Sankhya Darshan Chapter 4

Sankhya Darshan Chapter 4

राजपुत्रवत्तत्त्वोपदेशात् ॥ 4.1 ॥

अर्थ- इस अध्याय में विवेक के साधनों का वर्ण करेंगे- ।।१।। अर्थ- पूर्व सूत्र से यहां विवेक की अनवृत्ति आती है राजा के पुत्र के समान तत्त्वोपदेश होने से विवेक होता है। यहां यह कथा है कि कोई राजा का पुरूष पुत्र गंडमाला रोग से युक्त अत्पन्न हुआ था, इस कारण वह शहर में से निकाल दिया गया और उसको किसी शवर (भोल) ने पाल लिया। ज बवह बड़ा हो गया, तब अपने का भी शवर मानने लगा कालान्तर में राजपुत्र को जीता हुआ देखकर कोई वृद्ध मन्त्री बोला- वत्स (पुत्र) तू शवर नहीं हैं किन्तु राजपुत्र हैं, ऐसे वाक्यों को सुनकर वह राजपुत्र शीघ्र ही उस शवरभाव के मान को त्याग कर सात्विक राजभाव को धारण करने लगा कि मैं तो राजा हूं। इस प्रकार चिरबद्ध जीव भी अपने को बद्ध मानता है और जब तत्त्वोपदेश से उसको ईश्वर विषयक ज्ञान होता हैं, तब विवेकोत्पत्ति से उसको मुक्ति प्राप्त होती है। इस सूत्र के अर्थ से कोई-कोई टीकाकार ‘‘ब्रह्यास्मि’’ वाला सिद्धान्त निकालते हैं कि जीव पहिले ब्रह्य था, इस कारण मुक्त था किन्तु अज्ञान से बंध गया है, जब तत्त्वोपदेश हुआ तो विवेक होने से मुख्ति हो गई। लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि पहिले तो ग्रन्थ के आरम्भ में इस बात का खण्डन किया हैं, दूसरे सूत्र में जो राजपुत्र ऐसा शब्द कहा है उससे प्रत्यक्ष मालूम होता है कि आचार्य जीव औ ब्रह्य में भेद मानते हैं, इस वास्ते जीव को छोटा मानकर ‘रापत्रवत् ऐसा कहा है, नहीं तो राजवत् ऐसा हो कह देते, किन्तु दो अक्षरों का अधिक कहना इसी आशय से है कि कोई एक ब्रह्य के रूपान्तर का अर्थ न समझ ले ।

पिशाचवदन्यार्थोपदेशेऽपि ॥ 4.2 ॥

अर्थ- एक के वास्ते जो उपदेश किया जाता है उससे दूसरा भी मुक्त हो जाता है, जैसा-एक समय श्रीकृष्ण जी अर्जुन को उपदेश कर रहे थे, लेकिन पिशाच भी सुन रहा था यह पिशाच उस उपदेश को सुनकर उसके अनष्ठान द्वारा मुक्ति को प्राप्त हो गया।

आवृत्तिरसकृदुप-देशात् ॥ 4.3 ॥

अर्थ- यदि एक बार के उपदेश् से विवेक प्राप्ति न हों तो फिर उपदेश करना चाहिए, क्योंकि छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है कि श्वेतकेतु के वास्ते आरूणि आदि मुनियों ने वारम्बार उपदेश किया था ।

पितापुत्रवदुभयोर्दृष्टत्वात् ॥ 4.4 ॥

अर्थ- विवेक के द्वारा प्रकृति और पुरूष दोनों ही दीखते हैं। दृष्टांत- कोई मनुष्य अपनी गर्भिणी स्त्री को छोड़कर परदेश गया था, ज बवह आया देखता क्या है कि पुत्र उत्पन्न होकर पूरा युवा हो गया लेकिन न तो वह पुत्र जानता है कि यही मेरा पिता है और न वह पुरूष जानता है कि यही मेरा पुत्र है, तब उस स्त्री ने दोनों को प्रबोध (ज्ञान) कराया कि वह तेरा पिता है, तू इसका पुत्र है। इसी तरह विवेक भी प्रकृति और पुरूष का जानने वाला है ।

