असत् से अविद्या बिलक्षण होना ठीक है और वही बन्ध का हेतु है ।

अनयितत्वेऽपि नायौक्तिकस्य संग्रहोऽन्यथा बालोन्म-त्तादिसमत्वम् ॥ 1.26 ॥

अर्थ- आप पदार्थों की संख्या का नियत मानें चाहें न माने, परन्तु सत्-असत् से पृथक् कोई पदार्थ बिना युक्ति के माननीय नही हो सकते। नही तो बालक और उन्मत्त का कहना भी ठीक हो सकता है। जिस प्रकार बालक और उन्मत्त का कहना युक्ति शून्य होने से प्रामाणिक नही, इसी प्रकार तुम्हारा कहना भी असंगत है। प्रश्न- तो क्या जीव अनादि वासना से बन्धन में पड़ा है?

नानादिविषयोपरागनिमित्तकोऽप्यस्य ॥ 1.27 ॥

अर्थ- इस आत्मा को अनादि प्रवाह-रूप-वासना से बन्धन होना भी असम्भव मालूम होता है, क्योंकि निम्नलिखित प्रमाण से अषुद्ध प्रतीत होता है ।

नन बाह्याभ्य-न्तरयोरुपरज्योपरञ्जकभावोऽपि देशव्यवधानाच्छ्रुघ्नस्थपाटलिपुत्रस्थयोरिव ॥ 1.28 ॥

अर्थ- जो मनुष्य जीव-आत्मा को शरीर में एक देशी मानते है इस कारण जीव-आत्मा का कुछ भी सम्बन्ध बाह्य विषयों से नही रहेगा, क्योकि आत्मा और जड़ के बीच अति का अन्तर है, जैसे- पटना का रहने वाला बिना आगरा पहुंचे वहां के रहने वाले को नही बांध सकता, इसी प्रकार बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न हुई वासना आभ्यन्तरूप आत्मा के बन्धन का हेतु किस प्रकार हो सकती है? और लोक में भी ऐसा देखा जाता है कि जब रंग और वस्त्र का सम्बन्ध बिना अन्तर के होता है तब तो वस्त्र रंग पर चढ़ जाता है। यदि उनके बीच कुछ अन्तर हो तो रंग कदापि नही चढ़ सकता, अतएव वासना से बन्धन नही हो सकता, परन्तु जब लोग आत्मा और बाह्य इन्द्रियों में अन्तर मानते है तो इन्द्रियकृत वासना से आत्मा किस प्रकार का बन्धन में नही आ सकती। यदि यह कहा जाय कि बाह्य इन्दिंयों का आभ्यन्तर इन्द्रिय मन आदि से सम्बन्ध है और आभ्यन्तर इन्द्रियों का आत्मा से। इस परम्परा सम्बन्ध से आत्मा भी विषय वासना से बद्ध हो सकता है, यह कहना अयुक्त ही है, क्योंकिः -

द्वयोरेकदेशलब्धोपरागान्न व्यवस्था ॥ 1.29 ॥

अर्थ- जब आत्मा और इन्द्रिय दोनों को विषय वासना में बंधा हुआ मानोगे तो मुक्त और बन्धन में रहने वाले का पता भी नही लगेगा। इसका आशय यह है कि जब आत्मा और इन्द्रिय दोनों ही विषय वासना से समान सम्बन्ध रखते है तो इन्द्रियों का बन्धन न कह कर केवल आत्मा ही का बन्धन बतलाना अयुक्त होगा। इस कारण वासना से भी बन्धन नही होता ।

अदृष्टवशाच्चेत् ॥ 1.30 ॥

अर्थ- तो क्या फिर अदृष्ट अर्थात् पूर्व किये धर्म-अधर्म से जो एक भोग-शक्ति पैदा होती है उससे बन्धन होता है ?

