Sankhya Darshan , Chapter 3

Sankhya Darshan

अविशेषाद्विशेषारम्भः ॥ 3.1 ॥

अर्थ- अब हम तीसरे अध्यायय में प्रधान तो प्रकृति है उसका स्थूल कार्य और महाभूत और दो के शरीर यह सब कहते हैं। अविशेषात् अर्थात् जिससे छोटी और कोई वस्तु न हो सके ऐसे सूक्ष्म भूत अर्थात् पंचतन्मात्रायों से विशेष स्थूल महाभूतों में हो सकता है, और सूक्ष्मभूत योगी महात्माओं के हृदय में प्रकाश होते रहते हैं ।

तस्माच्छरीरस्य ॥ 3.2 ॥

अर्थ- पूर्वोक्त (पहिले कहे हुए) बाईस तत्त्वों में से स्थूल सूक्ष्म शरीरों की उत्पत्ति होती है। प्रश्न- स्थूल शरीर किसको कहते हैं? उत्तर- जिसका जाग्रतावस्था में अभिमान होता हैं। प्रश्न- लिड.ग-शरीर किसको कहते हैं? उत्तर- मन अहंकार और इन्द्रियां, जिसके द्वारा अपने-अपने काम करने में रहते हैं, उसको लिंग-शरीर कहते हैं। प्रश्न- बाईस तत्त्वों के बिना संसार की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।

तद्बीजात्संसृतिः ॥ 3.3 ॥

अर्थ- बाईस तत्त्व शरीर के कारण हैं, और देखने में ऐसा ही आता है कि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, अतः उन्हीं बाईस तत्त्वों से संसार की उत्पत्ति होती है। अब संसार को अवधि को भी कहते हैं-

आविवेकाच्च प्रवर्तनमविशेषाणाम् ॥ 3.4 ॥

अर्थ- अविशेष जो सूक्ष्म भत हैं उनकी सृष्टि प्रवृत्ति तभी तक रहती है जब तक विवेक नहीं होता। ज्ञान के होते हर सूक्ष्म भूतों की प्रवृत्ति नही रहती। प्रश्न- यदि अविवेक के ही वास्ते सृष्टि का होना है तो महाप्रलय में भी सृष्टि का होना योग्य है क्योंकि उस अवस्था में भी अविवेक बना रहता है ?

उपभोगादितरस्य ॥ 3.5 ॥

अर्थ- जब अविवेक के कार्य प्रारब्ध का उपभोग पूरा हो जाता है, तब ही महाप्रलय होती है। जबकि अविवेक का भोग ही विशेष रहा है तब सूक्ष्म भूत इस शरीर को क्यों उत्पन्न करेंगे? और महाप्रलयावस्था में प्रारब्ध कर्म का भोग नाश हो जाता है तब भी संचित कर्म बने रहते हैं, क्योंकि कर्म प्रवाह से अनादि हैं ।

सम्प्रति परिमुक्तो द्वाभ्याम् ॥ 3.6 ॥

अर्थ- सृष्टि समय में पुरूष दोनों वासना और भोग-बद्ध होता है। प्रश्न- परिमुक्त शब्द का अर्थ तो छूटना है, आप बद्ध अर्थ करते है? उत्तर- पहले अध्याय के सूत्रों में पुरूष को भोक्तत्वादिविशेषण दे चुके हैं इस कारण यहां अभोक्ता कहना अयोग्य है। दूसरे संसार दशा में ही पुरूष को सुख-दुख न होंगे, तो क्या अवस्था में होंगे और जो सुख-दुख ही नहीं, तो मुक्ति का उपाय भी कोई न करेगा। तीसरे परिमुक्त शब्द का अर्थ मुक्त करना भी अयोग्य है। यहां ‘परिमुक्त’ शब्द का अर्थ बद्ध करना ही ठीक है। अब स्थूल और सूक्षम दोनों तरह के शरीरों के भेद कहते हैं ।

मातापितृजं स्थूलं प्रायश इतरन्न तथा ॥ 3.7 ॥

अर्थ- स्थूल शरीर दो तरह के होते हैं एक तो वह माता-पिता के संगम से पैदा होते हैं, दूसरे वह जो बिना माता-पिता के उत्पन्न हों, जैसे वर्षा ऋतु में वोर बहूटी इत्यादिक होते है। प्रश्न- पूर्व सूत्रों से साबित हुआ कि तीन प्रकार के शरीर हैं, लेकिन पुरूष कौन से शरीर की उपाधियों से सुख-दुःख का भोक्ता होता है ।

पूर्वोत्पत्तेस्तत्कार्यत्वं भोगादेकस्य नेतरस्य ॥ 3.8 ॥

अर्थ- लिंग-शरीर की उपाधियों से ही पुरूष को सुख-दुःख होते हैं, क्योंकि संसार के आदि में लिंग-शरीर की ही उत्पत्ति है, इस कारण सुखादिक इसके कार्य हैं, अतः एक लिंग-शरीर की उपाधियों से ही पुरूष को सुखादिक हैं, किन्तु स्थूल शरीर की उपाधियों से नहीं होते, क्योंकि तब स्थूल शरीर की उपाधियों से नहीं होते, क्योंकि जब स्थूल शरीर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तब उसमें सुखादिक नहीं देखने में आते। प्रश्न- सूक्ष्म शरीर का क्या स्वरूप है ?

सप्तदशैकं लिङ्गम् ॥ 3.9॥

अर्थ- पांच ज्ञानेन्दिंयां और पांच कर्मेन्द्रियां, मन, अहंकार और पंचतन्मात्रा (रूप, रस, गंध स्पर्श, शब्द) यह सूक्ष्म शरीर है। प्रश्न- यदि लिंग शरीर एक ही है, तो अनेक शरीरें की आकृति में भेद क्यों होता है ?

व्यक्तिभेदः कर्मविशेषात् ॥ 3.10 ॥

अर्थ- स्थूल शरीर अनेक प्रकार के अनेक कर्मों के करने से होते हैं। अब विचार किया जाता है, तो इससे यही बात सिद्ध होती है कि जीवों के भोग का हेतु कर्म ही है। प्रश्न- जबकि भोगों के स्थान लिंग शरीर को ही शरीरत्व है तो स्थूल शरीर क्यों कहते हैं ?

