Sankhya Darshan Chapter 5 , Part 1

Sankhya Darshan Chapter 5

मङ्गलाचरणं शिष्टाचारात्फलदर्शनाच्छ्रुतितश्चेति ॥ 5.1 ॥

अर्थ- महर्षि कपिल जी ने अपने शास्त्र का सिद्धान्त मुक्ति के साधनों के सम्बन्ध में पहिले चार अध्यायों में विस्तारपूर्वक वर्णंन किया, अब इस अध्याय में वादी प्रतिवादी रूप से जो शास्त्र में सूक्ष्मतापूर्वक कही हंई बातें हैं, उनका प्रकाश करेंगे। कोईवादी शंका करता है, कि मंगलाचरण करना व्यर्थ है, इस विषय को हेतुगर्भित वाक्यों में प्रतिपादन करते हैं। ।।१।। अर्थ- मंगलाचरण करना अवश्य चाहिए क्योंकि शिष्टजनों का यही आचार है और प्रत्यक्ष में भी यह फल दीखता है। जो उत्तम आवरण करता हैं, यही सुख भोगता है। ‘अहरहः सन्ध्यामुपासीत, अहरहोऽग्निहोत्र जूहूयात्। रोज-रोज सन्धा करनी चाहिए, रोज-रोज अग्निहोत्र करना चाहिए, इत्यादि श्रुतियां भी अच्छे ही आचरणों को कहती हैं। बहुतेरे मनुष्य मंगलाचरण का यह अर्थ समझते हैं कि जब नये ग्रन्थ की रचना की जाय, तब उस मंगलाचरण का वैसा अर्थ नहीं हो सकता, दूसरे यदि ग्रन्थ के आदि में मंगल किया तो अन्यब अमंगल होगा, तीसरे कादम्बर्यादि ग्रन्थों में मंगल के होने पर भी उनकी निर्विघन समाप्ति नहीं हुई, इस वास्ते ऐसा बनना किस प्रकार श्रेष्ठ नहीं। इस विषय को संक्षेपतः लिखा है, इसका विस्तार बहुत है। अन्य ग्रन्थ में कर्म का फल आप होता है, इस पक्ष का खण्डन करते हैं ।

नेश्वराधिष्ठिते फलनि-ष्पत्तिः कर्मणा तत्सिद्धेः ॥ 5.2 ॥

अर्थ- केवल ईश्वर का नाम लेने से अर्थात् मंगलाचरण से फल नहीं मिल सकता किन्तु उसका हेतु कर्म है, जिसके होने से ईश्वर फल देता है, यदि कहो बिना कर्म के ईश्वर फल देता है ।

स्वोपकारादधिष्ठानं लोकवत् ॥ 5.3 ॥

अर्थ- जैसे कि संसार में दीखता हैं, पुरूष अपने उपकार के वास्ते कर्मों का फल देने वाला एक भिन्न नियुक्त करता है, इसी तरह ईश्वर भी सबके कर्म फल देने के वास्ते एक अधिष्ठान है ।

लौकि-केश्वरवदितरथा ॥ 5.4 ॥

अर्थ- यदि ईश्वर को सब कर्मों का फल देने वाला न माना जाय तो लौकिक ईश्वर की तरह भिन्न-भिन्न कर्मों के फल देने वाले भिन्न भिन्न ईश्वर मानने पड़ेगे जैसे-संसार में जज, कलक्टर इत्यादिक भिन्न-भिन्न कर्मों के फल देने वाले भिन्न-भिन्न ईश्वर हैं लेकिन इन लौकिक ईश्वरों में भ्रम, प्रसाद इत्यादि दोष दीखते हैं। यही दोष उस ईश्वर में दीख पड़ेगे। इस चसस्ते ऐसा मानना योग्य नहीं कि कर्म का फल ईश्वर नहीं देता ।

पारिभाषिको वा ॥ 5.5 ॥

अर्थ- कर्म का फल अपने आप होता है, ऐसा मानने से एक द्वेष और भी प्राप्त होता है, वह दोष यह है कि ईश्वर केवल नाम मात्र ही रह जायेगा, क्योंकि कर्मों का फल तो आप ही हो जाता है, फिर ईश्वर की क्या आवश्यकता रही। और ईश्वर के नाममात्र ही रह जाने में यह भी दोष होगा कि वर्तमान संसार की सिद्धि भी न हो सकेगी ।

न रागादृते तत्सिद्धिः प्रतिनि-यतकारणत्वात् ॥ 5.6 ॥

अर्थ- ईश्वर सृष्टि की सिद्धि में प्रतिनियत कारण है, उसके बिना केवल राग से अर्थात् प्रकृति महादादिकों से संसार की सिद्धि नहीं हो सकती। प्रश्न- ईश्वर, जीव रूपधारी प्रकृति का संगी है, और उसमें प्रकृति के संयोग होने से रागादिक भी हैं ?

तद्योगेऽपि न नित्यमुक्तः ॥ 5.7॥

अर्थ- तुम्हारा यह कथन सत्य नहीं, क्योंकि ईश्वर नित्य मुक्त न रहेगा अर्थात् जैसे जीव प्रकृति के संगी होने से अनित्य मुक्त हैं, इसी तरह ईश्वर को भी मानना पड़ेगा। और जो लोग इस तरह ईश्वर को मानते हैं, उनका ईश्वर भी संसार के जीवों के साथ अनित्य मुक्त होगा। यदि ऐसा कहा जाये कि ईश्वर से संसार बना है अर्थात् ईश्वर उपादान कारण है, सो भी सत्य नहीं ।

प्रधानशक्तियोगाच्चेत्सङ्गापत्तिः ॥ 5.8 ॥

अर्थ- यदि ईश्वर को प्रधान शक्ति का योग हो, तो पुरूष में संगापत्ति हो जाए अर्थात् जैसे प्रकृति सूक्ष्म से मिलकर कार्यरूप में संगत हुई हैं, वैसे ईश्वर भी स्थूल हो जाय, इस वास्ते ईश्वर जगत् उपादान कारण नहीं हो सकता, किन्तु निमित्त कारण है ।

सत्तामात्राच्चेत्सर्वैश्वर्यम् ॥ 5.9 ॥

अर्थ- अगर चेतन से जगत् की उत्पत्ति है, तो जिस प्राकर परमेश्वर सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त है, इसी तरह सब संसार भी सम्पूर्ण ऐश्वर्यों सें युक्त होना चाहिए, लेकिन संसार में यह बात नहीं दीखती, इस हेतु से भी परमेश्वर जगत् का उपादान कारण सिद्ध नहीं होता किन्तु नितित्त कारण की सिद्ध होता है और भी इस विषय का पुष्टिकारक यह सूत्र है ।