न द्वयो-रेककालायोगादुपकार्योपकारकभावः ॥ 1.31 ॥

अर्थ- जब तुम्हारा बन्धन और अदृष्ट एक काल में उत्पन्न होते है तो उनमें कत्र्ता और कर्म नही हो सकता। क्योकि तुम्हारी दष्टि में संसार प्रत्येक क्षण में बदलता है तो एक स्थिर आत्मा के न होने से दूसरे आत्मा के आदृष्ट से दूसरे आत्मा का बन्धन रूप दोष होगा ।

पुत्रकर्मवदिति चेत् ॥ 1.32 ॥

अर्थ- जिस प्रकार उसी काल में तो गर्भाधान किया जाता है और उसी समय उसका संस्कार किया जाता है, अतएव एक काल में उत्पन्न होने वाले पदार्थों में पूर्व कथित सम्बन्ध हो सकता है ।

नास्ति हि तत्र स्थिर एकात्मा यो गर्भाधानादिना संस्क्रियेत ॥ 1.33 ॥

अर्थ- तुम्हारे मत मे तो स्थित जीवात्मा ही जिसका गर्भाधानादि से संस्कार किया जावे, अतएव तुम्हारे पुत्र-कर्म वाला दृष्टान्त ठीक नही। यह दृष्टान्त एक स्थिर आत्मा मानने वालों के मन में तो कुछ घट भी सकता है। प्रश्न- बन्धन भी (क्षणिक) एक क्षण रहने वाला है इसलिए उसका कारण अर्थात् नियम नही, या अभाव ही कारण है अथवा वह बिना कारण ही है ?

स्थिरकार्यासिद्धेः क्षणिकत्वम् ॥ 1.34 ॥

अर्थ- यदि तुम बन्धन को (क्षणिक) एक क्षण रहने वाला मानो तो उसमें दीप शिखा अर्थात् दीपज्योति के समान दोनों का कोई स्थिर कार्य उत्पन्न नही होगा। इससे अगले सूत्र में स्पष्ट करते है कि कार्य को क्षणिक माने में क्या दोष होगा ।

न प्रत्यभिज्ञाबाधात् ॥ 1.35 ॥

अर्थ- लोक में कोई भी पदार्थ (क्षणिक) अर्थात् एक क्षण रहने वाला नही, क्योकि यह ज्ञान के सर्वथा विरूद्ध है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य यह कहता हुआ सुनाई देता है कि जिसको मैने देखा उसको स्पर्श किया। दृष्टान्त यह है कि जैसे यदि एक घोड़ा मोल लिया जावे तो क्षणिकवादी के मत में परीक्षा करके मोल लेना असम्भव है, क्योकि जिस क्षण घोड़े को देखा था तब और घोड़ा था, जिस क्षण में हाथ लगाया तब और था दुबारा देखा तब और हुआ, इस कारण कोई हो ही नही सकता। अतएव जिसके लिए दृष्टान्त न हो वह ठीक नही इसलिए बन्धनादि क्षणिक नही वरन स्थिर है, और प्रमाण देते है -

श्रुतिन्यायविरोधाच्च ॥ 1.36 ॥

अर्थ- यह कहना कि जगत् एक क्षण रहता है श्रुति अर्थात् वेद और न्याय अर्थात् तर्क से सर्वथा विरूद्ध है, जैसा कि लिखा है -

दृष्टा-न्तासिद्धेश्च ॥ 1.37 ॥

अर्थ- क्षणिक मे जो दीपशिखा का दृष्टान्त दिया वह अयुक्त है, क्योकि क्षण ऐसा सूक्ष्म काल है कि जिसकी इयत्ता नही हो सकती और न उसकी कुछ इयत्ता है और प्रत्यक्ष में दीपशिखा कई क्षण तक एक सी बराबर रहती है, यह कथन भी सर्वथा अयुक्त है और क्षणिकवादियों के मत में एक दोष यह भी होगा कारण और कार्यभाव नही हो सकेगा और जब कार्य कारण का नियम न रहा तो किसी रोग की औषध जो निदान अर्थात् कारण के ज्ञान को जानकर उसके विरूद्ध शक्ति से की जाती है, नही हो सकेगी और संसार में जो घट का कारण मृत्तिका को माना जाता है सर्वथा न कह सकेंगे क्योकि जिस क्षण में मृत्तिका घट का कारण है वह क्षण अब नष्ट हो गया और यह कहना सर्वथा अयसुक्त है कि मृत्तिका घट का कारण नही, क्योकि बिना कारण जाने घट बनाने में कुलाल की प्रवृत्ति नही होती और यदि दोनों की अर्थात् मृत्तिका और घट की उत्पत्ति एक ही क्षण में माने तो दोष होगा ।