तदधि-ष्ठानाश्रये देहे तद्वादात्तद्वादः ॥ 3.11 ॥

अर्थ- पंचभूतात्मक (स्थूल) शरीर में उसें लिंग शरीर का अधिष्ठान (रहने का स्थान) के सबब से देहवाद है, अर्थात् लिंग शरीर का आश्रय स्थूल शरीर है, इसलिए शरीर को शरीर कहते हैं। प्रश्न- स्थूल शरीर लिंग शरीर से दूसरा है, इसमें क्या प्रमाण है ?

न स्वातन्त्र्यात्तदृते छायावच्चित्रवच्च ॥ 3.12 ॥

अर्थ- वह लिंग शरीर बिना किसी आश्रय के नहीं रह सकता, जैसे-छाया किसी आश्रय के विना नहीं रह सकती, और तसवीर बिना आधार के नहीं खिंच सकती, इस तरह लिंग शरीर भी स्थूल शरीर के बिना नहीं ठहर सकता है। प्रश्न- यदि लिंग शरीर मूत्र्त द्रव्य है तो वायु आदि के समान उसका भी आधार आकाश हो सकता है, और जगह कल्पना करने से क्या तात्पर्यं है ?

मूर्तत्वेऽपि न संघातयोगात्तरणिवत् ॥ 3.13 ॥

अर्थ- यदि लिंग शरीर मूत्र्तत्व भी है तथापि वह किसी स्थान के बिना नहीं रह सकता, जैसे-बहुत से तेज इकट्टे होकर बिन पार्थिव (पृथ्वी से पैदा होने वाले) द्रव्य के आधार के नहीं रह सकते, इसी तरह लिंग शरीर भी किसी आधार के नहीं रह सकता। प्रश्न- लिंग शरीर का परिमाण क्या है ?

अनुपरिमाणं तत्कृतिश्रुतेः ॥ 3.14 ॥

अर्थ- लिंग शरीर अणु परिमाण वाला अर्थात् ढका हुआ है, बहुत अणु नहीं हैं, क्योंकि बहुत ही अणु (सूक्ष्म) अवयव रहित होता है और लिंग शरीर अवयव वाला है। कारण यह है, कि लिंग शरीर के कार्य दीखते हैं, इसमें युक्ति भी प्रमाण है ।

तदन्नमयत्वश्रुतेश्च ॥ 3.15 ॥

अर्थ- यह लिंग शरीर अन्नमय है कारण अनित्य है, क्योंकि इस विषय में श्रुतियां प्रमाण देती हैं। ‘‘अन्नमयं हि सौम्य! मन आपोमयः प्राणः तेजोमयी वाक्।’’ हे सौम्य! यह मन अन्नमय है, प्राण जलमय है, वाणी तेजोमयी है। यद्यपि मन आदि कार्य भौतिक नहीं हैं, तथापि दूसरे के मेल से इनमें घटना-बढ़ना दीखता है, इस कारण से ही अन्नमय मन को माना है। प्रश्न- यदि लिंग शरीर अचेतन है तो उसकी शरीरों के वास्ते उत्पत्ति क्यों हैं ?

पुरुषार्थं संसृतिर्लिङ्गानां सूपकारवद्राज्ञः ॥ 3.16 ॥

अर्थ- लिंग शरीर की उत्पत्ति पुरूष के वास्ते है, जैसे-पाकाशाला में रसोइये को अपने स्वामी के वास्ते जाना है, इस ही तरह लिंग शरीर का होना भी वास्ते है। लिंग शरीर का विचार किया जाता हैः-

पाञ्चभौतिको देहः ॥ 3.17 ॥

अर्थ- यह शरीर पाँच भौतिक कहलाता है, अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इससे इसकी उत्पत्ति है ।

चातुर्भौतिकमित्येके ॥ 3.18 ॥

अर्थ- कोई ऐसा कहते हैं कि, चार ही भूतों से स्थूल शरीर होता है क्योंकि आकाश तो अवयव रहित है, इस कारण आकाश किसी के साथ विकार को प्राप्त नहीं हो सकता है ।

ऐकभौतिकमित्यपरे ॥ 3.19 ॥

अर्थ- और कोई ऐसा कहते हैं कि यह स्थूल शरीर एक भौतिक है, अर्थात् शरीर पार्थिव है और जो विशेष चार भूत है वे केवल नाम मात्र ही है। या इस प्रकार जानना चाहिए कि एक-एक भूत के सब शरीर हैं। मनुष्य के शरीर में पृथिवि का अंश ज्यादा है इस कारण यह शरीर पार्थिव है तेजस लोग वासियों में तेज ज्यादा है, इससे उनका शरीर तैजस है शरीर स्वभाव से चैतन्य नहीं हैं, इस पक्ष को दूर करते हैं ।

न सांसिद्धिकं चैतन्यं प्रत्येकादृष्टेः ॥ 3.20 ॥

अर्थ- जब पृथ्वी आदि भूतों को भिन्न-भिन्न करते हैं, तब उनमें चेतन शक्ति नहीं दीखती, अतः इससे सिद्ध होता है कि देह स्वभाव से चैतन्य नहीं है, किन्तु दूसरे चैतन्य के मेल से चैतन्य शक्ति को धारना करती है ।

प्रपञ्चमरणाद्यभावश्च ॥ 3.21 ॥

अर्थ- यदि शरीर को स्वभाव से चैतन्य माना जाय तो यह भी दोष हो सकता है कि प्रपंच, मरण, सुषुप्ति आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाएं नहीं हो सकेंगी, क्योंकि जो देह स्वभाव से चैतन्य है, तो मृत्यु-काल में इतनी चेतन शक्ति कहां को भाग जाती है, और बीसवें सूत्र में जो यह बात कही है कि प्रत्येक भूत के भिन्न-भिन्न करने पर चेतनता नहीं दीखती, अब इस पक्ष को भी पुष्ट करते है ।

