Sankhya Darshan Chapter 6

Sankhya Darshan Chapter 6

अस्त्यात्मा नास्तित्वसाधनाभावात् ॥ 6.1 ॥

अर्थ- पहिले पांच अध्यायों में महर्षि कपिल जी ने अनेक प्रकार के प्रमाण युक्तियों से अपने मत का प्रतिपादन और अन्य मतों का खण्डन किया अब इस अन्त के छठे अथ्याय में अपने सिद्धान्त को बहुत सरल रीति पर कहेंगे कि जिससे इस दर्शनशास्त्र का सार बिना प्रयास अर्थात् थोड़ी मेहनत से ही समझ में आ सके जो बातें पहिले अध्यायों में कह आये हैं अब उन बातों को ही साररूप से कहेंगे कि जिससे इन दर्शन का सम्पूर्ण सार सर्व साधारण की समझ में आ जावे, इसलिए उन बातों का पुनःकहना पुनरूक्ति नहीं हो सकता है। ।।१।। अर्थ- आत्मा कोई पदार्थ अवश्य है, क्योंकि न होने में कोई प्रमाण नहीं दीखता ।

देहादिव्यतिरिक्तोऽसौ वैचित्र्यात् ॥ 6.2 ॥

अर्थ- आत्मा देहादिकों से भिन्न पदार्थ है क्योंकि उस आत्मा में विचित्रता है ।

षष्ठीव्यपदेशादपि ॥ 6.3 ॥

अर्थ- मेरा यह शरीर है, इस षष्ठीव्यवपदेश से भी आत्मा का देह से भिन्न पदार्थ होना सिद्ध है। यदि देहादिक ही आत्मा होते तो मेरा शरीर है ऐसा कहना नहीं हो सकता। ऐसा कहने से ही प्रतीत होता है, कि ‘मेरा यह’ कोई और वस्तु है, यह शरीर कोई और पदार्थ है, एक नहीं ।

न शिलापुत्रवद्धर्मिग्राहकमानबाधात् ॥ 6.4 ॥

अर्थ- शिला के पुत्र का शरीर है, इस प्रकार यदि षष्ठी का अर्थ किया जाये तो भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि धर्मिग्राहक अनुमानं से बाध की प्राप्ति आती है। (भाव इसका यह है कि) यदि ऐसा कहा जाय कि पत्थर का पुत्र अर्थात् जो पत्थर है वही पत्थर का पुत्र है, इसमें कोई भी दीखता। इसी प्रकार जो आत्मा है वही शरींर है, ऐसा यदि षष्ठी का अर्थ किया जावे तो भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा कोई प्रमाण देखने में नहीं आता जो कि शिला में पिता पुत्र के भाव को सिद्ध करता हो ।

अत्यन्त-दुःखनिवृत्त्या कृतकृत्यता ॥ 6.5 ॥

अर्थ- दुःख के अत्यन्त निवत्त होने से अर्थात् बिलकुल दूर होने से मोक्ष होता है ।

यथा दुःखात्क्लेशः पुरुषस्य न तथा सुखा-दभिलाषः ॥ 6.6 ॥

अर्थ- जिस प्रकार पुरूष को दुःखों से क्लेश होता है उसी प्रकार सुख से उसकी अभिलाषा नहीं होती अर्थात् सुखों से अभिलाषाओं का पूरा होना नहीं होता क्योंकि सुख भी प्रायः दुःखों से मिले हुए हैं।

कुत्रापि कोऽपि सुखीति ॥ 6.7 ॥

अर्थ- कहीं पर भी कोई सुखी नहीं दीखता, किन्तु सुखी दुःखी दोनों प्राकार से दीखते हैं ।

तदपि दुःखशबलमिति दुःखपक्षे निःक्षिपन्ते विवेचकाः ॥ 6.8 ॥

अर्थ- यदि किसी प्रकार कुछ थोड़ा बहुत प्राप्त भी हुआ तो भी सुख दुःख के निश्चय करने वाले विद्वान् लोग उस सुख को भी दुःख में बिनते हैं क्योंकि उसमें भी दुःख मिले हुए होते हैं, जैसे विष का मिला हुआ मिष्ट पदार्थ। इस वास्ते सांसारिक सुख को जोड़कर मोक्ष सुख के वास्ते उपाय करना चाहिए ।