युगपज्जायमानयोर्न कार्यकारणभावः ॥ 1.38 ॥

अर्थ- जो पदार्थ एक साथ उत्पन्न होते है उनमें कार्य-कारण भाव नही हो सकता, क्योंकि ऐसा कोई दृष्टान्त लोक में नही है, जिसके कारण की उत्पत्ति एक साथ ही हो। यदि क्षणिकवादी यह कहें कि मृत्तिका और घट त्रम से है, पहले मृत्तिका कारण फिर घट कार्य उत्पन्न हों गया तो इसमें भी दोष है ।

पूर्वापाय उत्तरा-योगात् ॥ 1.39 ॥

अर्थ- इस पक्ष में यह दोष होगा कि पूर्व क्षण में मृत्तिका उत्पन्न हुई, दूसरे क्षण में नष्ट हुई, तब पीछे उसमें कार्यरूप घट क्यों कर उत्पन्न हो सकता है? इसलिए जब तक उपादान कारण न माना जाय तब तक कार्य की उत्पत्ति नही हो सकती अतएव कार्य कारण भाव क्षणिकवादियों के मत से सिद्ध नही हो सकता ।

तद्भावे तदयोगादुभयव्यभिचारादपि न ॥ 1.40 ॥

अर्थ- कारण की विद्यमानता से और कार्य के साथ उसका सम्बन्ध न मानने से दोनों दशाओं में व्यभिचार दोष होने से कारण-कार्य का सम्बन्ध नही रहता। जब कार्य बनता था तब तो कारण नही था और कारण हुआ तब कार्य बनाने का विचार नही, अतएव क्षणिकवादियों के मत में कार्य-कारण का सम्बन्ध किसी प्रकार हो नही सकता। प्रश्न- जिस प्रकार घट का निमित्त कारण कुलाल पहिले से ही माना जाता है. यदि इसी भांति उपादान कारण भी माना जावे तो क्या षंका है ?

पूर्वभावमात्रे न नियमः ॥ 1.41 ॥

अर्थ- यदि कारण को नियत न मानकर पूर्वभावमात्र ही माना जावे तो यह नियम न रहेगा, कि मृत्तिका ही से घट बनता है और वायु से नही बनता, क्योंकि क्षणिकवादि किसी विशेष कारण को भाव से तो मानते नही, किन्तु भाव ही मानेंगे। अतएव उपरोक्त दोष बना रहेगा और निमित्त कारण और उपादान का अन्तर भी मालूम नही होगा और लोक में उपादान कारण और निमित्त कारण का भेद निश्चित है, इसलिए क्षणिकवाद ठीक नही। प्रश्न- जो कुछ संसार में है, सब मिथ्या ही है और संसार में होने से बन्धन भी मिथ्या है, अतएव उसका कारण खोजने की कोई आवश्यकता नही, वह स्वयम् नाशरूप है ?

न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीतेः ॥ 1.42 ॥

अर्थ- इस जगत् को केवल मिथ्याज्ञान का विज्ञानमात्र नही कह सकते, क्योकि ज्ञान आन्तरिक अर्थात् भीतर ही होता है और जगत् बाहर और भीतर दोनों दशाओं में प्रकट है। प्रश्न- जब हम बाहर किसी पदार्थ के भाव को मानते ही नही केवल भीतर के विचार ही मनोराज्य की सृष्टि की भांति मालूम होते है ?

तदभावे तदभावाच्छून्यं तर्हि ॥ 1.43 ॥

अर्थ- यदि तुम जगत् को बाह्य न मानो केवल भीतर ही मानोगे तो इस दीखते हुए संसार में विज्ञान का भी अभाव मानना पड़ेगा और जगत् का शून्य कहना पड़ेगा। इसका कारण यह है कि प्रतीति विषय का साधन करने वाली होती है, इसलिए यदि बाह्य प्रतीत जगत् का साधन न करे तो विज्ञान प्रतीत भी विज्ञान को नही सिद्ध कर सकती इस हेतु से विज्ञानवाद में शून्यवाद हो जायेगा। प्रश्न- अब शून्यवादी नास्तिक अपनी दलोल देता है।