श्येनवत्सुखदुःखी त्यागवियोगाभ्याम् ॥ 4.5 ॥

अर्थ- संसार का यह नियम है कि जब-जब द्रव्य-प्राप्ति होती है तब-तब तो आनन्द, और ज बवह द्रव्य चला जाता है तब ही दुःख होता है। दृष्टांत-कोई श्येन (बाज) किसी पक्षी का मांस लिये चला जाता था, उसी समय किसी व्याध ने पकड़ लिया और उससे मांस छीन लिया, तो वह अत्यन्त दुःखी होने लगा। यदि आप उस मांस को त्याग देता तो क्यों दुःख भोगता? इस कारण आप ही विषय वासना इत्यादि का त्याग कर देना चाहिए ।

अहिनिर्व्लयनीवत् ॥ 4.6 ॥

अर्थ- जैसे सांप पुरानी केंचुली को छोड़ देता है, इसी तरह मुमुक्षु (मोक्ष की इच्छा करने वाले) को विषय त्याग देना चाहिए ।

छिन्नहस्तवद्वा ॥ 4.7 ॥

अर्थ- जैसे किसी मनुष्य का हाथ कटकर गिर पड़ता है, फिर वह कटे हुए हाथ से किसी तरह का संबंध नहीं रखता, इसी तरह विवेक प्राप्ति होने पर जब विषय वासना नष्ट हो जाती हैं, तब मुमुक्ष फिर उन विषय-वासनाओं से कुछ संबंध नहीं रखता है ।

असाधनानुचिन्तनं बन्धाय भरतवत् ॥ 4.8 ॥

अर्थ- जो मोक्ष का साधन नहीं है लेकिन धर्मं गिनकर साधन वर्णन कर दिया तो उसका जो विचार है, वह केवल बन्धन का ही कारण होगा न कि मोक्ष का। दृष्टांत-जैसे राजार्षि भरत यद्यपि मोक्ष का इच्छा करने वाले थे लेकिन किसी ने कोई अनाथ हिरण का बच्चा महात्मा को पालने के लिए दे दिया, और उस अनाथ हिरण के बच्चे के पालन-पोषण में महात्मा के विवेक प्राप्ति का समय नष्ट हो गया और मुक्ति न हुई। यद्यपि अनाथ का पालन राजा का धर्म था तथापि पालने के विचार में महात्मा से विवेक साधन न हो सका, इस वास्ते बन का हेतु हो गया। इसी वास्ते कहते हैं कि धर्म कोई और वस्तु है और विवेक साधन कुछ और वस्तु हैं ।

बहुभिर्योगे विरोधो रागादिभिः कुमारीशङ्खवत् ॥ 4.9 ॥

अर्थ- विवेक साधन के समय बहुतों का संग न करे, किंतु अकेले ही विवेक साधन को करे, क्योंकि बहुतों के साथ में राग द्वेषादि की प्राप्ति होती है, उससे साधन में विघ्न होने का भय प्राप्त हो जाता है दृष्टांत- जैसा कि कोई कुमारी (कन्या) हाथों में चूडि़यां पहन रही थी, जब दूसरी कन्या के साथ उसका मेल हुआ तब आपस में धक्का लगकर चूडि़यों का झनकार शब्द हुआ, इसी तरह यहां भी विचारना चाहिए कि बहुतों के संग में विवेक साधन नहीं हो सकता ।

द्वाभ्यामपि तथैव ॥ 4.10 ॥

अर्थ- दो के साथ भी विवेक साधन नहीं हो सकता क्योंकि दो आदमियों में भी राग-द्वेषादि का होना सम्भव हैं ।

निराशः सुखी पिङ्गलावत् ॥ 4.11 ॥

अर्थ- जो मनुष्य आशा को त्यादेता है, वह सदैव पिंगला नाम वेश्या के समान सुख को प्राप्त होता है। दृष्टांत-पिंगला नाम वाली एक वेश्या थी, उसको जार मनुष्यों के आने का समय देखते-देखते बहुत रात बीत गई लेकिन कोई विषयी उसके पास न आया, तब वह जाकर सो रही, बाद को फिर उस वेश्या को ख्याल हुआ-शायद अब कोई आदमी आवे, ऐसा विचार कर वह वेश्या फिर उठ और बहुत समय तक जागती रही लेकिन फिर भी कोई न आया, तब उस वेश्या ने अपने चित्त में बड़ी ग्लानि मानी और कहा कि ‘आशा हि परम्र दुःख नैराश्य परम सुखम्’’ आशा बड़े दुःख देती है और नैराश्य में बड़ा भारी सुख है, ऐसा विचार कर उस वेश्या ने उस दिन से आशा त्याग दी और परम सुख को प्राप्त हुई। इसी तरह जो मनुष्य आशा को त्यागेंगे वे परम सुख को प्राप्त होंगे ।