प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः ॥ 5.10 ॥

अर्थ- ईश्वर संसार का उपादान कारण है इसमें कोई प्रमाण नहीं है, इस वास्ते उसकी सिद्धि नहीं हो सकती ।

सम्बन्धाभा-वान्नानुमानम् ॥ 5.11 ॥

अर्थ- जबकि ईश्वर का संसार से उपादान कारण रूप सम्बन्ध ही नहीं है, तब ऐसा अनुमान करना कि ईश्वर हो से जगत् उत्पन्न हुआ है व्यर्थ है ।

श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य ॥ 5.12 ॥

अर्थ- जगत् का उपादान कारण प्रकृति ही है इस बात को श्रुतियां भी कहती हैं। ‘अजामेको लोहितशुक्लकृष्ण बहृीः प्रजा सृजमानां स्वरूपः’ यह श्वेताश्वेतर उपनिषद् का वाक्य है, इसका यह अर्थ है कि जो जन्म रहित, सत्व, रज, तमोगुण रूप प्रकृति है वही स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् परिणामिनी होने से अवस्थान्तर हो जाती है और ईश्वर अपरिणामी और असंगी है। कोई ऐसा मानते हैं कि ईश्वर को अवद्या को अविद्या संग होने में न्धन में पड़ता है, और उसी के योग से यह संसार है, इस मत का खंडन करते हैं ।

नाविद्याशक्तियोगो निः-सङ्गस्य ॥ 5.13 ॥

अर्थ- ईश्वर निःसंग है, इस वास्ते उस ईश्वर को अविद्याशक्ति का योग नहीं हो सकता ।

तद्योगे तत्सिद्धावन्योन्याश्रयत्वम् ॥ 5.14 ॥

अर्थ- यदि अविद्या के योग से संसार की सिद्धि मानी जाय, तो अन्योन्याधयत्व दोष प्राप्त होता है क्योंकि बिना ईश्वर के अविद्या संसार को नहीं कर सकती और ईश्वर बिना अविद्या के संसार नहीं बना सकता, यही दोष हुआ। यदि अविद्या और ईश्वर इन दोनों को एक कालिक (एक समय में होने वाले) अनादि मानें, जैसे बीज और अंकुर को मानते हैं, तो भी सत्य नहीं, क्योंकि ।

न बीजान्नरवत्सादि-संसारश्रुतेः ॥ 5.15 ॥

अर्थ- बीज और अंकुर के समान अविद्या और ईश्वर को मानें तो यह दोष प्राप्त होता है। ‘‘सदेव सोम्येदमग्र आसीत् एकमेवा-द्वितीयं ब्रह्य।’’ हे सौम्य! पहले यह जगत् सत् ही था एक ही अद्वितीय ईश्वर है, इत्यादि श्रुतियां एक ही ईश्वर को प्रतिपादन करती हैं और जगत् को सादि और ईश्वर को अद्वितीय कहती हैं। अगर उसके साथ अविद्या का झगड़ा लगाया जावे तो उक्त श्रुतियों से विरोध हो जायगा। यदि ऐसा कहा जाय कि हमारी अविद्या योग शास्त्र की-सी नहीं है किन्तु जैसे आपके मत में प्रकृति है, वेसी ही हमारे मत में अविद्या है, तो यह मत भी सत्य नहीं है ।

विद्यातोऽन्यत्वे ब्रह्मबाधप्रसङ्गः ॥ 5.16 ॥

अर्थ- यदि विद्या से अतिरिक्त पदार्थ का नाम अविद्या है, अर्थात् विद्या का नाश करने वाली अविद्या है, तो ब्रह्य का भी अवश्य नाश करेगी, क्योंकि वह भी विद्यामय है, और इस सूत्र का यह भी अर्थ है। यदि अविद्या विद्यारूप ब्रह्य से अतिरिक्त है और उसको विविध (अनेक प्रकार का परिच्छेद रहित ब्रह्य में माना जाता है, और ब्रह्य अविद्या से अन्य अर्थात् दूसरा अविद्या ब्रह्य से अन्य है तो ब्रह्य के परिच्छेद तत्त्व में बाधा पड़ेगी, इस वास्ते ऐसा मानना सत्य नहीं। उत्तर- अविद्या का किसी से बाध हो सकता है, या नहीं? इसका ही विचार करते है ।

अबाधे नैष्फल्यम् ॥ 5.17 ॥

अर्थ- उस अविद्या का अगर किसी से बाध नहीं हो सकता तो मुक्ति आदि के लिये विद्या प्राप्ति का उपाय निष्फल है ।

विद्याबाध्यत्वे जगतोऽप्येवम् ॥ 5.18 ॥

अर्थ- यदि विद्या से अविद्या का बाघ हो जाता है, तो अविद्या से उत्पन्न हुए जगत् का भी बाध होना चाहिए ।

तद्रूपत्वे सादित्वम् ॥ 5.19 ॥

अर्थ- यदि अविद्या को जगत् रूप मानें अर्थात् जगत् ही अविद्या है, अविद्या में सादिपना आ जाता है, क्योंकि जगत् सादि है। इस वास्ते अविद्या कोई वस्तु नहीं है, उसी के बुद्धिवृत्ति का नाम अविद्या है, जो महर्षि पतंजलि ने कही है। और इस विषय में यह भी विचार होता, कि जब कपिलाचार्य के मत में सम्पूण कार्यों की विचित्रता का हेतु प्रकृति है, और वही प्रकृति सुख दुःखादिक का हेतु है, तो धर्माधर्म के मानने की क्या आवश्यकता है। अब इसी पर विचार करके धर्म की सिद्धि करते हैं ।

न धर्मापलापः प्रकृतिकार्यवैचित्र्यात् ॥ 5.20 ॥

अर्थ- प्रकृति के कार्यों की विचित्रता से धर्म का अपलाप (दूर होना) नहीं हो सकता, क्योंकिः-

श्रुतिलिङ्गादिभिस्तत्सिद्धिः ॥ 5.21 ॥

अर्थ- उसकी सिद्धि श्रुति और योगिकों के प्रत्यक्ष से हो सकती है। ‘‘पुण्यों वै पुण्येन भवति पापः पापेन’’ पुण्य निश्चित करके पुण्य से होता है, और यह भी निश्चय है पाप, पाप से ही उत्पन्न होता है इत्यादि श्रुतियां भी धर्मं के फल को कहती हैं, इस वास्ते धर्मं पर अपलाप नहीं हो सकता। प्रश्न- धर्म में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, इस वास्ते उसकी सिद्धि नहीं हो सकती ।