शून्यं तत्त्वं भावो विनश्यति वस्तुधर्मत्वाद्विनाशस्य ॥ 1.44 ॥

अर्थ- जितने पदार्थ है सब शून्य है, और जो कुछ भाव है, वह सब नाशवान है और जो विनाशी है, स्वप्न की भांति मिथ्या हैं इससे सम्पूर्ण वस्तुओं के आदि और अन्त का तो अभाव सिद्ध ही हो गया। अब रहा केवल माध्यभाग सो यथार्थ नही तब कौन किसको बांध सकता है? और कौन छोड़ सकता है? इस हेतु से बन्ध मिथ्या ही प्रतीत होता है। विद्यमान वस्तुओं का नाश इसलिए है कि नाश होना वस्तुमात्र का धर्म है। इस शून्यवादी के पूर्वपक्ष का खण्डन करते है ।

अपवादमात्र-मबुद्धानाम् ॥ 1.45 ॥

अर्थ- जजो कुछ मात्र पदार्थ हैं वह सब नाशमात्र् है’ यह कथन मूर्खों का अपवाद मात्र है, क्योंकि नाशमात्र वस्तु का स्वभाव कह कर, नाश में कुछ कारण न बताने से जिन पदार्थों का कुछ अवयव नही है उनका नही कह सकते। इसका हेतु यह कि कारण में लय हो जाने को ही नाश कहते है और जब निरवयव वस्तुओं को कुछ कारण न माना तो उसका लय किसी में न होने से उनका नाश न हो सकेगा। इसके सिवाय एक और भी दोष रहेगा कि हर एक कार्य का अभाव लोक में नही कह सकते, जैसे- ‘‘घट टूट गया’’ इस कहने से यह ज्ञात होगा कि घट की दूसरी दशा हो गई परन्तु घटरूपी कार्यं तो बना ही रहा। आकृति को इस हेतु से माना कि वह एक घट के टूट जाने से दूसरे घटों में तो रहती है। अब तीनों लक्षणों को खंडन करते है अर्थात्-विज्ञानवादी क्षणिकवादी और शून्यवादी ।

उभयपक्षसमानक्षमत्वादयमपि ॥ 1.46 ॥

अर्थ- जिस प्रकार क्षणिकवादी और विज्ञानवादी का मत प्रत्यभिज्ञादि दोष बाह्य प्रतीति से खण्डित हो जाता है, इसी प्रकार शून्यवादी का मत भी खण्डित हो जाता है। क्योंकि उस दशा में पुरूषार्थ का बिल्कुल अभाव हो जाता है। यदि यह कहो कि शून्यवाद करने पर भी पुरूषार्थ तो स्वीकार करते है, तो वह भी मानना आयुक्त होगा ।

अपुरुषार्थत्वमुभयथा ॥ 1.47 ॥

अर्थ- शून्यवादी के मत में पुरूषार्थ अर्थात् मुक्ति नही हो सकती, क्योंकि जब दुःख है ही नही केवल शून्य ही है तो उसकी निवृत्ति का उपाय क्यों किया जावे और मुक्ति भी शून्य ही होगी उसके लिए साधन भी शून्य ही होंगे, तो ऐसे शून्य पदार्थ के लिए पुरूषार्थ भी शून्य ही होगा। अतैव शून्यवादी का मत किसी प्रकार भी शान्ति-दायक नही और न उससे मुक्ति हो सकती है ।

न गतिविशेषात् ॥ 1.48 ॥

अर्थ- गति के तीन अर्थ है -ज्ञान, गमन, प्राप्ति। ये तीनों बंधन का हेतु नही होते। पहले जब कहा जावे कि ज्ञान विषेश से बन्धन होता है। ज्ञान तीन प्रकार का है- प्रातिभासिक, व्यावहारिक, पारमार्थिक। यदि कहा जावे कि प्रातिभासिक सत्ता के ज्ञान से बन्धन होता है तो ये कहना ठीक नही क्योंकि प्रातिभासिक सत्ता का ज्ञान इन्द्रिय और न संस्कार दोष से उत्पन्न होता है, परन्तु आत्मा में न इन्द्रिय है न संस्कार है, इसी लिए जिसका कारण है ही नही उसका कार्य कैसे हो सकता है। और रहा व्यवहारिक ज्ञान, सो तो बद्ध अवस्था को छोड़ रहता ही नही, वह बन्ध का कारण किस प्रकार हो सकता है और पारमार्थिक ज्ञान तो मुक्ति का हेतु है वह बन्ध का कारण क्यों कर हो सकता है, अतैव ज्ञानविशेष से बन्ध नही होता। दूसरा गमन शरीरादि में होता है, वह जीव का स्वाभाविक धर्म होने से बन्ध का हेतु नही हो सकता ।