मदशक्ति-वच्चेत्प्रत्येकपरिदृष्टे सांहत्ये तदुद्भवः ॥ 3.22 ॥

अर्थ- यदि मदिरा की शक्ति के समान माना जाय जैसे- अनेक पदाथा्र्रें के मिलने से मादकता-शक्ति उत्पन्न हो जाती है इस ही तरह पांच भूतों के मिलने से शरीर में चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है ऐसा कहना भी योग्य नही है। क्योंकि मदिर में जो मादक शक्ति है, वह शक्ति उन पदार्थों में भी है, जिनसे मदिरा बनी है, यदि यह कहा जाए कि एक भूत में थोड़ी चेतनता है और सब मिलकर बड़ी चेतनता हो जाती है, ऐसा कहना भी असत्य है, क्योंकि बहुत-सी चैतन्य शक्तियों की कल्पना करने में गौरव हो जाएगा, इस कारण एक ही चैतन्य शक्ति का मानना योग्य है, और पहले तो इस बात को कह आये हैं कि लिंग शरीर की सृष्टि पुरूष के वास्ते है, लिंग शरीर का शरीर में संचार भी पुरूष के वास्ते है, उसका तात्पर्य अब कहते हैं, जो अत्यन्त पुरूषार्थ का हेतु है ।

ज्ञानान्मुक्तिः ॥ 3.23 ॥

अर्थ- लिंग शरीर में जो मन आदि है, उनसे ज्ञान उत्पन्न होता है, और ज्ञान से हीमुक्ति होती है ।

बन्धो विपर्ययात् ॥ 3.24 ॥

अर्थ- विपर्यय नाम मिथ्याज्ञान का है मिथ्याज्ञान से ही सुख-दुख रूप बन्धन होता है। ज्ञान से मुक्ति और मिथ्याज्ञान से बन्धन होता है, इस विषय को तो कह चुके, अब मुक्ति का विचार किया जाता है ।

नियतकारणत्वान्न समुच्चयविकल्पौ ॥ 3.25 ॥

अर्थ- ज्ञान से ही मुक्ति होती है, इस कारण मुक्ति का नियत कारण ज्ञान है, इस वास्ते मुक्ति में ज्ञान और कर्म दोनों हेतु नही हो सकते, क्योंकि मुक्ति में इस बात का कोई विकल्प भी नही है, क्योंकि कर्म से मुक्ति हुई, या ज्ञान से क्योंकि इसका तो ज्ञान ही निययत कारण और इस बात को भी इस सूत्र से प्रत्यक्ष कहते हैं ।

स्वप्नजागराभ्यामिव मायिका-मायिकाभ्यां नोभयोर्मुक्तिः पुरुषस्य ॥ 3.26 ॥

अर्थ- जैसे स्वप्नावस्था और जाग्रतावस्था इन दोनों में पहला प्रतिविम्ब है, दूसरा सच्चा है। यह स्वप्नावस्था और जाग्रतावस्था दोनों आपस में विरूद्ध धर्मं वाली हैं, अतः इस कारण एक वक्त में नहीं रह सकते इसी तरह ज्ञान और कर्म भी एक वक्त में नहीं रह सकते हैं। बस इसी से सिद्ध हो गया कि विरूद्ध धर्मं वाले पदार्थ न तो मिल सकते हैं, और न मुक्ति का हेतु हो सकते हैं, और न इस विषय पर विकल्प करना चाहिए, कि किससे मुक्ति होती है, क्योंकि मुक्ति का नियत कारण ज्ञान है, और ‘‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेन अमृतत्वमानशु’’ कर्म से, सन्तान से, दान से, किसी ने अमृतत्व नहीं पाया है इत्यादि श्रुतियां भी कर्म को मुक्ति का अहेतु कहती हैं। प्रश्न- यदि कर्म का कुछ भी फल न रहा तो कर्म का करना ही व्यर्थ है ?

इतरस्यापि नात्यन्तिकम् ॥ 3.27 ॥

अर्थ- कर्म का विशेष फल नहीं है, किन्तु सामान्य ही फल है इस सूत्र में ‘इतर’ शब्द से कर्म का ग्रहण इसलिए हो सेता है कि इस प्रकरण में ज्ञान से मुक्ति होती है, कर्म से नहीं। इसी का प्रतिपादन करते चले आते हैं, इस वास्ते ज्ञान के अतिरिक्त कर्म का ही ग्रहण हो सकता है। यदि ऐसा कहा जाये कि ज्ञान के अतिरिक्त अज्ञान का ग्रहण किया सो भी ठीक नहीं, क्योंकि इस सूत्र में आचार्य का अपि और नात्यन्तिक शद कहना कर्म से न्यून फल जताने वाला है, जब इतर से अज्ञान का ग्रहण किया जाय, तो ऐसा अर्थ होगां, कि अज्ञान का थोड़ा फल है बहुत नहीं, इससे थोड़े फल का अभिलाषी अज्ञान को ही उत्तम समझा सकता है इस वास्ते ऐसा अनर्थ करना अच्छा नहीं। इससे आचार्य ने कर्म की अपेक्षा ज्ञान को उत्तम माना है। योगी के संकल्प-सिद्ध पदार्थ भी मिथ्या नहीं हैं इस बात का आगे के सूत्र से और भी प्रत्यक्ष करेंगे ।

संकल्पितेऽप्येवम् ॥ 3.28 ॥

अर्थ- योगी के संकल्प किये हुए पदार्थ भी इसी प्रकार सच्चे हैं। प्रश्न- जबकि योगी के संकलिपत पदार्थों का कोई कारण प्रत्यक्ष नहीं दीखता, तो वह मिथ्या क्यों नहीं ।

भावनोपचयाच्छुद्धस्य सर्वं प्रकृतिवत् ॥ 3.29 ॥

अर्थ- प्राणायामादि कों से योगियों की भावना अर्थात् ध्यान अधिक होता है इस वास्ते सब पदार्थ सिद्ध हैं, उनमें प्रत्यक्ष कारण देखने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम लोगों के समान योगियों के संकल्प झूठे नहीं होते, जैसे- प्रकृति बिना किसी का सहारा लिये महदादिकों को करती है, और उसमें प्रत्यक्ष कारण की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती, इसी कारण योगी का ज्ञान भी जानना चाहिये। पूर्वोंक्त सूत्रों से यह बात सिद्ध हो गई कि ज्ञान ही मोक्ष का साधन है। अब ज्ञान किस तरह होता है, इस बात को आगे के सूत्रों से प्रत्यक्ष करेंगे ।