न नियमः प्रमाणान्तरावकाशात् ॥ 5.22 ॥

अर्थ- धर्म की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि अनेक प्रमाण हैं और प्रत्यक्ष प्रमाण के सिवाय और प्रमाणों से भी पदार्थ की सिद्धि होती है। प्रश्न- धर्म की तो सिद्धि इस तरह कर ली गई, लेकिन अधर्म की तो सिद्धि किसी प्रमाण से नही हो सकती ।

उभयत्राप्येवम् ॥ 5.23 ॥

अर्थ- जैसे धर्म की सिद्धि में प्रमाण पाये जाते हैं इसी तरह अधर्म की सिद्धि में भी प्रमाण पाए जाते हैं ।

अर्थात्सिद्धिश्चेत्समानमुभयोः ॥ 5.24 ॥

अर्थ- वेदानि सत् शास्त्रों में जिस बात की विधि पाई जाती है वही धर्म है, और इसके सिवाय अधर्म है। यदि इस प्रकार की अर्थापत्तिर निकाली जाय, तो भी ठीक नहीं क्योंकि श्रुति आदिकों में जिस प्रकार धर्म की विधियों का वर्णन है, उस ही प्रकार अधर्म का विरोधियों का वर्णन हैं, उस ही प्रकार अधर्म का निषेध भी है, जैसे-‘परदारान्न गच्छेत्’ पराई स्त्री के समीप गमन न करे, इस तरह के वाक्य धर्माधर्म दोनों के विषय में ही निषेध और विधिरूप से बराबर पाए जाते हैं। प्रश्न- यदि धर्मादि को आप मानते हैं, तो पुरूष को धर्म वाला मानकर पुरूष में परिणामित्व प्राप्त होता है ?

अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् ॥ 5.25 ॥

अर्थ- धर्मादिक अन्तःकरण के धर्म हैं अर्थात् इस धर्मादिकों का सम्बन्ध अन्तःकरण से है, जीव से नहीं है, और इस सूत्र में जो आदि शब्द है, उसके कहने से वैशेषिक शास्त्र के आचार्यों ने जो आत्मा के विशेष गुण माने हैं, उनका ग्रहण माना गया है अर्थात् वही आत्मा के विशेष गुण जाने गए हैं। प्रलयावस्था में तो अन्तःकरण रहता ही नहीं, तब धर्मादिक कहां रहते हैं। ऐसा तर्क नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि आकाश के समान अन्तःकरण भी नाश रहित है, अर्थात् अन्त-करण का नाश सिवाय मुक्ति के कदापि नहीं होता और इस बात को पहले कह भी चुके हैं कि अन्तःकरण कार्यंकारणभाव दोनों रूप को धारण करता है। इससे अन्तःकरण रूप जो प्रकृति का विशेष अंश है, उसमें धर्मं अधर्मं दोनों के संस्कार रहते हैं। इस बात को ही किसी कवि ने भी कहा है, कि धर्म नित्य है और सुख दुःखादि सब अनित्य हैं। इस विषय में यह सन्देह भी उत्पन्न होता है कि प्रकृति के कार्यों की विचित्रता से जो धर्मं अधर्मं आदि की सिद्धि की गई है वह सत्य नहीं क्योंकि प्रकृति तो त्रिगुणात्मक अर्थात् रजोगुण, तमोगुण, सत्वगुण, इससे युक्त है, और इसके कार्यों का बोध इन श्रुतियों से प्रत्यक्ष मालूम पड़ता है। ‘‘वाचारम्भण विकासे नामधेयं मृत्तिकेत्वेव सत्यम्’’ घट-पट आदि सब कहने मात्र को ही हैं, केवल मृत्तिका (मिट्टी) हरी सत्य है। इस वास्ते प्रकृति के गुण मानना सत्य नहीं, इस पक्ष के खण्डन में यह सूत्र हैः-

गुणादीनां च नात्यन्तबाधः ॥ 5.26 ॥

अर्थ- गुण जो सत्वादिक अर्थात् सत्व, रज, तम, उनके धर्मं जो सुखादिक और उनके कार्य जो महदादिक हैं, उनका स्वरूप से बाध नहीं है, अर्थात् स्वरूप से नाश नहीं होता, किन्तु संसर्गं से बाध होता है, जैसे- आग के संसर्गं से जल की स्वाभाविक शीतलता का बाध होता है, परन्तु उसके स्परूप का बाध नहीं होता, इसी तरह प्रकृति के गुणों का भी वाध्य नही होता ।

पञ्चावयवयोगात्सुखसंवित्तिः ॥ 5.27 ॥

अर्थ- सुखादि पदार्थों की सिद्धि पंचावयव वाक्य से होती है, जिय तरह न्यायशास्त्र में मानी गई है। इस कारण जब सुख आदि की सिद्धि न्यायशास्त्र के अनसार मान ली जाती है, तब उसका स्वरूप से नाश भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि तो पदार्थ सत् है, उसका नाश नहीं हो सकता और उस पंचावयव वाक्य से सुखादि की संवित्ति इस तरह होती है कि इस तरह कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इन पांचों को सुख में इस तरह लगाना चाहिए कि सुख सत् है, इसका नाम प्रतिज्ञा की त्रियाओं का कत्र्ता है, उसी तरह इसका नाम भी दृष्टांत हैं। पुलकन (रूंओं का खड़ा होना) आदि प्रयोजन की त्रिया सुख में है। इसका नाम उपनयन है, इस वास्ते वहसच्चा है, यह निगमन है। यहां केवल सुख का ग्रहण करना नाम मात्र ही है इसी तरह और गुणों का स्वरूप से नाश नही होता। इस जगह आचार्य ने न्याय का विषय इस वास्ते वर्णन किया है कि इन पाँच बातों के बिना किसी झूठे-सच्चे पदार्थ का निश्चय नहीं सकता और जो इस पंचावयव से सिद्ध नहीं हो सकता उसमें अनमान करना भी सत्य नहीं और नास्तिक जो कि प्रत्यक्ष के सिवाय और प्रमाणें को नहीं मानना और आशय से अट्ठाईसवे सूत्र से दोष और अनुमान को असंगत बतलाता है ।