सुखलाभाभावादपुरुषार्थत्वमिति चेन्न द्वैविध्यात् ॥ 6.9 ॥

अर्थ-जबकि किसी को भी सुख प्राप्त नहीं होता तो मुक्ति के वास्ते उपाय करना निष्फल है क्योंकि मुक्ति में भी सुख नहीं प्राप्त हो सकता, ऐसा न समझना चाहिये। सुख भी दो प्रकार के है-एक मोक्ष है, वह सुख और प्रकार का है उसमें किसी प्रकार के दुःख का मेल नहीं हैं। दूसरा सांसारिक सुख हैं, वह और ही प्रकार का हैं, क्योंकि उसमें दुःख मिले हुए रहा करते हैं ।

निर्गुणत्वमात्मनोऽसङ्गत्वादिश्रुतेः ॥ 6.10 ॥

अर्थ- मुक्ति अवस्था में आत्मा निर्गुण रहता है। सांसारिक दशा में लौकिक सुख आत्मा को बाधा पहुंचाते हैं, मुक्ति अपस्था में आत्मा को असंग अर्थात् विकृति के संग से श्रुतियों द्वारा संना गया है ।

परधर्मत्वेऽपि तत्सिद्धिरविवेकात् ॥ 6.11 ॥

अर्थ- यद्यपि सांसारिक दशा में गुणों का सर्वदा पुरूष में ही बोध होता हैं, परन्तु उस प्रकार का बोध अविवेक से पैदा होता है, क्योंकि जो अविवेकी हैं वही सांसारिक कर्मों केा पुरूषकृत मानते हैं, परन्तु वास्तव में वह प्रकृति और पुरूष के संयोग से होते हैं, इसलिए संयोग-जन्य हैं ।

अनादिरविवेकोऽन्यथा दोषद्वयप्रसक्तेः ॥ 6.12 ॥

अर्थ- अविवेक को प्रवाहरूप से अनादि मानना चाहिये, यदि सादि मानोगे तो यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि उसको किसने पैदा किया? यदि प्रकृति और पुरूष से पैदा हुआ तब उनसे ही पैदा हुआ और उनका ही बन्ध करे, यह दोषा होगा। दूसरा यह प्रश्न हो सकता है यदि कर्मों से इसकी उत्पत्ति मानें तो इस प्रश्न को अवकाश मिलता है कि कर्म किससे उत्पन्न हुए हैं, इसलिए इन दोनों दोषों के दूर करने के लिए अविवेक को अनादि मानना चाहिए ।

न नित्यः स्यादा-त्मवदन्यथानुच्छित्तिः ॥ 6.13 ॥

अर्थ- अविवेक नित्य नहीं हो सकता। यदि नित्य ही माना जायगा तो उसका नाश हो सकेगा, जैसे आत्मा का नाश नहीं होता है और उस अविवेक के नाश न होने से मुक्ति न हो सकेगी, इसलिये अविवेक को प्रवाहरूप से अनादि (अनित्य) मानना चाहिये ।

प्रतिनियतकारणनाश्यत्वमस्य ध्वान्तवत् ॥ 6.14 ॥

अर्थ- यह अविवेक भी प्रतिनियत कारण से नाश हो जाता हैं, इसलिये अनित्य हैं, जैसे-अंधेरा प्रकाश रूप प्रतिनियत कारण से नाश हो जाता है, इसलिये वह अविवेक नित्य नहीं हो सकता। प्रश्न- प्रतिनियत कारण किसकसे कहते हैं? उत्तर- जिससे उस कार्य की उत्पत्ति वा नाश हो जाय, जैसा अन्धेरे के दृष्टान्त से समझा लेना चाहिये ।

अत्रापि प्रतिनियमोऽन्वयव्यतिरेकात् ॥ 6.15 ॥

अर्थ- इस अविवेक के नाश करने में भी प्रतिनियत (जिस से अवश्य नाश् हो जाय) अन्वय व्यतिरेक से निश्चय कर लेना चाहिये। यह अन्वय यही है कि विवेक के होने से इसका नाश और विवेक के न होने से अविवेक का होना प्रतीत होता है, यही अन्वय व्यतिरेक का तात्पर्य है ।