अनारम्भेऽपि परगृहे सुखी सर्पवत् ॥ 4.12 ॥

अर्थ- गृहादिकों के बिना बनाए भी पराये घर में सुखपूर्वक रह सकता है जैसे सांप परये घर सुखपूर्वक वास करता है ।

बहुशास्त्रगुरूपासनेऽपि सारादानं षट्पदवत् ॥ 4.13 ॥

अर्थ- बहुत से शास्त्रों और गुरूओं से सार वस्तु जो विवेक का साधन है उस ही लेना चाहिए जैसे-भौरा फूलों का जो सार मधु है उसको ग्रहण करता है, इसी तरह सार का लेना योग्य है ।

इषुकारवन्नैकचित्तस्य समाधिहानिः ॥ 4.14 ॥

अर्थ- जिसका मन एकाग्र रहता है, उसकी समाधि में किसी समय किसी प्रकार की भी हानि नहीं हो सकती। दृष्टांत-कोई बाण बनाने वाला अपने स्थल पर बैठा हुआ बाण बना रहा था, उसी समय उसकी बगल से होकर कटक सहित राजा निकल गया लेकिन उसको न मालूम हुआ कौन चला गया, और उसके काम में भी किसी प्रकार की बाधा न हुई क्योंकि उसका मन अपने काम में आसक्त था ।

कृतनियमलङ्घनादानर्थक्यं लोकवत् ॥ 4.15 ॥

अर्थ- शौच, आचार आदि जो नियम विवेक की बुद्धि के वास्ते माने गए हैं, उनके लंघन से अर्थात् ठीक तौर से न पालने पर अनर्थ होता है और उन नियमों का फिर कुछ भी फल नहीं होता, जैसे कि रोगी के लाभ के वास्ते वैद्य ने बताया लेकिन उसने कुछ पथ्य न किया, उसको कुछ फल अच्छा न होगा किन्तु रोग वृद्धि को ही प्राप्त होगा ।

तद्विस्मरणेऽपि भेकीवत् ॥ 4.16 ॥

अर्थ- तत्वज्ञान के भूलने से दुःख प्राप्त होता है। दृष्टांत-कोई राजा शिकार खेलने के वास्ते वन को गया था, वहां पर उस राजा ने दिव्यस्वरूप एक कन्या को देखा, और उस कन्या को देखकर राजा मोहित हो गया और बोला, कन्ये! तब वह बोली राजन, मैं भेकराज (मेढ़कों के राजा) की कन्या हूं। तब राजा अपनी स्त्री होने के वास्ते उसमें प्रार्थंना करने लगा, तब वह कन्या बोली, राजन! टगर मुझको जल का दर्शंन न हो जाएगा, तब ही मैं तेरा साथ छोड़ दूंगी, इस वास्ते मुझको जल का दश्ंन न होना चाहिए, यह मेरा नियम पालन करना होगा। राजा ने प्रसन्न होकर इस बात को स्वीकार कर लिया। एक समय वह दोनों आनन्द में आसक्त थे, तब वह कन्या राजा से बोली कहां जल है, तब राजा ने उस बात को भूलकर उसको जल दिखा दिया। जल दर्शंन के समय ही वह कन्या उस रूप को छोड़कर जल में प्रवेश कर गई। तब राजा ने दुःखी होकर उस कन्या को जल के अन्दर बहुत देखा लेकिन वह फिर न प्राप्त हुई, जैसे- यह राजा उस तत्व बात को भूलकर दुःख को प्राप्त हुआ, इसी तरह मनुष्य भी तत्वज्ञान के भूलने से दुःख को प्राप्त होता हैं ।

नोपदेशश्रवणेऽपि कृतकृत्यता परामर्शादृते विरोचनवत् ॥ 4.17 ॥

अर्थ- उपदेश के सुनते ही मात्र से कृतकृत्यता नहीं होती जब तक कि उसका विचार न किया जाए। दृष्टांत-बृहस्पति जी ने विरोचन इन्द्र दोनों को सत्योपदेश किया था। इन्द्र ने उस उपदेश को सुनकर विचारा भी, परन्तु विराचन ने न विचारा, किन्तु कान ही पवित्र किए ।