न सकृद्ग्रहणात्सम्बन्धसिद्धिः ॥ 5.28 ॥

अर्थ- जहां धुंआ होगा, वहां अग्नि भी होगी। इस साहचर्य के स्वीकार से व्याप्तिरूपी सम्बन्ध की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि आग में धुंआ सदा नही रहता और जो रसोई का दृष्टांत दिया जाता हैं, वह भी सत्य नहीं है, क्योंकि किसी जगह अग्नि और घोड़ा इन दोनों का किसी आदमी ने देखा, अब दूसरी जगह उसको घोड़ा नजर पड़ा तब वह ऐसा अनुमान नहीं कर सकता कि यहां अग्नि भी होगी। क्योंकि घोड़ा दीखता है। ऐसे ही अग्नि और घोड़ा मैने वहां भी देखा था। बस इस पूर्वपक्ष से नैयायिक जैसा अनुमान करते हैं वह अयुक्त सिद्ध हुआ और प्रत्यक्ष को ही मानने वाले चाबकि नास्तिक के मन की पुष्टि हुई। इसका यह उत्तर हैः-

नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्तिः ॥ 5.29 ॥

अर्थ- जिन दो पदार्थों का व्याप्य-व्यापक भाव होता है, उन दोनों पदार्थों में से एक का अथवा दोनों का जो नियत धर्म है उसके साहित्य (साथ रहने के नियम) होने को व्याप्ति कहते हैं विशेष व्याख्या इस तरह है कि जैसे पहाड़ पर आग है क्योंकि धुंआ दीखता है। जहां-जहां धुंआ होता है, वहीं-वहीं आग भी अवश्य होती है। इसका नाम ही व्याप्ति है। इससे यह जानना चाहिए कि धुंआ बिना आग के नही रह सकता, परन्तु आग बिना धुंए के रह सकती है, इससे सिद्ध हुआ कि धुंए का आग के साथ रहना नियत धर्म-साहित्य है, परन्तु एक नियत धर्म साहित्य हुआ। चार्वाक ने जो अग्नि घोड़े का दृष्टांत देकर व्याप्ति का खण्डन किया था, वह भी सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि घोड़ो तो सैकड़ों जगह बिना अग्नि के दीखने में आता है और आग को बिना घोड़े के देखते हैं, इस वास्ते वह साहचर्यं नही रहा अतएव वह सब आयुक्त सिद्ध हो गया। अब रहा दोनों का नियत धर्म साहित्य वह गन्ध और पृथ्वी में मिलता है अर्थात् जहां पृथ्वी भीं अवश्य होगी। इन दोनों में से बिना एक नहीं रह सकता है ।

न तत्त्वान्तरं वस्तुक-ल्पनाप्रसक्तेः ॥ 5.30 ॥

अर्थ- पहिले सूत्र में जो व्याप्ति का लक्षण किया गया है, उसके सिवाय किसी और पदार्थ का नाम व्याप्ति नहीं हो सकता क्योंकि इस प्रकार अनक तरह की व्याप्ति माने में एक नया पदार्थ कल्पना करना पड़ेगा। इस वास्ते व्याप्ति का वही लक्षण सत्य है जो पहिले सूत्र में किया गया है ।

निजशक्त्युद्भवमित्याचार्याः ॥ 5.31 ॥

अर्थ- जो व्याप्ति की शक्ति से उत्पन्न किसी विशेष शक्ति का रूप हो, वही व्याप्ति आचार्यों के मत में मानने लालय है। इस सूत्र का आशय इस दृष्टांत से समण्ना चाहिए कि व्याप्त जो अग्नि है, उसकी ही शक्ति से धुंआ उत्पन्न होता है और वह धुँआ आग की किसी विशेष शक्ति का रूप है। इसी तरह के पदार्थ को व्याप्ति कहते हैं, और जिसमें यह बात नहीं है, वह व्याप्ति प्रकार नहीं हो सकती ।

आधेयशक्तियोग इति पञ्चशिखः ॥ 5.32 ॥

अर्थ- आधार में जो आधेय शक्ति रहती है, उसकों ही पंचशिख नाम वाले आचार्य व्यप्ति मानते हैं। इसका आशय भी दृष्टान्त से समझ लेना चाहिए कि आधार जो आग है, उसमें आधेय जो धुआं, उसके रहने की जो शक्ति है, उसको व्याप्ति कहते है ।

न स्वरूपशक्तिर्नियमः पुनर्वादप्रसक्तेः ॥ 5.33 ॥

अर्थ- व्याप्य की स्वरूप्शक्ति को नियम अर्थात् व्याप्ति नहीं मान सकते, क्योकि उसमें फिर झगड़ा पड़ने का भय है। अब उस झगड़े को लिखते हैं जिसका भय हैं ।

विशेषणा-नर्थक्यप्रसक्तेः ॥ 5.34 ॥

अर्थ- विशषेण देना व्यर्थ हो जोयेगा, जैसे कहा गया है कि बहुत धुएं वाली आग है। इस वाक्य में शब्द विशेषण है और धुआँ विशेषण है, इसी तरह धुआं आधेय है और आग आधार है। यदि धुएं को अग्नि की स्वरूप शक्ति मान लें तो बहुत शब्द को क्या मानें, क्योंकि उस ‘बहुत’ शब्द को अग्नि की स्वरूप शक्ति नहीं मान सकते और वाक्य के साथ होने से वह वह शब्द अपना कुछ अर्थ भी अवश्य हो रखता है एवं उस अर्थ से स्वरूपशक्ति में न्यूनाधिकता भी अवश्य हो जाती है, तो उसको भी कुछ अवश्य मानना चाहिये। यदि न माना जायेगा, तो उसका उच्चारण करना व्यर्थ हुआ जाता है और महात्माओं के अक्षर व्यर्थ नहीं होते और भी दूसरा झगड़ा प्राप्त होता हैं किः-

पल्लवादिष्वनुपपत्तेश्च ॥ 5.35 ॥

अर्थ- जैसे कि पत्तों का आधार पेड़ है, और व्याप्ति का लक्षण स्वरूपशक्ति मानकर वृक्ष की शक्तिस्वरूप जो पत्ते हैं, वही व्याप्तिः के कहने से ग्रहण हो सकते हैं। इस प्रकार मानने में यह दोष रहेगा कि जैसे वृक्ष की स्वरूपशक्ति पत्तों को मान लिया और वही व्याप्ति भी हो गई तो पत्तों के टूटने पर व्याप्ति का भी नाश मानना पड़ेगा। यदि व्याप्ति का नाश माना जायेगा, तरे बड़ा भारी झगड़ा उत्पन्न हो जायेगा, और प्रत्यक्ष्वादी चार्वाक नासिक का मत पुष्ट हो जायेगा इस वास्ते ऐसा न मानना चाहिए कि आधार की स्वरूपशक्ति का ही नाम व्याप्ति है। अब इस बात का निश्चय करते हैं कि आचार्य और पंचशिख नामक आचार्य के मत में भेद है या नहीं। क्योंकि पंचशिख नामवाला आचार्य तो आधार (आग) में आधंय (धुवें) की शक्ति होने को व्याप्ति मानना है। और आचार्य मुनि कपिल जी व्यात्त आग की शक्ति से उत्पन्न हुई किसी विशेष शक्ति को दूसरा पदार्थ मानकर दसको व्याप्ति मानते हैं। इन दोनों में से कौन सत्य है ?