प्रकारान्तरासम्भवादविवेक एव बन्धः ॥ 6.16 ॥

अर्थ- सिवाय अविवेक के जब कोई और प्रकार बन्ध में हेतु नहीं दीखता तो ऐसा मानना ही ठीक है कि अविवेक ही बन्ध है और विवेक ही मोक्ष है। कोई वादी इन तीन सूत्रों से जोकि आगे कहे जायेंगे मुक्ति सम्बन्ध में पूर्व-कक्ष करता है ।

न मुक्तस्य पुनर्बन्धयोगोऽप्यनावृत्तिश्रुतेः ॥ 6.17 ॥

अर्थ- मुक्ति की फिर बन्ध योग नहीं होता अर्थात् जो मुक्त हो चुका है वह फिर नहीं बन्ध सकता है क्योंकि ‘‘न स पुनरावत्तेते’’ चुका है (वह फिर नहीं आता है), इस श्रुति से मुक्त होने पर नहीं आता, ऐसा सिद्ध होता है ।

अपुरुषार्थत्वमन्यथा ॥ 6.18 ॥

अर्थ- यदि मुक्ति का बन्ध योग माना जाय तो अपुरूषार्थत्व सिद्ध होता है ।

अविशेषापत्तिरुभयोः ॥ 6.19 ॥

अर्थ- बद्ध और मुक्त में अविशेषापत्ति अर्थात् बराबरी प्राप्त होती है क्योंकि जो मुक्तनहीं है वह अब बंधा हुआ है और जो मुक्त हो जाएगा उसको फिर बन्ध प्राप्त हो जायगा ।

मुक्तिरन्तरायध्वस्तेर्न परः ॥ 6.20 ॥

अर्थ- जिस प्रकार कि मुक्ति का वादी ने पूर्व-पक्ष किया, उस प्रकार की मुक्ति को आचार्य नहीं मानते, किन्तु अन्तरायों के (विघ्नों के) ध्वंस (नाश) हो जाने के सिवाय और किसी प्रकार की मुक्ति आचार्य नहीं मानते ।

तत्राप्यविरोधः ॥ 6.21 ॥

अर्थ- जो श्रुति आदिको का दोष प्रतिपादन किया वह योग्य नहींद्व क्योंकि वेदों में अनेक स्थलों पर मुक्ति की भी पुनरावृत्ति लिखी है कि मुक्ति फिर लौट आती है। शंकराचार्य ने भी इस श्रुति का अर्थ इस कल्प में लौटना माना हैं, इसलिए मुक्ति से फिर बंधता नहीं, ऐसा कहना योग्य नहीं हो सकता। दूसरा यह जो दोष कहा कि पुनर्बन्ध होने से बद्ध मुक्त इोनों बराबर हो आयेंगे सो भी योग्य नहीं क्योंकि जो मनुष्य रोगी है उसकी बराबरी नीरोगी के साथ किसी प्रकार नहीं हो सकती और जो नीरोगी है वह भी कालान्तर में रोगी हो सकता है परन्तु यह विचार करके यह भविष्य रोगी का व्यवहार नहीं कर सकते। इसलिये न तो मुक्त की पुनरावृत्ति मानने से श्रुति से विरोध प्राप्त होता है और न युक्ति से ही विरोध होता है ।

अधिकारित्रैविध्यान्न नियमः ॥ 6.22 ॥

अर्थ- उत्तम, मध्यम, अधम तीन प्रकार के अधिकारी होते हैं इस कारण यह कोई नियम नहीं है कि श्रवण, मनन आदि संयोग से सबकी ही मुक्ति हो ।

दार्ढ्यार्थमुत्तरेषाम् ॥ 6.23 ॥

अर्थ- जो अज्ञ हैं उनको दृढ़ता के लिए उचित है कि श्रवण मनन आदि के अंगों का अनुष्ठान करें तो कुछ दिनों के बाद मुक्ति को प्राप्त हो सेंगे ।

स्थिरसुखमा-सनमिति न नियमः ॥ 6.24 ॥

अर्थ- जिसमें सुख स्थिर हो वो ही आसान है, इस बात को पहिले कह आए हैं अतः पद्मासान, मयूरासन इत्यादि भी मोक्ष के साधन हैं या योग के अंगों में उनकी गिनती है यह नियम नहीं है ।