रागो-पहतिर्ध्यानम् ॥ 3.30 ॥

अर्थ- ज्ञान के रोकने वाले रजोगुण के कार्य जो विषय-वासनादिक हैं उनका जिनसे नाश हो जाय, उसे ध्यान कहते हैं। यहां पर ध्यान शब्द से धारणा ध्यान, समाधि, इन तीनों का ग्रहण है, क्योंकि पतंजलि ने योग के आठ अंगों को ही विवेक में साक्षात् हेतु माना है। इसके अवान्तर भेद भी उसी शास्त्र में विशेष मिलेंगे बाकी पांच साधनों को आचार्य आप ही कहेंगे। अब ध्यान की सिद्धि के लक्षणों को कहते हैं ।

वृत्तिनिरोधात्तत्सिद्धिः ॥ 3.31 ॥

अर्थ- जिसका किया जावे, उसके अतिरिक्त वृत्तियों के विरोध से अर्थात् सम्प्रज्ञात योग से उसकी सिद्धि जानी जाती है, और ध्यान तब तक ही करना चाहिये जब तक ध्येय के सिवाय दूसरे की तरफ को चित्त की वृत्ति न जावे अब ध्यान के साधनों को कहते हैं ।

धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः ॥ 3.32 ॥

अर्थ- धारणा, आसन और अपने कर्म से ध्यान की सिद्धि होती है। प्रथम धारणा का लक्षण कहते हैं ।

निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ॥ 3.33 ॥

अर्थ- छदिं (वमन) और विधारण (त्याग) अर्थात् प्राण का पूरक, रेचक, और कुम्भक से निरोध (वश में रखने) को धारण कहते हैं। यद्यपि आचार्य ने धारध शब्द का उच्चारण इस सूत्र में नहीं किया हैं। तथापि आगे के दो सूत्रों में आसन और स्वकर्म का लक्षण किया है। इसी परिशेष से धारणा शब्द का अध्याहार इस सूत्र में कर लिया जाता है जैसे-पाणिनि मुनि ने भी लाघव के वास्ते ‘‘लृट्, शेषे च’’ इत्यादि सूत्र कहे हैं। अब आसन का लक्षण कहते हैं ।

स्थिरसुखमासनम् ॥ 3.34॥

अर्थ- स्थिर होने पर जो सुख का साधन हो, उसी का नाम आसन, जैसे- स्वास्तिका (पालिकी) आदि स्थिर होने पर सुख के साधन होते हैं, तो उनको भी आसन कह सकते हैं। किसी विशेष पदार्थ का नाम आसन नहीं है। अब स्वकर्म का लक्षण कहते हैं ।

स्वकर्म स्वाश्रमविहितकर्मानुष्ठानम् ॥ 3.35 ॥

अर्थ- जो कर्म अपने आश्रम के वास्ते शास्त्रों ने प्रतिपादन किये हैं उनके अनुष्ठान को स्वकर्म कहते हैं यहां पर कर्म शब्द से यम, नियम और प्रत्याहार इन तीनों को समझना चाहिए। क्योंकि इनका सब बर्णो के वास्ते समान सम्बन्ध है, और इन यमादिकों को योगशास्त्र में योग का अंग तथा ज्ञान का साधन भी माना है, और भी जो ज्ञान प्राप्ति में उपाय हैं, उनकों भी कहेंगे ।

वैराग्यादभ्यासाच्च ॥ 3.36 ॥

अर्थ- सांसारिक पदार्थों के विराग अथवा धारणादि पूर्वोक्त तीन साधनों के अभ्यास से ज्ञान प्राप्त होता है। यहां चकार का अर्थ पूर्वार्थ का समुच्चय और आरम्भित जो ‘‘ज्ञानान्मक्तिः’’ इस विषय के प्रतिपादन की समाप्ति के वास्ते हैं। इससे आगे ‘‘बन्धो विपर्ययात्’’ इस पर विचार आरम्भ करते हैं ।

विपर्ययभेदाः पञ्च ॥ 3.37 ॥

अर्थ- अविद्या, अस्मिता राग द्वेष और अभिनिवेश यह पांच योगशास्त्रों में कहे हुये बंध के हेतु विपर्यय (मिथ्या ज्ञान) के अवान्तर भेद हैं। अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्म में नित्य, शुचि, सुख और आत्मबुद्धि करने का नाम अविद्या है। जिसमें आत्मा और अनात्मा का एकता मालूम होवे जैसे-शरीर के अतिरिक्त और कोई आत्मा नहीं, ऐसी बुद्धि का होना अस्मिता है-राग और द्वेष के लक्षण प्रसिद्ध ही हैं। मृत्यु से डरने का नाम अभिनिवेश है। यह पांचों बातें बद्ध जीव में होती हैं, और इनका होना ही बन्धन का हेतु है। अब बुद्धि को बिगाड़ने वाली अशक्तियों के भेद को कहते हैं ।

अशक्तिरष्टाविंशतिधा तु ॥ 3.38 ॥

अर्थ- अशक्ति अट्ठाईस प्रकार को हैं, वह प्रकार अब कहते हैं। ग्यारह इन्द्रियों के विघात हो जाने र्से यारह प्रकार की, और नौ प्रकार की तुष्टि, तथा आठ प्रकार अशक्ति सिद्धि से बुद्धि का प्रतिकूल होना- यह सब मिलकर अट्ठाईस प्रकार की अशक्ति बुद्धि में होती है। इन्द्रियों का विधात इस तरह होता है कि कान से सुनाई न देना, त्वचा में कोढ़ का हो जाना, आंखों से अन्धा हो जाना इत्यादि ग्यारह इन्द्रियों का विषय होना तथा तुष्टि आदि के जो भेद जिस प्रकार कहे हैं, उनसे बुद्धि का विपरीत होना, अशक्ति का लक्षण है। जब तक बुद्धि में अशक्ति नहीं होती तब तक अज्ञान भी नहीं होता। अब तुष्टि के भेद कहते हैं ।