आधेयशक्तिसिद्धौ निज-शक्तियोगः समानन्यायात् ॥ 5.36 ॥

अर्थ- समान न्याय अर्थात् बराबर युक्ति होने से जैसे कि आधेय-शक्ति की सिद्धि होती है, वैसे ही निज शक्ति योग की, यह आयार्यों का मत भी सत्य है। दोनों में से कोई भी युक्तिहीन नहीं मानते हैं। यह व्याप्ति का झगड़ा केवल इसी वास्ते उत्पन्न किया गया था कि बुण आदि स्वरूप से नाशवान् नहीं हैं। इस पक्ष् की पुष्टि करने के वास्ते आचार्य को अनूमान प्रमाण की आवश्यकता हुई और वह अनुमान प्रमाण पंचावयव के बिना नहीं हो सकता था, इस वास्ते उसको लिखना पड़ा। इसी निश्चय में पंचावमव केक अन्तर्गत एक साहचर्यं नियम जिसता दूसरा नाम व्यप्ति आन पड़ा उसका प्रकाश करने के वास्ते यह कहकर अपने पक्ष को पुष्ट कर लिया। अब इससे आगे पंचावयव रूप शब्द को ज्ञान की अत्पत्ति में हेतु सिद्ध करने के वास्ते शब्द की शक्तियों का प्रकाश करके उस शब्द-प्रमाण में बाधा डालने वालों के मत का खण्डन करते हैं ।

वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः शब्दार्थयोः ॥ 5.37 ॥

अर्थ- शब्द के अर्थ में वाच्यता-शक्ति रहती है और शब्दमें वाचकता-शक्ति रहा करती है, इसको ही शब्द और अर्थ का वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध कहते हैं अर्थात् शब्द अर्थ को कहा करते हैं, और अर्थ शब्द से कहा जाता है। यही इन शब्दार्थों का सम्बन्ध हैं। उस वाच्य वाचकतारूप शक्ति को कहते हैं ।

त्रिभिः सम्बन्धसिद्धिः ॥ 5.38 ॥

अर्थ- पहिले कहे हुए सम्बन्ध की सिद्धि तीन तरह से होती है- एक तो आप्त के उपदेश से दूसरे वृद्धों के व्यवहार से, तीसरे संसार में जो प्रसिद्ध बर्ताव में आने वाले पद हैं, उनके देखने से। इन ही तीन तरह के शब्द का वाच्य-वाचकभाव होता है। उसको इस तरह समझना चाहिये कि आप्तों के द्वारा ऐसे शब्दों का ज्ञान होता है, जैसे ईश्वर निराकार सत्-चित् आनन्दस्वरूप है। जब ईश्वर शब्द कहा जावेगा, तब पूर्वोंक्त विशेषण वाले पदार्थ का ज्ञान होगा और वृद्धों के व्यवहार से मालूम होता है कि जिसके सास्ना (गौ के कन्धों के नीचे जो लम्बी-सी खाल लटकती है) और लांगूल (पूँछ) होती है, उसको र्गा कहते हैं। ऐसा ज्ञान हो जाने पर जब-जब गौ शब्द का उच्चारण होगा, तब-तब उसी अर्थ का ज्ञान हो जाएगा और प्रसिद्ध शब्दों का व्यावहार इस तरह है, कि जैसे कपित्थ एक वृक्ष का नाम है, वह क्यों कपित्य शब्द से प्रतिद्ध है? इस प्रकार का तर्क न करना चाहिए, क्योंकि लोक प्रसिद्ध होने के कारण कपत्थि शब्द कहने से कपित्थ (कैथ) का ही ग्रहण होता है ।

न कार्ये नियम उभयथा दर्शनात् ॥ 5.39 ॥

अर्थ- यह कोई नियम नहीं है कि शब्द -शक्ति का वाच्य-वाचकभाव कार्य में ही हो, और जगह नहीं, क्योंकि दोनों तरह शब्द की शक्तियों का ग्रहण दीखता है। शास्त्रों में जैसे वृद्ध ने बालक से कहा ‘‘गौ को लाओं’’ इस वाक्य के कहने से गौ का लाना यह कार्य दीखता है और शब्द भी उस कार्य को ही दिखलाते हैं और तेरे पुत्र का उत्पन्न होना यह जो त्रिया है वह पहले ही हो चुकी और वाक्य उस बीती हुई त्रिया को कहता हैं, इस वास्ते यह नियम नहीं कि कार्य में ही शब्द और सम्बन्ध हौ। प्रश्न- यह उपरोक्त प्रतीति लोकिक गातों में हो सकती है, क्योंकि संसार में बहुधा कार्यं शब्दों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु वेद में जो शब्द है, उनके अर्थ का ज्ञान कैसे होता है? क्योंकि शब्द कार्य नहीं है ।

लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीतिः ॥ 5.40 ॥

अर्थ- जो मनुष्य सांसारिक कार्यों में चतुर होते हैं, वही वेद को यथार्थ रीति से जान सकते हैं, क्योंकि ऐसा कोई भी लोक का हिलकारी कार्य नहीं है, जो वेद में न हो, इस वास्ते वेद में विज्ञता उत्पन्न करने के अर्थ साँसारिक जीवों को योग्यता प्राप्त करनी चाहिए और शब्दों की शक्ति लोक और वेद इन दोनों में बराबर है। इस विषय पर नास्तिक शंका करते हैं ।

न त्रिभिरपौरुषेयत्वाद्वेदस्य तदर्थस्या-तीन्द्रियत्वात् ॥ 5.41 ॥

अर्थ- आपने जो तीन प्रमाण दिए उन प्रमाणें से वेद के अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती क्योंकि मनुष्य-मनुष्य की बात को समझ सकता है, परन्तु वेद अपौरूषेय है, इस वास्ते उसका अर्थ इन्द्रियों से ज्ञात नहीं हो सकता क्योंकि वह वेद अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों की शक्ति से बाहर है। इसका समाधान करने के वास्ते पहले इस बात को सिद्ध करते हैं कि वेदों का अर्थ प्रत्यक्ष देखने में आता है, अतीन्द्रिय नहीं है ।

न यज्ञादेः स्वरूपतो धर्मत्वं वैशिष्ट्यात् ॥ 5.42 ॥

अर्थ- वेद के अर्थ को जो अतीन्द्रिय (इन्द्रियों से न जाना जाए) कहा सौ सत्य नहीं। वेद से जो इत्यादि किये जाते हैं, और इन यज्ञादिकों में जो-जो काम किये जाते हैं, वे सब स्वरूप से ही थर्म है, क्योंकि उन यज्ञादि कों का फल प्रत्यक्ष में दीखता है, जैसे-‘‘यज्ञाद् भवति पर्जंन्यः पर्जंन्यादन्सम्भवः’’। यज्ञ से मेघ होता है, और मेघ होने से अन्य उत्पन्न होता है इत्यादि वाक्य गीता में मिलते हैं । प्रश्न- जबकि वेद अपौरूषमेय है तब उनका अर्थ कैसे ज्ञात होता है ?

