शब्दार्थ  -- ( अथ ) अब प्रारम्भ किया जाता है ( योग - अनुशासनम् ) योग के स्वरूप को बताने वाले शास्त्र का। 

 सूत्रार्थ -- अब योग के स्वरूप को बताने वाले शास्त्र का प्रारम्भ किया जाता है । 

व्यासभाष्यम् - अथेन्ययमधिकारार्थः । योगानुशासनं शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम् । योगः समाधिः । सच सार्वभौमश्चितस्य धर्मः क्षिप्तं मूढं , विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः । तत्र विक्षिप्ते चेतसि विक्षेपोपसर्जनीभूतः समाधिर्न योगपक्षे वर्तते । यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भुतमर्थ प्रद्योतयति क्षिणोति च क्लेशाकर्मबन्धनानि लयति निरोधमभिमुखं करोति स संप्रज्ञातो योग इत्याख्यायते स च वितर्कानुगतो , विचारानुगत आनन्दानुगतोऽस्मितानुगत इत्युपरिष्टात्प्रवेदयिष्यामः सर्ववृत्तिनिरोधे त्वसंप्रज्ञातः समाधिः ॥ १ ॥ 

 व्यासभाष्य  -- अनुवाद ' अथ ' शब्द अधिकारार्थ है । यह शब्द आरम्भ को कहता है । इस शब्द से ' योगानुशासन ' नामक शास्त्र प्रारम्भ किया जा रहा है , यह जानना चाहिए । ' योग ' समाधि को कहते हैं । और वह ( समाधि ) चित्त की सब भूमियों में रहने वाला धर्म है । चित्त की क्षिप्त , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्र और निरुद्ध नामक पाँच भूमियाँ हैं । इन भूमियों में से विक्षिप्त भूमि वाले चित्त की समाधि विक्षेप के कारण गौण हो जाने से योग की कोटि में नहीं आती । जो समाधि एकाग्र भूमि वाले चित्त में होती है , विद्यमान पदार्थ को यथार्थ रूप में प्रकाशित करती है , क्लेशों को क्षीण करती है , कर्म के बन्धनों को शिथिल करती है , असम्प्रज्ञात समाधि को सम्मुख लाती है , वह सम्प्रज्ञात योग कहा जाता है । और वह वितर्कानुगत , विचारानुगत , आनन्दानुगत , अस्मितानुगत ( इन चार अवस्थाओं वाली है ) , ऐसा आगे स्पष्ट रूप से बतायेंगे । सब वृत्तियों का निरोध होने पर तो असम्प्रज्ञात समाधि होती है ॥ १ ॥ 





गश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ २ ॥ 

शब्दार्थ -- ( योग :) समाधि ( चित्त - वृत्ति - निरोध :) चित्त की वृत्तियों का निरोध । 

सूत्रार्थ - चित्त की वृत्तियों का निरोध = रुक जाना ' योग ' अर्थात् ' समाधि ' है ।

 व्या ० भा ० -- सर्वशब्दाग्रहणात्संप्रज्ञातोऽपि योग इत्याख्यायते । चित्तं हि प्रख्याप्रवृत्तिस्थिति शीलत्वात्रिगुणम् । अर्थ प्रख्यारूपं हि चित्तसत्त्वं रजस्तमोभ्यां संसृष्टमैश्वर्यविषयप्रियं भवति । तदेव तमसानुविद्धम धर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्योपगं भवति । तदेव प्रक्षीणमोहावरणं सर्वतः प्रद्योतमानमनुविद्धं रजोमात्रया धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्योपगं भवति । - । तदेव रजोलेशमलापेतं स्वरूपप्रतिष्ठं सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रं धर्ममेघध्यानोपगं भवति । तत्परं प्रसंख्यानमित्याचक्षते ध्यायिनः । चितिशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा दर्शितविषया शुद्धा चानन्ता च , सत्त्वगुणात्मिका चेयमतो विपरीता विवेकख्यः तिरिति । अतस्तस्यां विरक्तं चित्तं तामपि ख्याति निरुणद्धि । तदवस्थं संस्कारोपगं भवति । स निर्बीजः समाधिः । न तत्र किञ्चित्संप्रज्ञायत इत्यसंप्रज्ञातः । द्विविधः स योगश्चित्तवृत्तिनिरोध इति ॥ २ ॥


 व्या ० भा ० अ ० -- सूत्र में शब्द का ग्रहण न होने से ' सम्प्रज्ञात समाधि ' भी योग कही जाती है । चित्त तीन प्रकार के स्वभाववाला प्रकाशशील , गतिशील और स्थितिशील है । इससे यह त्रिगुणात्मक है । 

 प्रकाशशील चित्त , सत्त्व , रजस् एवं तमस् से संसृष्ट होकर ऐश्वर्य एवं विषय का इच्छुक होता है । वही चित्तसत्त्व तमस् के द्वारा बिंधा हुआ अधर्म , अज्ञान , अवैराग्य एवं अनैश्वर्य को प्राप्त होता है । वही ( चित्तसत्त्व ) क्षीणमोहावरणवाला सब ओर से प्रकाशमान , रजोमात्रा से संसृष्ट धर्म , ज्ञान , वैराग्य , ऐश्वर्य को प्राप्त होता है ।

 वही ( चित्तसत्त्व ) रजोगुण की छात्रा रूपी मल के सम्पर्क से पृथक् हुआ , अपने * शुद्ध ( सात्विक ) रूप में प्रतिष्ठित और बुद्धि तथा पुरुष की पृथक्ता के ज्ञान से युक्त , धर्ममेघ समाधि को प्राप्त होता है । योगी लोग उस ( धर्ममेघ समाधिनिष्ठ चित्त ) को ' परं प्रसंख्यान ' कहते हैं । चेतन पुरुष 



Comments

Popular posts from this blog

Thristy crow story in Sanskrit

Shiradi Sai Baba Decoded