तुष्टिर्नवधा ॥ 3.39 ॥

अर्थ- तुष्टि नौ प्रकार की है। इसका भिन्न-भिन्न प्रत्यक्ष आचार्य आगे के सूत्रों में आप ही करेंगे। अत- यहां व्याख्या लिखना व्यर्थ है ।

सिद्धिरष्टधा ॥ 3.40 ॥

अर्थ- सिद्धि आठ प्रकार की है, इसका प्रत्यक्ष भी आगे लिखेंगे। अब पूर्व कहे हुए विपर्यय, अशक्ति तुष्टि और सिद्धि के भेदों की व्याख्या आगे के चार सूत्रों में करेंगे ।

अवान्तरभेदाः पूर्ववत् ॥ 3.41 ॥

अर्थ- पिवर्यय अर्थात् मिथ्या ज्ञान के अवान्तर भेद जो सातान्य रीति से पूर्वाचार्यो ने किये हैं, उनको उसी तरह समझना चाहिये, यहां विस्तारभय से नहीं कहे गये। अविद्यादिकों के जितने भेद हैं उनकी विशेष व्याख्या विस्ताभय विस्तारभय के कारण छोड़ दी है यदि कहे जावें तो कारिकाकार ने अविद्या के बासठ भेद माने हैं, जिसमें आठ-आठ प्रकार का तम और मोह, दस प्रकार का महामोह अठारह प्रकार का जातिस्त्र और अठारह ही प्रकार का अन्धतामिस्त्र यह सब मिलकर बासठ प्रकार के हुए। यदि इतने प्रकार के भेदों की भिन्न-भिन्न व्याख्या की जावे, तो बड़ा भारी दफ्तर भरने को चाहिये, लेकिन हमारे विचार से इतने भेद मानना और उनकी व्याख्या करना केवल झगड़ा ही हैं ।

एवमितरस्याः ॥ 3.42 ॥

अर्थ- इसी प्रकार अशक्ति के भेद पूर्वाचार्यो के कथनानुसार समझने चाहियें ।

आध्यात्मिकादिभेदान्नवधा तुष्टिः ॥ 3.43 ॥

अर्थ- प्रकृति, उपादान, काल, भाग्य-यह चार प्रकार के भेद होने से आध्यात्मिक तुष्टि कहलाती है और पांच प्रकार की बाह्य विषयों से उपराम को प्राप्त होने वाली तुष्टि है। एवम् आध्यात्मिकादि भेदों के होने से नौ प्रकार से है, कि जो कुछ दीखता है, वह सब प्रकृति का ही परिणाम है, और उसको प्रकृति ही करती है मै कृटस्थ हूँ- ऐसी प्रकृति के सम्बन्ध में बुद्धि होने का नाम प्रकृति तुष्टि है और जो संन्यासी होकर आश्रम ग्रहण रूपी उपादान से तुष्टि मानते है वह उपादान तुष्टि है। जो संन्यासी होकर भी समाधि आदि अनुष्ठानों से बहुत समय में तुष्टि मसनते हैं उसे काल तुष्टि कहते हैं और उसके बाद धर्ममेघ समाधि में जो तुष्टि होती है, उसे भाग्य’तुष्टि कहते हैं। बाह्य पांच प्रकार की तुष्टि इस तरह है कि माला चन्दन, वनिता (स्त्री) आदि के प्राप्त करने में दुःख उत्पन्न होगा ऐसा करके उनका त्यागं कर देना, यह एक प्रकार की तुष्टि हुई। पैदा किये हुए धन को या तो चोर चुरा ले जायेंगे या राजा दण्ड देकर छीन लेगा तो बड़ा भारी दुःख उत्पन्न होगा ऐसा विचार कर जो त्यागना है, यह दूसरी तुष्टि है। यह धनादिक बड़े परिश्रम से संचय किया गया है, इसकी रक्षा करनी योग्य है व्यर्थ न खोना चाहिये ऐसा विचार करके जो विषय वासना से बचना है, इसको तीसरी तुष्टि कहते हैं। भोग के अभ्यास से काम वृद्धि होती है और विषय के न प्राप्त होने से कामियों को बड़ा भारी कष्ट होता है। ऐसा विचार कर जो भोगों से बचना है, यह चौथी तुष्टि का लक्षण है। हिंसा वा दोषों के देखने से उपराम हो जाना, पांचवी तुष्टि का लक्षण है! यह पांच प्रकार की तुष्टियों की व्याख्या केवल उपलक्षण मात्र की गई है। इनकी अवधि यहां तक न समझकर इसी प्रकार की और भी तुष्टियां इन्ही पांच प्रकार तृष्टियों में परिगणित कर लेनी चाहियें ।

ऊहादिभिः सिद्धिः ॥ 3.44 ॥

अर्थ- ऊह, शब्द अध्ययन और तीनों प्रकार के दुःखों का नाश होना, मित्र का मिलना, दान करना- इस तरह आठ प्रकार की सिद्धि होती है। बिना किसी के उपदेश के पूर्वजन्म के संस्कारों से हृत्व को अपने आप विचारों का नाम ऊह है। दूसरे से सुनकर वा अपने आप शास्त्र को विचार कर जो ज्ञान उत्पन्न किया है, उसका शब्द हैं शिष्य और आचार्य भाव से शास्त्र पढ़कर ज्ञानवान होने को अध्ययन कहते है हैं। यदि कोई दयावान् से अपने स्थान पर ही उपदेश देने आया हो, और उसी उपदेश से ज्ञान हो गया हो, इसको सूहृत्प्राप्ति कहते हैं और धन आदि देकर ज्ञान का जो प्राप्त करना है, उसको दान कहते हैं और पूर्वोक्त, आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक, तीन प्रकार के दुःखों के विवरण को शास्त्र के आदि में हम वर्णन कर चुके हैं। प्रश्न- ऊह आदिकों से ही सिद्धि क्यों मानी जाती है? क्योंकि बहुतेरे मनुष्य मन्त्रों से अणिमादिक आठ सिद्धि मानते हैं, तब क्या उनका सिद्धांत मिथ्या हो सकता है ?