निजशक्ति-र्व्युत्पत्त्या व्यवच्छिद्यते ॥ 5.43 ॥

अर्थ- शब्द का अर्थ होना यह शब्द की स्वाभाविकी शक्ति है, और विद्वानों की परम्परा से वह शक्ति वेद के अर्थों में भी चली आती है, और उसी व्युत्पत्ति से वृद्ध लोग शिष्यों को उपदेश करते चले आये हैं कि इस शब्द का ऐसा अर्थ है और जो ऐसा कहते हैं कि वेदों का अर्थ प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु अतीन्द्रिय है, और उसका समाधान है ।

योग्यायोग्येषु प्रतीतिजनकत्वात्तत्सिद्धिः ॥ 5.44 ॥

अर्थ- ब्रह्यर्चादि जिन-जिन कार्यों को वेद ने अच्छा कहा है और हिंसादि जिन-जिन कार्यों को बुरा कहा हैं, उनकी प्रतीति प्रत्यक्ष में दीखती है अर्थात् इन दोनों कार्यों का जैसा फल वेद में लिखा है वैसा ही दीखने में आता है। इससे बात की सिद्धि हो गई कि वेद का अर्थ अतीतिन्द्रय नहीं है ।

न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुतेः ॥ 5.45 ॥

अर्थ- वेद नित्य नहीं हैं, क्योंकि श्रुतियों से मालूम होता है कि ‘‘तस्पाद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे’’ उस यज्ञरूप परमात्मा से ऋग्वेद, सामवेद उत्पन्न हुए इत्यादि श्रुतियां पुकार-पुकार कह रही हैं कि वेद उत्पन्न हुए। जब ऐसा सिद्ध हो गया, तो यह बात निश्चय ही है कि जिसकी उत्पत्ति है, उनका नाश भी अवश्य है, इस वास्ते वेद कार्यरूप होने से नित्य नहीं हो सकते हैं ।

न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् ॥ 5.46 ॥

अर्थ- वेद किसी पुरूष के बनाए हुए नहीं हैं क्योंकि उनका बनाने वाला दीखता नहीं। तब यह बात माननी पड़ेगी कि वेद अपौरूषेयत्व हैं, जबकि वेदों का अपौरूषेयत्व सिद्ध हो गया तो वह जिनके बनाये हुए वेद हैं, और नित्य के कार्य भी नित्य होते हैं, इस कारण वेदों का नित्यव सिद्ध हो गया। यदि ऐसा कहा जावे कि वेदों को भी किसी जीव ने बनाया होगा सो भी सत्य नहीं ।

मुक्तामुक्तयोरयोग्यत्वात् ॥ 5.47 ॥

अर्थ- जीव भी दो प्रकार के होते हैं- एक तो मुक्त, दूसरे अमुक्त। यह दोनों प्रकार के जीव वेद के बनाने के अधिकारी नहीं हैं। कारण यह है कि मुक्तजीव में वेद शक्ति नहीं रहती, जिसमें वेद बना सके, और वद्ध जीव अज्ञानी, अल्पज्ञ आदि दोषों से युक्त होता है और वेद में इस प्रकार की बातें देखने में आती हैं, जो बिना सर्वज्ञ के नहीं हो सकती और जीव अल्पज्ञ हैं, प्रमाण से भी वेदों की नित्यता सिद्ध हो गई। इसी विषय को और भी दृढ़ करते हैं ।

नापौरुषेयत्वान्नित्यत्वमन्नरादिवत् ॥ 5.48 ॥

अर्थ- वेद अपौरूषेय हैं, इस वास्तें नित्य हैं, ऐसा नहीं क्योंकि अंकुर किसी पुरूष का बनाया हुआ नहीं होता, परन्तु अनित्य होता है ।

तेषामपि तद्योगे दृष्टबाधादिप्रसक्तिः ॥ 5.49 ॥

अर्थ- यदि वेदों को भी बनाया हुआ माना जायगा, तो प्रत्यक्ष जो दीखता है, उसमें दोष प्राप्त होगा। दृष्टान्त-जैसे अंकुर का लगाने वाला दीखता है और उपादान कारण जो बीज है वह भी दीखता है। इस प्रकार वेदों का बनाने वाला और उत्पादन कारण नहीं दीखता है, इस कारण नित्य है। यदि नित्य न माना जाये, तो प्रत्यक्ष से विरोध हो जायगा। वेदों को जो अपौरूषेय कहा है, उसमें सन्देह होता है कि पौरूषेय किसको कहतें हैं और अपौरूषेय किसको कहते हैं? इस सन्देह को दूर करने के लिए पौरूष का लक्षण लिखते हैं ।

यस्मिन्नदृष्टेऽपि कृतबुद्धिरुपजायते तत्पौरुषेयम् ॥ 5.50 ॥

अर्थ- जिस पदार्थ का कत्र्ता प्रत्यक्ष न हो अर्थात् बनाने वाला न दीखता हो, लेकिन-पदार्थ के देखने से यह ज्ञान हो। लेकिन वेदों देखने से यह बुद्धि उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि वेदों की उत्पत्ति ईश्वर में मानी गई है और उन वेदों को बनाने वाला कोई नहीं हैं। उत्पत्ति और बनाना, दोनों में इतना अन्ता है कि बीज से अंकुर उत्पन्न हुआ, कुम्हार ने घड़े को बनाया इस बात को बुद्धिमान अपने आप विचार लेवें, कि उत्पत्ति और बनाना इसमें भेद है या नहीं? बनाना कोई और बात हैं, उत्पत्ति कोई और बात है। इस तरह ही वेदों की उत्पत्ति मानी गई है, किन्तु घटादि पदार्थों के समान वेदों की उत्पत्ति नहीं हैं। इस कारण वेद अपौरूषेय हैं। प्रश्न- जबकि वेदों में उन्हीं बातों का वर्णन है, जो संसार में वर्तमान हैं, तो वेदों को प्रमाण माना जाय ?

निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम् ॥ 5.51 ॥

अर्थ- जिस वेद के ज्ञान होने से अर्थात् जानने से आयुर्वेंद कला-कौश्ल आदि सब तरह की विद्याओं का प्रकाश होता है वह वेद स्वतः प्रमाण हैं। उसमें प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि जो आप ही दूसरों का प्रमाण है उसका प्रमाण किसको कह सकते हैं, जैसे-सेर, दुसेरी आदि तोलने के बाट तोलने में आप हीं कह सकते हैं लेकिन सेर दुसेरी आदि बाट क्यों प्रमाण है, ऐसा प्रश्न नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो स्वतः प्रमाण हैं। इसी तरह वेदों को भी स्वतः प्रमाण समझना चाहिये। पहिले जो ४१वें सूत्र में नास्तिक ने यह पूर्व पक्ष किया था कि वेदों का अर्थ नहीं हो सकता, उसका उत्तर-पक्ष वहां कह आये थे, और फिर भी उसको ही दृष्टान्त प्रत्यक्ष करते हैं ।

नासतः ख्यानं नृशृङ्गवत् ॥ 5.52 ॥

अर्थ- जैसे कि पुरूष के सींग नहीं होते, इसी तरह जो पदार्थ है ही नहीं, उसका कहना भी व्यर्थ है, जैसे कि बन्ध्या स्त्री का पुत्र। जबकि बन्ध्या स्त्री के पुत्र होता ही नहीं तो ऐसा कहना भी व्यर्थ है। यदि इस तरह वेदों का भी कुछ अर्थ न होता तो वृद्ध लोग परम्परा से (एक को एक ने पढ़ाया) क्यों शिष्यों को पढ़ाकर प्रसिद्ध करते। इससे प्रत्यक्ष होता है कि वेदों का अर्थ है ।

न सतो बाधदर्शनात् ॥ 5.53 ॥

अर्थ- जो पदार्थ सत् है उसका बाध किसी तरह नहीं हो सकता और वेद सत् माने गये है इस वास्ते ऐसा कहना नहीं बन सकता कि पदार्थ नहीं है। प्रश्न- वेदार्थ है या नहीं ऐसा झगड़ा क्यों किया जाय, यही न कह दिया जावे कि वेद का अर्थ है तो परन्तु अनिर्वचनीय है ।

नानिर्वचनीयस्य तदभावात् ॥ 5.54 ॥

अर्थ- वेद के अर्थ अनिर्वचनीय (जो कहने में न आये) कहना ठीक नहीं, क्योंकि संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं दीखता जा अनिर्वचनीय हो, और उसी पदार्थ को कह सकते हैं, जो संसार में प्रत्यक्ष है, इसलिए अनिर्वचनीय कहना ठीक नहीं ।

नान्यथाख्यातिः स्ववचोव्याघातात् ॥ 5.55 ॥

अर्थ- अन्यथा ख्याति भी नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा कहने पर अपने ही कथन में दोष प्राप्त होता है। इस सूत्र का अभियाय यह है कि वेद का अर्थ दूसरा है, परन्तु संसार में दूसरी प्रचलित हो रहा है। इस तरह की अन्यथा ख्याति करने पर यह दोष होता है कि जो मनुष्य वेद का अर्थ ही न मानकर अनिर्वचनीय कहते है वह अन्यथा ख्याति को क्यों नहीं मान सकते हैं, ऐसा कहना उनके वचन से ही विरूद्ध होगा। प्रश्न- अन्यथा ख्याति किसको कहते हैं। उत्तर- पदार्थ तो दूसरा हो, और अर्थ दूसरी तरह किया जाय,जैसे-सीप में चांदी का आरोप करना अर्थात् चांदी सिद्ध करना ।

सदसत्ख्यातिर्बाधाबाधात् ॥ 5.56 ॥

अर्थ- यदि ऐसा माना जाय कि वेदों का अर्थ हैं भी और नहीं भी है, क्योंकि जो संसार के कार्यों में चतुर नहीं हैं उनको वेदों के अर्थ का बोध होता हैं, और जो सांसारिक कार्यों में चतुर हैं, उनका अबाध होता है, इस तरह स्यादस्ति, स्यान्नास्ति है या नहीं इस तरह जैनों के मत अनुसार ही माना जाय, तो भी ठीक नहीं। इस सूत्र में पहिले सूत्र से नकार अनुवृत्ति आती है। ‘‘नासतः ख्यानृश्रृंगगवत्’’ इस सूत्र से लेकर ५६वें सूत्र तक जो अर्थ विज्ञानभिक्षु ने किया है और गुणादीनां नाल्यन्तबाधः’’ इस सूत्र के आशय से मिलाया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि वैसा अर्थ करने से प्रसंग में विरोध आता है, दूसरे यह कि इस ५६वें सूत्र को, जो कपिल मुनि के सिद्धांत पक्ष में रखकर गुणों का बाध, अवाध दोनों ही माने हैं वह भी ठीक नहीं क्योंकि ‘‘न तादृक् प्रदार्थाप्रतीतेः’’, इन दोनों धर्मो वाला कोई पदार्थ संसार में नहीं दीखता, तो क्या आचार्य भी विज्ञानभिक्षु के समान ज्ञान-रहित थे, जो अपने पूर्वापर कथन को ध्यान में न रखकर गुणों को सत् और असत् दोनों रूपों में कहते। यहां तक वेदों की उत्पत्ति और नित्यता को सिद्ध कर चुके। अब शब्द के सम्बन्ध में विचार करते हैं ।

प्रतीत्यप्रतीतिभ्यां न स्फोटात्मकः शब्दः ॥ 5.57 ॥

अर्थ- जो शब्द मुख से निकलता है, उस शब्द के अतिरिक्त जो उस शब्द में अर्थ के ज्ञान कराने वाली शक्ति है उसे स्फोट कहते हैं, जैसे कि-किसी ने कलश् शब्द को कहा, तो उस कलश शब्द के उच्चारण होने से कम्बग्रीवादी कपालों का जिस शक्ति से ज्ञान होता है, उसका ही नाम स्फोट है। इससे ऐसा न समझना चाहिए कि कलश इतना शब्द मुंह से निलते ही जिस शक्ति से उनका ज्ञान होता है, उसी का ही नाम कलश है, किन्तु जिस शक्ति से उनका ज्ञान होता है, उसी का नाम स्फोट कहलाता है, किन्तु स्फोटात्मक शब्द नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें दो तरह के तर्क उत्पन्न हो सकते हैं कि शब्द की प्रतीति होती है या नहीं। यदि प्रतीति होती है, तो जिस अर्थ वाले अक्षर समुदाय से पूर्वापर मिलाकर अर्थ प्रतीत और वाच्य वस्तु का बोध है, उसके सिवाय स्फोट को मानना व्यर्थ है, क्योंकि शब्द से ही ज्ञान हुआ स्फोट से नहीं। और यह कहो कि शब्द की प्रतीति नहीं होती तब अर्थ ही नहीं। फिर स्फोट में ऐसी शक्ति कहां से आई जो बिना अर्थ की प्रतीति करा सके। इस कारण स्फोट का मानना व्यर्थ है ।