ध्यानं निर्विषयं मनः ॥ 6.25 ॥

अर्थ- जिसमें मन निर्विषय हो जाय उसी का नाम ध्यान है और, यह ध्या नही समाधि का लक्षण है। अब समाधि और सुषुप्ति के भेद को दिखाते हैं ।

उभयथाप्यविशेषश्चे-न्नैवमुपरागनिरोधाद्विशेषः ॥ 6.26 ॥

अर्थ- समाधि और सुषुप्ति इन दोनों में अविशेष-अर्थात् समानता है, ऐसा नहीं कहना चाहिये। क्योंकि समाधि में उपराग (विषय-वासना) को रोकना पड़ता है इसलिए सुषुप्ति की अपेक्षा समाधि विशेष है ।

निःसङ्गेऽप्युपरागोऽविवेकात् ॥ 6.27 ॥

अर्थ- यद्यपि पुरूष निःसंग है तथापि अविवेक के कारण उसमें विषयों की वासनाएं माननी चाहियें ।

जपास्फ-टिकयोरिव नोपरागः किं त्वभिमानः ॥ 6.28 ॥

अर्थ- जैसे जपा का फूल और स्फटिकमणि को पास रखने से उपराग होता है वैसा उपराग पुरूष में नहीं है किन्तु अविवेक के कारण से पुरूष में विषय वासनाओं का अभिमान कहना चाहिये ।

ध्यानधारणाभ्यासवैराग्यादि-भिस्तन्निरोधः ॥ 6.29 ॥

अर्थ- ध्यान, धारण, अभ्यास, वैरागय आदिकों से विषय-वासनाओं का विरोध हो सकता है ।

लयविक्षेपयोर्व्यावृत्त्येत्याचार्याः ॥ 6.30 ॥

अर्थ- लय (सुषुप्ति), विक्षेप (स्पप्न) इन दोनों अवस्थाओं के निवृत्त होने से विषय-वासनाओं का निरोध हो जाता है, यह आचार्यों का मत है ।

न स्थाननियम-श्चित्तप्रसादात् ॥ 6.31 ॥

अर्थ- समाधि आदि के करने के वास्ते स्थान का काई नियम नहीं है, जहां चित्त प्रसन्न हो वहीं समाधि हो सकती है ।

प्रकृतेराद्योपादानतान्येषां कार्यत्वश्रुतेः ॥ 6.32 ॥

अर्थ- उपादान कारण प्रकृति को ही माना है, महदादिकों को प्रकृति का कार्य माना है ।

नित्यत्वेऽपि नात्मनो योग्यत्वाभावात् ॥ 6.33 ॥

अर्थ- आत्मा नित्य भी है तो भी उसको उपादान कारण कहना केवल भूल है। क्योंकि जो बातें उपादान कारण में होती हैं वे बातें आत्मा में नहीं दीखती (स्पष्ट भाव यह है) यदि आत्मा ही सबका उपादान कारण होता तो पृथ्वी आदि सब चैतन्य होने चाहियें, परन्तु यह बात देखने में नही आती ।

श्रुतिविरोधान्न कुतर्कापसदस्यात्मलाभः ॥ 6.34 ॥

अर्थ- जो मनुष श्रुतियों के विरोध से आत्मा के सम्बन्ध में कुतर्क करते हैं उनका किसी प्रकार आत्मा का ज्ञान नहीं होता है ।

पारम्पर्येऽपि प्रधानानुवृत्तिरणुवत् ॥ 6.35 ॥

अर्थ- परम्परा सम्बन्ध से भी प्रकृति को सबका कारण मानना चाहिये, जैसे घटादिकों के कारण अणु हैं और अणुओं का कारण परमाणु है, इसी तरह परम्परा सम्बन्ध से भी सबका कारण प्रकृति ही है ।

सर्वत्र कार्यदर्शनाद्विभुत्वम् ॥ 6.36 ॥

अर्थ- प्रकृति के कार्य सब जगह दीखते हैं इस कारण प्रकृति विभु है ।

गति-योगेऽप्याद्यकारणताहानिरणुवत् ॥ 6.37 ॥

अर्थ- यद्यपि शरीर में गमनादित्रियाओं का योग है तो भी उसका आद्य कारण अवश्य मानना होगा, जैसे-अणु यद्यपि सूक्ष्म है तथापि उनका कारण अवश्य ही माना जाता है ।