नेतरादितरहानेन विना ॥ 3.45 ॥

अर्थ- ऊह पंचक के बिना मन्त्र आदिकों से तत्व की सिद्धि प्राप्त नहीं होती क्योंकि वह सिद्धि इतर अर्थात् विपर्यय ज्ञान के बिना ही प्राप्त होती है, अतएव सांसारिकी सिद्धि होने के कारण यह पार-मार्थिकी नहीं कहला सकती। बस यहां तक समष्टि सर्ग और प्रत्यय-सर्ग समाप्त हो गया, इससे आगे ‘‘व्यक्तिभेदः कर्मविशषात्’’ इस संक्षेप से कहे हुए सूर्त को विशेष रूप से प्रतिपादन करेंगे ।

दैवादिप्रभेदा ॥ 3.46 ॥

अर्थ- दैव आदि सष्टि के प्रभेद हैं, अर्थात् एक दैवी सृष्टि, दूसरी मनुष्यों की सृष्टि है। यहां पर दैव और मनुष्यों के कहने से यह न समझना चाहिए कि देवता जैसे और साधारण मनुष्य मानते हैं वही हैं किन्तु विद्वानो का नाम देव है और जो मिथ्या बोलते हैं वे मनुष्य हैं किन्नर, गन्धर्व, पिशाच आदि यह सब मनुष्यों के ही भेद हैं जैसा कि श्रुतियां कहती हैं। ‘‘सत्य वै देवा अनृतं मनुष्यः, विद्वासोरि देवा’’ इत्यादि। और महर्षि कपिल जी को भी यही बात अभीष्ट है, जैसा कि उन्होंने आगे ५३वें सूत्र में प्रति पादन किया है। अब सष्टि का प्रयोग कहते हैं ।

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं तत्कृते सृष्टिराविवेकात् ॥ 3.47 ॥

अर्थ- ब्राह्यणें लेकर स्थावरादि तक जितनी सृष्टि हैं, वह सब पुरूष के वास्ते है, और उसे विवेक के होने तक ही सृष्टि रहती है, बाद को मुक्ति होने से छूट जाती है। अब तीन सूत्रों से सृष्टि के विभाग को कहते हैं ।

ऊर्ध्वं सत्त्वविशाला ॥ 3.48 ॥

अर्थ- जो सृष्टि ऊपर है, वह सत्य प्रधान है। यहां पर ऊपर कहने से आचार्य का प्रयोजन ज्ञान के मार्ग से उन्नति करने वालों से है अर्थात् सतोगुणी उन्नति करते हैं, क्योंकि सतोगुण प्रकाश करता है, इस कारण सतोगुणी अर्थात् शानी लोग सदा उन्नति करते हैं, इस कारण ऊपर जाते हैं ।

तमोविशाला मूलतः ॥ 3.49 ॥

अर्थ- तमोगुणी अन्तःकरण वाले जीव नीचे गति अर्थात् पशु-पक्षी और कीड़े आदि की योनियों को प्राप्त होते हैं ।

मध्ये रजोविशाला ॥ 3.50 ॥

अर्थ- और बीच में जो शरीर है वह रजोगुण प्रधान है। बीच का शरीर सामान्य मनुष्य का जन्म है और सब शरीर इसकी अपेक्षा ऊंचे हैं, या नीचे। सामान्य मनुष्य रजोगुणी होता है। सत्पुरूष सतोगुणी, पशु आदि तमोगुणी। इसके अन्दर भी भेद हैं। प्रश्न- प्रकृति तो एक ही है, लेकिन सृष्टि अनेक तरह की क्यों होती है ?

कर्मवैचित्र्या-त्प्रधानचेष्टा गर्भदासवत् ॥ 3.51 ॥

अर्थ- यह सब प्रधान अर्थात् प्रकृति की चेष्टा कर्मों की विचिर्तता से होती है, क्योंकि दृष्टांत भी है, जैसे- कोई दासी अपने स्वामी के वास्ते नाना प्रकार की चेष्टा करती है, वैसे ही उसका पुत्र भी अपने स्वामी के प्रसन्नतार्थ नाना प्रकार की चेष्टा करने लगता हैं, अतएव जो जैसा कर्म करेगा उसकी सृष्टि भी वैसा ही करेगी, इसमें कोई संदेह नहीं हैं। प्रश्न- ऊध्र्व की सृष्टि सत्वगुण प्रधान है, तो मनुष्य उसी के कृतार्थ हो सकता है, फिर मोक्ष से क्या करना है ?

आवृत्तिस्तत्राप्युत्तरोत्तरयोनियोगाद्धेयः ॥ 3.52 ॥

अर्थ- उन ऊपर के और नीचे के देशों में आवृत्ति योग रहता है, अर्थात् जब वहां गए तब सात्विकी वृत्ति रही, और यहां रहे तब वही रजोगुण फिर आ गया और वहां भी छोटी बड़ी जातियां हैं, उनमें जन्म होने से ठीक-ठीक सत्व नहीं रहता, इस वास्ते ऐसा विचार करना सब तरह छोड़ने योग्य हैं। और भी इस पक्ष की पुष्टि करते हैं ।

समानं जरामरणादिजं दुःखम् ॥ 3.53 ॥

अर्थ- किसी शरीर में हों, चाहे देवता हों चाहे सामान्य मनुष्य अथवा पशु-पक्षी बुढ़ापे और मुक्त का दुःख सब में होता हैं, इस कारण सब शरीरों को अपेक्षा मुक्त होना ही उत्तम है। प्रश्न- जिससे यह शरीर उत्पन्न हुआ है यदि उसी में लय हो जाए, तब क्या मुक्ति नहीं मानी जाएगी ?