न शब्दनित्यत्वं कार्यताप्रतीतेः ॥ 5.58 ॥

अर्थ- शब्द नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि उच्चारण के बाद शब्द नष्ट हो जाता है, जैसे-ककार हुआ, उच्चारणावसान में फिर नष्ट हो गया, इत्यादि अनुभवों से सिद्ध होती है कि शब्द भी कार्य है ।

पूर्वसिद्धसत्त्वस्याभिव्यक्तिर्दीपेनेव घटस्य ॥ 5.59 ॥

अर्थ- जिस शब्द का होना पहिले ही से सिद्ध है, उस शब्द का उच्चारण करने से प्रकाश होता है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती है। दृष्टांत जैसे कि अंधेरे स्थान में रक्खे हुए पा, को दीपक प्रकाश कर देता है। ऐसा नहीं कह सकते कि दीये ने पात्र को उत्पन्न कर दिया, क्योंकि पात्र तो पहिले से ही वहां विद्यमान था, अन्धकार के कारण उसका ज्ञान नही होता था। इसी तरह शब्द भी पहिले से सिद्ध है, उच्चारण करने से केवल उसका प्रकाश होता है, इसलिए शब्द नित्य है ।

त्कार्यसिद्धान्तश्चे-त्सिद्धसाधनम् ॥ 5.60 ॥

अर्थ- यदि ऐसा कहा जाए कि कार्य जिस अवस्था में दीखता है, उसी अवस्था में सत् हैष् शेष और अवस्थाओं में असत् है। इसी तरह शब्द का भी कार्य है और अपनी अवस्था में सत् है, ऐसा मानेंगे, तो आचार्य कहते हैं कि ऐसा माने पर हम शब्द के सम्बन्ध में सिद्ध साधन मानेंगे अर्थात् जो शब्द पहिले हृदय में था, उसी का उच्चारण आदि त्रियाओं से स्पष्ट किया है न्तिु घटादि पदार्थों के समान बनाया नहीं है। यहां तक शब्दविचार समाप्त हुआ। अब इा विषय का विचार करें कि जीव एक है वा अनेक हैं ।

नाद्वैतमात्मनो लिङ्गात्तद्भेदप्रतीतेः ॥ 5.61 ॥

अर्थ- जीव एक ही नहीं है किन्तु अनेक हैं, इस सूत्र का यह अर्थ है। जीव और ईश्वर इन दोनों का अभेद मानकर जो अद्वैत माना जाता है वह ठीक नहीं क्योंकि कि जीव के जो अल्पज्ञत्वादि चिन्ह हैं और ईश्वर के जो सर्वज्ञत्वादि चिन्ह हैं उनसे दोनों में भेद ज्ञात होता है ।

नानात्मनापि प्रत्यक्षबाधात् ॥ 5.62 ॥

अर्थ- अनात्मा जो सुख दुःखादिकों के भोग हैं, उनसे भी यही बात सिद्ध होती है कि जीव एक नहीं हैं, क्योंकि एक मानने से प्रत्यक्ष में विरोध की प्राप्ति होती है और संसार में दीखता है कि सुख-दुख अनेक व्यक्ति एक समय में भोग करते हैं, दूसरे पक्ष में ऐसा अर्थ करना चाहिए, कि मनुष्य एक आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते, उनके सिद्धांत में पूर्वोक्त दोष के अतिरिक्त और एक दोष यह भी प्राप्त हो जाएगा कि घटादि कार्यों को भी आत्मा मानकर उनके नाश होते ही आत्मा का भी नाश होगा। यह प्रत्यक्ष से विरोध होगा, इसलिए ऐसा अद्वैत मानना सत्य नहीं है ।

नोभाभ्यां तेनैव ॥ 5.63 ॥

अर्थ- आत्मा और अनात्मा इन दोनों की एकता है ऐसा कहना भी योग्य नहीं, क्योंकि उसी प्रत्यक्ष प्रमाण में बाधा प्राप्त हो जाएगी और संसार में यह बात प्रत्यक्ष दीख रही है कि आत्मा और अनात्मा दो पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं, इस वास्ते ऐसा कहना कि एक आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं, योग्य नहीं। प्रश्न- अगर तुम ऐसा मानते हो कि आत्मा और अनात्मा भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, तो श्रुतियां ऐसा क्यों कहती हैं कि ‘‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्य’’, ’’आत्मैवेदं सर्बम्’’ (एक ही ब्रह्य अद्वितीय है, यह सब आत्मा ही है) इत्यादि श्रुतियां एक आत्मा बताती हैं, तो बहुत से आत्मा, जीव वा ब्रह्य पृकक्-पृथक् क्यों मानें जाएं ।

अन्यपरत्वमविवेकानां तत्र ॥ 5.64 ॥

अर्थ- इन श्रुतियों में अन्यपरत्व अर्थात् द्वैत है, ऐसा ज्ञान अज्ञों को होता है और जो विद्वान हैं वह इन श्रुतियों का ऐसा अर्थ नही करते हैं क्योंकि अद्वितीय शब्द से यह प्रयोजन है कि ईश्वर के समान दूसरा और कोई नहीं है और जो एक आत्मा मानते हैं, उनके मत से संसार का उपादान कारण सत्य नहीं हो सकता ।

नात्माविद्या नोभयं जगदुपादानकारणं निःसङ्गत्वात् ॥ 5.65 ॥

अर्थ- इस कारण आत्मा जगत् का उपादान कारण नहीं हो सकता कि वह निर्विकार है। यदि अविद्या को उपादान कारण मानें तो अविद्या भी संसार का उपादान कारण नहीं हो सकती, क्योंकि सत् मानें तो द्वैतापत्ति प्राप्त होती है और असत् मानने पर बन्ध्या के पुत्र के सदृश अभाव वाली हो जाएगी, और आत्मा तथा अविद्या यह दों मिल कर संसार का उपादान कारण इस प्रकार नहीं हो सकते कि आत्मा संग रहित है, इस कारण ही जो एक आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते, उनके मत में संसार का उपादान कारण सिद्ध नहीं हो सकता है ।

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