प्रसिद्धाधिक्यं प्रधानस्य न नियमः ॥ 6.38 ॥

अर्थ- प्रसिद्धता तो प्रकृति को दीखता है, इससे अधिक द्रव्यों को मानने का नियम छीक नहीं है क्योंकि कोई तो नौ द्रव्य मानते हैं, कोई सोलह द्रव्य मानते हैं, इस कारण उनका कोई नियम ठीक नहीं है और प्रकृति के सब कार्य रहे हैं, इसलिए उसको ही कारण मानना चाहिए ।

सत्त्वादीनामतद्धर्मत्वं तद्रूपत्वात् ॥ 6.39 ॥

अर्थ- सत्व, रज, तम, यह प्रकृति के धर्म नहीं हैं किन्तु प्रकृति के रूप हैं। सत्त्वादि रूप ही प्रकृति है ।

अनुपभोगेऽपि पुमर्थं सृष्टिः प्रधानस्यो-ष्ट्रकुन्नमवहनवत् ॥ 6.40 ॥

अर्थ- यद्यपि प्रकृति अपनी सृष्टि का आप भोग नहीं करती तथापि उसकी सृष्टि के लिए है, जैसे-ऊंट अपने स्वामी के लिए केशर को ले जाता है, ऐसे हो प्रकृति भी सृष्टि करती है ।

कर्मवैचित्र्यात्सृष्टिवैचित्र्यम् ॥ 6.41 ॥

अर्थ- प्रत्येक मनुष्य के कर्मों की वासनायें भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं करण से प्रकृति की सृष्टि भी अनेक प्रकार की होती है, एक-सी नहीं होती है ।

साम्यवैषम्याभ्यां कार्यद्वयम् ॥ 6.42 ॥

अर्थ- समता और विषमता के कारण उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। जब प्रकृति की समता होती है तब उत्पत्ति, और जब विषमता होती है, तब प्रलय होता है। यही बात संसार में दीख रही है कि जिन दो औषधि को बराबर भाग मिलाकर खाने से बिगाड़ होता है ।

विमुक्तबोधान्न सृष्टिः प्रधानस्य लोकवत् ॥ 6.43 ॥

अर्थ- जब प्रकृति को इस बात का ज्ञान हो जाता है यह मुक्त हो गया, फिर उसके वास्ते सृष्टि को नहीं करती है, यह बात लोक के समान समझनी चाहिए, जैसे-कोई मनुष्य किसी को बन्धन में से छुड़ाने का उपाय करता है, जब वह उस बन्धन से छुड़ा देता है तो उस उपाय से निश्चित हो बैठता है, क्योंकि जिसके लिए उपाय किया था वह कार्य पूरा हो गया ।

नान्यो-पसर्पणेऽपि मुक्तोपभोगो निमित्ताभावात् ॥ 6.44 ॥

अर्थ- यद्यपि प्रकृति अविवेकियों को बद्ध करती है परन्तु मुक्त को बद्ध नहीं करती, क्योंकि जिस निमित्त से प्रकृति अविवेकियों को बद्ध करती थी वह अविवेक मुक्त जीवों में नही रहता है ।

पुरुषबहुत्वं व्यवस्थातः ॥ 6.45 ॥

अर्थ- जीव बहुत हैं, क्योंकि प्रत्येक शरीर में उसकी अलग-अलग व्यवस्था होती है ।

उपाधिश्चेत्तत्सिद्धौ पुनर्द्वैतम् ॥ 6.46 ॥

अर्थ- यदि ऐसा कहा जाय कि सूर्य एक है, परन्तु उसकी छाया के अनेकों स्थानों में पड़ने से अनेक सूर्य दीखने लगते हैं, इसी प्रकार ईश्वर एक है किन्तु शरीररूपी उपाधियों के होने से अनेका है तो भी ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो एक ब्रह्य के सिवाय और दूसरे को मानते ही नहीं हैं यदि वह लोग ब्रह्य और उपाधि को मानेंगे तो अद्वैत न रहेगा, किंतु द्वैतवाद हो जाएगा ।