न कारणलयात्कृतकृत्यता मग्नवदुत्थानात् ॥ 3.54 ॥

अर्थ- कारण में लय जाने से भी कृतकृत्यता नहीं होती, क्योंकि जैसे मनुष्य जब जल में डूबता है तो कभी तो ऊपर आता है, और कभी नीचे को बैठ जाता है। इसी तरह जो मनुष्य कारण में लय हो गया है, कभी जन्म को प्राप्त होता है, कभी मरण को प्राप्त होता है, और ऐसा कहने से आचार्य का यह तात्पर्य नहीं है कि मुक्त जीव कभी जन्म को नहीं प्राप्त होता, क्योंकि प्रथम आचार्य जीव को नित्य मानते हैं, जब उसका कारण ही नहीं तो लय किसमें होगा। दूसरे जो डूबे हुए का दृष्टांत दिया, अशांति को पोषक दिया तथा इसमें पराधीनता दिखाई, किंतु मुक्त-जीव तो न अशांत है न पराए आधीन है। तीसरे यहां पर सृष्टि का प्रसंग चला आता है, किंतु जीव का विषय भी नहीं है, इसलिए अन्तःकरण के सुषुप्ति में प्रकृति में लय होने से तात्पय्र्य है। प्रश्न- जबकि प्रकृति और पुरूष दोनों ही अनादि हैं, तो प्रकृति ही में सृष्टि का कर्तव्य क्यों माना जाता है ?

अकार्यत्वेऽपि तद्योगः पारवश्यात् ॥ 3.55 ॥

अर्थ- यद्यपि प्रकृति और पुरूष दोनों अकार्य अर्थात् नित्य तथापि प्रकृति को ही सृष्टि करने का योग है, क्योंकि जो परवश् होगा वही तो कार्य को करेगा, इस विचार से प्रकृति में परवशता दीखती है ।

स हि सर्ववित्सर्वकर्ता ॥ 3.56 ॥

अर्थ- यदि प्रकृतिरूपी पदार्थ को सर्वज्ञ और सर्ववित् (विद् सत्तायाम् इस धातु का प्रयोग है) सर्वशतिमान मान लिया जाय तो क्या हानि है ?

ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा ॥ 3.57 ॥

अर्थ- इस तरह वेद के प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि सिद्ध है। प्रकृति में सर्वज्ञत्वादि गुण तो किसी सूरत में नहीं हो सकते हैं, सर्वज्ञत्वादि गुण तो ईश्वर ही में है। प्रश्न- प्रकृति ने सृष्टि को क्यों पैदा किया ?

प्रधानसृष्टिः परार्थं स्वतोऽप्यभोक्तृत्वादुष्ट्रकु-न्नमवहनवत् ॥ 3.58 ॥

अर्थ- प्रधान जो सृष्टि है उसकी सृष्टि दूसरे के वास्तेहै, क्योंकि वह स्वयं भोग नहीं कर सकती। दृष्टान्त- जैसे कि ऊंट केशर को अपने ऊपर लादकर पराए वास्ते ले जाता है लेकिन उस केशर से अपना कुछ स्वार्थ नहीं रखता। इसी प्रकार प्रकृति की सृष्टि भी दूसरे के वास्ते है। प्रश्न- ऊंट का जो दृष्टांत दिया गया सो ऊंट चेतन है, और चेतन की चेष्टा दूसरे के वास्ते हो सकती है, लेकिन जड़ की नहीं हो सकती ?

अचेतनत्वेऽपि क्षीरवच्चेष्टितं प्रधानस्य ॥ 3.59 ॥

अर्थ- यद्यपि प्रकृति अचेतन है, यथापि उसकी प्रवृत्ति दूसरे के वास्ते है। दृष्टान्त- जैसे कि जड़ है लेकिन प्रवृत्ति चैतन्य बछड़ा आदि के वास्ते है और भी दृष्टान्त हैं ।

कर्मवद्दृष्टेर्वा कालादेः ॥ 3.60 ॥

अर्थ- जैसा कि खेती के करने में बीज बोया जाता है, वह अपनी ऋतु के समय वृक्षरूप को धारण कर दूसरों के उपकारार्थ फल देता है, इसी प्रकार प्रकृति की सृष्टि भी दूसरों के वास्ते हैं। प्रश्न- ऊंट तो पिटने के डर से केशर लादकर ले जाता है, लेकिन प्रकृति को तो किसी का डर नहीं है ?

स्वभावाच्चेष्टितमनभिसंधानाद्भृत्यवत् ॥ 3.561 ॥

अर्थ- जैसे चतुर सेवक अपने स्वामी का सब काम करता है, और उसमें अपने स्वार्थ का कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता, इसी तरह प्रकृति भी अपने आप सृष्टि करती हैं, पुरूष के भय प्रेरणादिक को अपेक्षा नहीं करती ।

कर्माकृष्टेर्वानादितः ॥ 3.62 ॥

अर्थ- अथवा कर्मों के अनादि प्रवाह के वश होकर प्रकृति सृष्टि को करती है। अब इससे आगे सृष्टि की निवृत्ति के कारणों को कहेंगे ।

विविक्तबोधात्सृष्टिनिवृत्तिः प्रधानस्य सूदवत्पाके ॥ 3.63 ॥

अर्थ- जब विविक्त बोध अर्थात् एकान्त ज्ञान हो जाता है, तबप्रकृति की सृष्टि निवृत्त हो जाती है जैसे रसोइया भोजन बनाकर निश्चित हो जाता है, फिर उसको कोई काम विशेष नहीं रहता। इसी तरह प्रकृति भी विवेक को उत्पन्न करके अपनी सृष्टि को निवृत्त कर देती है। आशय यह है कि ज्ञान होने से संसार छूट जाता है। प्रश्न- जबकि एक को ज्ञान हुआ और उससे सृष्टि की निवृत्ति हो गई, तो फिर विशेष जीव गद्ध क्यों है? क्योंकि सृष्टि की निवृत्ति में बन्धन न रहना चाहिए ।

इतर इतरवत्तद्दो-षात् ॥ 3.64 ॥

अर्थ- जो विवेक रहित है वह बद्ध के बराबर है, क्योंकि अज्ञान के दोष से बंधा रहना ही पड़ता है। अब सृष्टि-निवृत्ति का फल कहते हैं |

द्वयोरेकतरस्य वौदासीन्यमपवर्गः ॥ 3.65 ॥

अर्थ- प्रकृति और पुरूष इन दोनों की आपस में उदासीनता का होना ही मुक्ति कहलाता है। दूसरा यह भी अर्थ हो सकता है, कि ज्ञानी औ अज्ञानी इन दोनों में से एक के वास्ते प्रकृति की उदासीनता ही को अपवर्ग मुक्ति कहते हैं। प्रश्न- जबकि विवेक के कारण प्रकृति पुरूष को मुक्त कर देती है, तो और भी पुरूष विवेक के डर के मारे सृष्टि करने से विरक्त क्यों नहीं होते ?