निष्क्रियस्य तदसम्भवात् ॥ 1.49 ॥

अर्थ- त्रिया से शून्य जड़ प्रकृति में भी असम्भव है और व्यापक ब्रह्य में भी गति असम्भव है, और यदि जीव की गति पर विचार किया जावे तो प्रश्न यह उपस्थित होगा, कि जीव विभु है अथवा मध्यम परिणाम वाला है अथवा अणु है? यदि विभु मान लें तो गति हो नही सकती। यदि मध्यम परिमाण वाला मान लें तो यह दोष होगा। प्रश्न- क्या आत्मा अंगुष्ठमात्र नही है? यदि अंगुष्ठमात्र है तो उसमें गति इत्यादि सम्भव है। यदि विभु है तो गति हो ही नहीं सकती ।

मूर्त्तत्वाद्घटादिव-त्समानधर्मापत्तावपसिद्धान्तः ॥ 1.50 ॥

अर्थ- आत्मा के मूर्तिमान होने से घटादिकों की भांति सावयव इत्यादि दोष आ जायेंगे सावयव होने से संयोग वियोग अर्थात् उत्पत्ति और नाश भी मानना पड़ेगा। जो कि आत्मा नित्य है, इसलिए मूर्ति वाला नही हो सकता और जब मूर्तिवाला नही तो उसमें इस प्रकार की गति भी नही मानी जा सकती। अतएव आत्मा को मूर्तिवाला मानना सिद्धांत का खंडन करना है ।

गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत् ॥ 1.51 ॥

अर्थ- शरीर के सब अवयवों में जो गति है अर्थात् दूसरे शरीरों में जो गमन है वह सूक्ष्म शरीर में न हो तब तक एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर मे नही जा सकता,जैसे-आकाश घट की उपाधि से चलता है, क्योंकि घट में जो आकाश है जहां घट जाएगा साथ ही जाएगा ।

न कर्मणाप्यतद्धर्मत्वात् ॥ 1.52 ॥

अर्थ- कर्म से भी बन्धन नही होता, क्योंकि वह भी शरीर सहित आत्मा में होता है और शरीर सुख-दुःख भोगने से होता है। इसलिए कर्म से पहिले शरीर का होना आवश्यक है और शरीर होने से बन्धन भी है, उसके उत्पन्न होने की आवश्यकता नही ।

अतिप्रसक्तिरन्यधर्मत्वे ॥ 1.53 ॥

अर्थ- यदी और धर्म से बन्धन मान लें तो नियम टूट जायेंगे, क्योंकि उस अवस्था में बद्ध पुरूष के पाप से मुक्त बन्धन में आ जायेंगे, जो असंगत है ।

निर्गुणादिश्रुतिवि-रोधश्चेति ॥ 1.54 ॥

अर्थ- यदि उपादि के बिना पुरूष का बन्धन माना जावे जिन सूत्रों में जीव को साक्षिरूप और निर्गुण बतलाया है उनमें दोष आ जायेगा, इसलिए जीव स्वभाव से बद्ध है न मुक्त है वरन् यह दोनों औपाधिक धर्म है, प्रकृति के संसर्गं से बद्ध हो जाता है और परमात्मा के संसर्गं से मुक्त हो जाता है। यथार्थ में जीव सुख-दुःख से पृथक और तीनों तापों से किनारे साक्षिरूप है। इस सूत्र में इति शब्द कहने से बन्धन के कारण की परीक्षा समाप्त कर दी गई है ।

तद्योगोऽप्यविवेकान्न समानत्वम् ॥ 1.55 ॥

अर्थ- प्रकृति का योग भी अविवेक से होता है, इस वास्ते यह काल और दिशा के समान नही ।

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