द्वाभ्यामपि प्रमाणविरोधः ॥ 6.47 ॥

अर्थ- यदि दोनों ही मानें तो प्रमाण से विरोध होता है, क्योंकि यदि उपाधि को सत्य मानें तो जिन प्रमाणों से अद्वैत की सिद्धि करते हैं उनसे विरोध होगा। यदि उपाधि को मिथ्या मानें तो जिन प्रमाणों से उपाधि को सिद्ध करते हैं उनसे विरोध होगा। अब इस विषय पर आचार्य अपना मत कहते हैं -

द्वाभ्याम-प्यविरोधान्न पूर्वमुत्तरं च साधकाभावात् ॥ 6.48 ॥

अर्थ- द्वैत, अद्वैत इन दोनों से हमारा कोई विरोध नहीं है, क्योंकि ईश्वर अद्वैत तो इसलिए है कि उसके बराबर औ कोई नहीं है। द्वैत इस वास्ते है कि जीव और प्रकृति के गुण ईश्वर की अपेक्षा और प्रकार के मालूम होते हैं, इस वास्ते ऐसा न कहना चाहिए कि पहिला पक्ष सत्य है वा दूसरा, क्योंकि एक पक्ष की पुष्टि करने वाला कोई प्रमाण नहीं दीखता, किन्तु जीव ईश्वर के पार्थक्य सिद्ध करने वाले प्रमाण दीखते हैं ।

प्रकाशतस्तत्सिद्धौ कर्मकर्तृ-विरोधः ॥ 6.49 ॥

अर्थ- ब्रह्य प्रकाशस्वरूप है इसलिए जो चाहे सो कर सकता है अर्थात् चाहे तो घटादि रूप हो जार्य इस प्रमाण से यदि ब्रह्य को घटादि रूप कहकर अद्वैतवाद की सिद्धि की जाय तो कत्र्ता और कर्म का विराध होगा, क्योंकि ऐसा कहीं नहीं देखने में आता कि कत्र्ता कर्म हो गया हो, जैसे-घट का कत्र्ता कुम्हार है और कुम्हार का कर्म घट है, तो दोनों को भिन्न-भिन्न पदार्थ मानना होगा, ऐसा नहीं कह सकते कि कुम्हार ही घट है ।

जडव्यावृत्तो जडं प्रकाशयति चिद्रूपः ॥ 6.50 ॥

अर्थ- जीव जड़ पदार्थों में मिलकर उनको भी प्रकाशित कर देता है, इस वास्ते वह प्रकाशस्वरूप है, क्योंकि यदि जीव में प्रकाश करने की शक्ति न होती तो शरीर में गमनादिक त्रियायें न हो सकती थीं ।

न श्रुतिविरोधो रागिणां वैराग्याय तत्सिद्धेः ॥ 6.51 ॥

अर्थ- जिन श्रुतियों से अद्वैत की सिद्धि होती है उनसे और जो द्वैत को सिद्ध करती है उनसे कुछ भी विरोध न होगा, क्योंकि जो ईश्वर को छोड़कर जीव वा शरीर को ईश्वर मानते हैं उनको समझाने के लिए वे श्रृतियां हैं अर्थात् ईश्वर को उन श्रुतियों में अद्वैत अद्वितीय ऐ आदि विशेषणों से इसलिए कहा है कि उसके समान दूसरा और कोई नहीं है, अतः द्वैत के मानने से श्रुतियों से विरोध नहीं होता ।

जगत्सत्यत्वमदुष्टकारणजन्यत्वाद्बाधका-भावात् ॥ 6.52 ॥

अर्थ- जगत् सत्य है, क्योंकि इसका कारण नित्य है और किसी समय में भी इसका बाध (रोक) नहीं दीखता है। इस सूत्र का आशय पहिले अध्याय में कह आये हैं, इसलिए विस्तार नहीं किया है ।

प्रकारान्तरासम्भवात्सदुत्पत्तिः ॥ 6.53 ॥

अर्थ- जबकि प्रकृति के सिवाय और कोई कारण इसका दीखता नहीं तो तो कहना चाहिए कि इसकी उत्पत्ति असत् पदार्थ से नहीं है, किन्तु सत् पदार्थ से ही है ।