दृष्टस्तयोरिन्द्रस्य ॥ 4.18 ॥

अर्थ- देखने में आया है कि उस श्रवण से इन्द्र को ही विवेक ज्ञान हुआ, विरोचन को नहीं, क्योंकि इन्द्र ने तो उस उपदेश का विचार किया था ।

प्रणतिब्रह्मचर्योपसर्पणानि कृत्वा सिद्धिर्बहुकालात्तद्वत् ॥ 4.19 ॥

अर्थ- गुरू से नम्र रहना, सदा गुरू की सेवा करना, ब्रह्यचर्य को धारण करना और वेद पढ़ने के वास्ते गुरू के पास जाना, इन्हीं कर्मों के करने से विवेक की सिद्धि हो जाती हैं, जैसे कि इन्द्र को हुई थी ।

न कालनियमो वामदेववत् ॥ 4.20 ॥

अर्थ- इतने दिनों में विवेक उत्पन्न होगा, ऐसा कोई नियम हनीं हैं, क्योंकि वामदेव नाम वालेऋषि को पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण थोड़े ही दिनों में विवेक उत्पन्न हो गया था ।

अध्यस्तरूपोपासनात्पारम्पर्येण यज्ञोपा-सकानामिव ॥ 4.21 ॥

अर्थ- शरीर ही आत्मा है, वा म नही आत्मा है इस प्राकर अभ्यास करके जो उपासना की जाती है,उसके परम्परा संबंध से विवेक होता है, जैसे-पहिले पुत्र को आत्म मान, पीछे शरीर को उसके पश्चात् इन्द्रियों को, इसी प्रकार करते-करते आत्म-विवेक हो जाता है। जैसे-यज्ञ करने वालों की परम्परा सम्बन्ध से मुक्ति होती हैं, क्योंकि यज्ञ करने से चित्त की शुद्धि होती है और चित्त शुद्धि से वासनाओं की न्यूवता आदि परम्परा से मुक्ति होती है, इसी प्रकार अध्यस्त उपासना से भी जानना चाहिए ।

इतरलाभेऽप्यावृत्तिः पञ्चाग्नियोगतो जन्मश्रुतेः ॥ 4.22 ॥

अर्थ- यदि पंचाग्नि योग से इतर अर्थात् शान्ति का लाभ भी कर लिया तो भी कर्मों की बलवती बनी रहेगी, अतएव वे कर्मं फिर भी उत्तरोत्तर उत्पन्न होते जायेंगे, इसी बात की श्रुतियां भी प्रतिपादन करती हैं। वे श्रुतियां छान्दोग्य उपनिषद के पंचम प्रपाठक के आदि में हैं, यहां विस्तार भय से उनको नहीं लिखा है ।

विरक्तस्य हेयहानमुपादेयोपादानं हंसक्षीरवत् ॥ 4.23 ॥

अर्थ- जो विरक्त है, अर्थात् जिसको विवेक हो गया है, उसको हेय (छोड़ने योग्य)का तो त्याग और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) का ग्रहण करना चाहिये। हेय अर्थात् छोड़ने लायक संसार है। उपादेय ग्रहण करने लायक मुक्ति हैं, जैसे हंस को छोड़कर दूध पी लेते हैं, इसी तरह विरक्त को भी करना चाहिये ।

लब्धातिशययोगाद्वा तद्वत् ॥ 4.24 ॥

अर्थ- अथवा जो ज्ञान की पराकाष्ठा को प्राप्त हो गया है, यदि उसका संग हो जाय, तो भी पहिले कहे हुए हंस के समान विवेकी हो सकता है ।

न कामचारित्वं रागोपहते शुकवत् ॥ 4.25 ॥

अर्थ- राग के नाश हो जाने पर भी कामचारित्व (इच्छाधीन) न होना चाहियं, कारण यह है कि फिर बन्धन में पड़ने का भय प्राप्त हो सकता है। दृष्टान्त-जैसे कोई तोता दाने के लालच में होकर बन्धन में पड़ गया था, जब उसको मौका मिला तब वह उस बन्धन में से भाग गया फिर उस बन्धन के पास भय के मारे नहीं आया। क्योंकि अगर इसके पास जाऊंगा तो फिर बन्धन को प्राप्त होऊंगा। इसी पक्ष की और भी पुष्टि करेंगे ।