अहंकारः कर्ता न पुरुषः ॥ 6.54 ॥

अर्थ- संकल्प-विकल्प आदियों का कत्र्ता अहंकार है, किंतु जीव नहीं है, क्योंकि जो विचार बुद्धि में उत्पन्न होता है उसके बाद मनुष्य कार्यों के करने में लगता है और उस बुद्धि को पुरूष का प्रतिबिम्ब ही प्रकाश करता है ।

चिदवसाना भुक्तिस्तत्कर्मार्जितत्वात् ॥ 6.55 ॥

अर्थ- जिसका अन्त जीव में हो उसको भोग कहते हैं, वे भोग जीव के कर्मों से होते हैं, इस कारण भोगों का अन्त जीव में मानना चाहिए ।

चन्द्रादिलोकेऽप्यावृत्ति-र्निमित्तसद्भावात् ॥ 6.56 ॥

अर्थ- चन्द्रलोक के जीवों में भी आवृत्ति दीखती है, क्योंकि जिस निमित्त से मुक्ति और बन्ध होते हैं वह वहां के जीवों में भी बराबर ही दीखते हैं भाव यह है कि चन्द्रादि लोकों के रहने वाले जीव भी एक बार मुक्त होकर फिर कभी बन्धन में नहीं पड़ते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है, किंतु वहां के भी मुक्त जीव लौट आते हैं, क्योकि वह चन्द्रादिक लोक भी भू-लोकों के समान ही हैं ।

लोकस्य नोपदेशात्सिद्धिः पूर्ववत् ॥ 6.57 ॥

अर्थ- जैसे इस लोग के पुरूषों की ज्ञवणमात्र से मुक्ति नहीं होती है, इसी तरह चन्द्रलोक के मनुष्यों की भी श्रवणमात्र से मुक्ति नहीं होती ।

पारम्पर्येण तत्सिद्धौ विमुक्तिश्रुतिः ॥ 6.58 ॥

अर्थ- जो जन्मान्तरों से मुक्ति के वास्ते यत्न करते चले आते हैं वे लोग केवल श्रवणमात्र ही से मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं, यह श्रुति भी सार्थक हो जाएगी ।

गतिश्रुतेश्च व्यापकत्वेऽप्युपाधियोगाद्भोगदेश-काललाभो व्योमवत् ॥ 6.59 ॥

अर्थ- आत्मा में जो गति सुनी जाती है उसको इस तरह से समझना चाहिए कि यद्यपि आत्मा शरीर में व्यापक है तथापि उस शरीर रूपी उपाधि के योग से अनेक तरह के भोग, देश और समयों का योग इसमें माना जाता है अर्थात् भोगों की प्राप्ति, देशान्तरगमन और प्रातः संध्या आदि का अतित्रम आत्मा ही में मालूम होता है, परन्तु आत्मा वास्तव में इनसे पृथक है, जैसे घट का आकाश। घट को उठाकर दूसरी जगह ले जाने से वह आकाश भी दूसरी जगह चला जाता है, इस बात को पहिले कह चुके हैं कि बिना जीव के सिर्फ वायु ही से शरीर का कार्य नहीं चलता, उस पर आचार्य अपना सिद्धान्त कहते हैं ।

अनधिष्ठितस्य पूतिभावप्रसङ्गान्न तत्सिद्धिः ॥ 6.60 ॥

अर्थ- यदि आत्मा इस शरीर का अधिष्ठाता न हो, तो शरीर में दुर्गन्ध आने लगे, इस कारण प्राण को शरीर का अधिष्ठान नहीं कह सकत ।

अदृष्टद्वारा चेदसम्बद्धस्य तदसम्भवाज्जलादिवदन्नरे ॥ 6.61 ॥

अर्थ- यदि अदृष्ट (प्रारब्ध) से प्राण को शरीर का अधिष्ठाता कहें दो भी योग्य नहीं, क्योंकि प्राण का जब प्रारब्ध के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है, तो उसको हम अधिष्ठाता कैसे कह सकते हैं? जैसे अंकुर के पैदा होने में जल भी हेतु है, परन्तु बिना बीज के जल से अंकुर पैदा नहीं हो सकता, इसी तरह यद्यपि शरीर की अनेक त्रियायें प्राण से होती हैं तो भी प्राण बिना आत्मा के कोई त्रिया नहीं कर सकता ।

निर्गुणत्वात्तदसम्भ-वादहंकारधर्मा ह्येते ॥ 6.62 ॥

अर्थ- ईश्वर निर्गुण है, इस कारण उसकी बुद्धि आदि का होना असम्भव है, इस वास्ते वह सब अहंकार के धर्म बुद्धि आदि जीव में ही मानने चाहिये ।

विशिष्टस्य जीवत्वमन्वयव्यतिरेकात् ॥ 6.63 ॥

अर्थ- जो ईश्वर के गुणों से पृथक् शरीर युक्त है उसको जीव संज्ञा से बोलते हैं, इस बात को अन्वय-व्यतिरेक से जानना चाहिये अर्थात् जीव के होने से शरीर में बुद्धि का प्रकाश और न होने से बुद्धि आदि का अप्रकाश दीखता है ।

अहंका-रकर्त्रधीना कार्यसिद्धिर्नेश्वराधीना प्रमाणाभावात् ॥ 6.64 ॥

अर्थ- अहंकार ही धर्म आदि कार्यों को करने वाला है, धर्म को ईश्वर नहीं कराता, क्योंकि यदि धर्मादि ईश्वर स्वयम् बनावे तो फल देना अन्याय हो जाय ।

अदृष्टोद्भूतिवत्स-मानत्वम् ॥ 6.65 ॥

अर्थ- जिस वस्तु के कत्र्ता को हम प्रत्यक्ष देखते हैं तो उस कत्र्ता का हम अनुमान कर लेते हैं। दृष्टान्त-जैसे कि किसी घड़े को देखा और उसके कत्र्ता कुम्हार को नहीं देखा। तब अनुमान से मालूम करते हैं कि इसका बनाने वाला अवश्य है चाहे वह दिखाई नहीं दे। इसी प्रकार पृथिवी आदि अंकुरों का कत्र्ता भी कोई न कोई अवश्य है ।

महतोऽन्यत् ॥ 6.66 ॥

अर्थ- इसी प्रकार इन्द्रियों की तन्मात्राओं का कत्र्ता भी महत्तत्व के सिवाय किसी को मानना चाहिये। वह कत्र्ता अहंकार ही है ।

कर्मनिमित्तः प्रकृतेः स्वस्वामिभावो-ऽप्यनादिर्बीजान्नरवत् ॥ 6.67 ॥

अर्थ- प्रकृति और पुरूष का स्वस्वामिंभाव सम्बन्ध भी पुरूष के कर्मों की वासना से अनादि ही मानना चाहिये, जैसे बीज और अंकुर का होना अनादि माना गया है ।

अविवेकनिमित्तो वा पञ्चशिखः ॥ 6.68 ॥

अर्थ- प्रकृति और पुरूष का स्वस्वामिंभाव सम्बन्ध कर्म की वासनाओं से नहीं है, किन्तु अविवेक से है, पंचशिख आचार्य ऐसा कहते हैं ।

लिङ्ग-शरीरनिमित्तक इति सनन्दनाचार्यः ॥ 6.69 ॥

अर्थ- लिंग शरीर के निमित्त प्रकृति और पुरूष का स्वस्वामिभाव सम्बन्ध है। सनन्दनाचार्य ऐसा मानते हैं ।

यद्वा तद्वा तदुच्छित्तिः पुरुषार्थ- स्तदुच्छित्तिः पुरुषार्थः ॥ 6.70 ॥

अर्थ- प्रकृति और पुरूष का चाहे कोई क्यों न सम्बन्ध हो किन्तु किसी न किसी प्रकार से उस सम्बन्ध का नाश हो जाय उसको ही मोक्ष कहते हैं, सांख्याचार्य का यही मत है। ‘‘तदुच्छिति’’ ऐसा दो बार कहना वीप्सा में है। इस अध्याय में जो-जो विषय कहे गये हैं इन विषयों को पहिले पांच अध्यायों में खूब फैलाकर कह चुके हैं, इस वास्ते इन सूत्रों की व्याख्या बहुत फैलाकर नहीं की है। इति सांख्यदर्शंने षष्डोऽध्यायः पूर्तिमगात्।। समाप्तश्चायं ग्रन्थः ।

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