गुणयोगाद्बद्धः शुकवत् ॥ 4.26 ॥

अर्थ- जब कामचारों रहेगा, तब उसके गुणों में किसी की प्रीति हो जाएगी, तो भी उस विवेकी को फिर बद्ध होना पड़ेगा। जैसे मनोहर भाषण आदि गुणों से तोते का बन्धन हो जाता है ।

न भोगाद्रागशान्तिर्मुनिवत् ॥ 4.27 ॥

अर्थ- भोगों को पूर्णंरूप से भोगने से भी राग की शान्ति नहीं होती, जैसे-मौमरि नाम वाले मुनि ने भोगों को खूब अच्छी तरह भोगा, लेकिन उससे कुछ भी शान्ति न हुई। मृत्यु के समय उस महात्मा ने ऐसा कहा भी था किः-आमृत्युतो नैव मनोरथानामन्तोऽन्ति विज्ञातमिदं मयाऽद्य मनोरथासक्तिपरस्य चित्तं न जायते वै परमार्थसंगि।। अर्थ- आज मुझको इस बात का पूरा-पूरा निश्चय हो गया कि मृत्यु तक मनोरथों का अन्त नहीं है और जो चित्त मनोरथों में लगा हुआ है उसमें विज्ञान का उदय कभी नहीं होता ।

दोषदर्शनादुभयोः ॥ 4.28 ॥

अर्थ- प्रकृति और प्रकृति के कार्यों के दोष इन दोनों के देखने से रागों की शान्ति होती है और जिसका चित्त राग द्वेष इत्यादिकों से युक्त है, उसको उपदेश फल का देन वाला नहीं होता ।

न मलिनचेतस्युपदे-शबीजप्ररोहोऽजवत् ॥ 4.29 ॥

अर्थ- रागादिकों से मलिन चित्त में उपदेश रूपी ज्ञान वृक्ष का बीज नहीं जमता। राजा अज के समान। राजा अज की इन्दुमती स्त्री थी, उस स्त्री से राजा का बड़ा भारी प्रेम था। कालवश होकर वह इन्दुमती मृत्यु को प्राप्त हो गई। राजा अज को उसके वियोग से बड़ा भारी दुःखी हुआ। उसका हृदय स्त्री के वियोग से परम मलीन हो गया था। वशिष्ठ जी ने उपदेश भी किया, लेकिन वियोग मलिन हृदय में उपदेश का अंकुर न जमा ।

नाभासमात्रमपि मलिनदर्पणवत् ॥ 4.30 ॥

अर्थ- मलिन हृदय में उपदेश का आभास-मात्र भी नहीं पड़ता। जैसे- शरीर में प्रतिबिम्ब नहीं दीखता ।

न तज्जस्यापि तद्रूपता पङ्कजवत् ॥ 4.31 ॥

अर्थ- मोक्ष भी प्रकृति के ही सहारे से होता है परन्तु जैसे प्रकृति से संसार उत्पन्न हुआ है और वह उसी प्रकृति का रूप समझा जाता है वैसे मोक्ष प्रकृति का रूप नहीं हो सकता क्योंकि जैसे पक से उत्पन्न हुआ कमल कीचड के रूप का नहीं होता, वैसे प्रकृति से उत्पन्न हुआ मोक्ष प्रकृति रूप नहीं हो सकता है ।

न भूतियोगेऽपि कृतकृत्यतोपास्यसिद्धिवदुपास्य- सिद्धिवत् ॥ 4.32 ॥

अर्थ- ऊहादि विभूतियों के मिलने पर भी कृतकृत्यता नहीं होती, क्योंकि जैसा उपास्य (जिसकी उपासना की जाती है) होगा वैसी ही उपासक को सिद्धि प्राप्त होगी अर्थात् जो धनवान् की उपासना की जाती है, तो धन मिलता है, और दरिद्र की उपासना करने से कुछ भी नहीं मिलता। इसी प्रकार ऊह आदि सिद्धियां नाश होने वाली है, इस वास्ते उनकी प्राप्ति से कृतकृत्यता नहीं हो सकती। ‘सिद्धवत्, सिद्धिवत्’ ऐसा जो दुबारा कहना है, सो अध्याय की समाप्ति का जताने वाला है ।

इति सांख्यदर्शंने चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ॥ 4.33 ॥

अर्थ-

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