अन्यसृष्ट्युपरागेऽपि न विरज्यते प्रबुद्धरज्जुतत्त्वस्यैवोरगः ॥ 3.66 ॥

अर्थ- यद्यपि प्रकृति एक मनुष्य के ज्ञानी होने से उसके वास्ते सृष्टि से विमुक्त हो जाती है, तथापि दूसरे के अज्ञानी के वास्ते प्रकृति सृष्टि करने से विमुख नहीं होती। दृष्टान्त जैसे कि किसी मनुष्य ने रस्सी को देखा, उस रस्सी को देखकर उसको प्रथम सांप की भ्रांति हुई और भय मालूम पड़ा। आद को जब उसने विचार करके देखा तो उसको यथार्थ ज्ञान हो गया कि यह सांप नहीं हैं किन्तु रस्सी है। तब उसको आनन्द हो गया, तब वह रस्सी उस ज्ञानी को भय नहीं देती, किन्तु जो अज्ञानी है उसे तो सांप की भ्रांति भय है। इसी प्रकार प्रकृति की भी व्यवस्था है कि जो विवेकी है उसके वास्ते इसकी सृष्टि नहीं है, किन्तु अविवेकी के वास्ते है ।

कर्मनिमित्तयोगाच्च ॥ 3.67 ॥

अर्थ- सृष्टि के प्रवाह में जो कर्म हेतु है उनके कारण भी प्रकृति सृष्टि करने से विमुख नहीं होती और मुक्त मनुष्य के कर्म छूट जाते हैं, इस कारण उसके वास्ते सृष्टि शान्त हो जाती है। प्रश्न- जब सब मनुष्य समान और निरपेक्ष हैं, तो किसी के वास्ते प्रकृति सृष्टि की निवृत्ति और किसी के वास्ते प्रवृत्ति हो इसमें क्या नियम है? उत्तर- कर्म का प्रवाह ही इसमें नियम है। प्रश्न- यह उत्तर ठीक नहीं क्योंकि न मालूम किस मनुष्य का कौन-सा कर्म है? यह भी निश्चय किया हुआ नियम नहीं है ।

नैरपेक्ष्येऽपि प्रकृत्युपकारेऽविवेको निमित्तम् ॥ 3.68 ॥

अर्थ- यद्यपि सब पुरूष निरपेक्ष हैं, अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता तथापि यह मेरा स्वामी हैं, मैं इसका सेवक हूं, इस तरह प्रकृति के उपकार में (सृष्टि करने में) अविवेक ही निमित्त है। प्रत्यक्ष यह है कि जब प्रकृति यह बात चाहती है, कि मनुष्य मुक्त हो, तब ही उसकी अपनी सृष्टि के भीतर रखकर अनेक प्रकार के कार्यों में लगा देती है, और उन्हीं कार्यों को करता हुआ वह मनुष्य किसी न किसी जन्म में विवेकी होकर मुक्त हो जाता है, इसी वास्ते आचार्य ने सूत्र में उपकार शब्द को स्थापित किया है। प्रश्न- जबकि प्रकृति का स्वभाव वर्तमान मान लिया है, तो ज्ञान के उत्पन्न होने पर क्यों निवृत्ति हो जाती है? क्योंकि जो जिसका स्वाभाविक धर्म है, वह सब जगह एक-सा रहना चाहिए ।

नर्तकीवत्प्रवृत्तस्यापि निवृत्तिश्चारिता-र्थ्यात् ॥ 3.69 ॥

अर्थ- जैसे नाच करने वाली का नाच करना स्वभाव है वह सब सभा का दिखाती है, और जब नाच करते-करते उसके मनोरथ पूरे हो जाते हैं, तब वह नाच करने से निवृत्त हो जाती हैं, इसी तरह यद्यपि प्रकृति का सृष्टि करना स्वाभाव है, परन्तु उस सृष्टि करने का जो प्रयोजन है वह विवेक के उत्पन्न होने से निवत्त हो जाता है, अतएव उसने निवृत्ति भी हो जाती है ।

दोषबोधेऽपि नोपसर्पणं प्रधानस्य कुलवधूवत् ॥ 3.70 ॥

अर्थ- पुरूष को मेरे संयोग से दुःख होगा, इस बात में प्रकृति अपना दोष जानती है, तो फिर उसका संयोग नहीं करती, किन्तु अवश्य करती है, जैसे-अच्छे वेश की पतिव्रता स्त्री से यदि कोई दोष हो भी जाय, और उससे स्वामी को कष्ट भी पहुंचे, तब क्या वह अपने पति के पास जाना छोड़ देगी? ऐसा नहीं हो सकता, अवश्य जाएगी, क्योंकि जो पति को त्यागती है, तो उसका पतिव्रत धर्मं नष्ट होता है। और भी प्रकार से अन्य आचार्यो ने इस सूत्र का अर्थ किया है कि जब प्रकृति अपना दोष जान लेती है तब लज्जा के वश होकर फिर कभी पुरूष के पास नहीं जाती, जैसे कुलवधू नहीं जाती। इस अर्थ के करने से उनका तात्पर्य यह है,कि मुक्ति से पुनरावृत्ति नहीं होती, परन्तु यह अर्थ ठीन नहीं, और क्योंकि विज्ञानमिक्षु ने ‘‘अपि’’ शब्द का कुछ भी आशय नहीं निकाला, और न यह समझा कुलवधू वही होती है, जो अपने दोष को स्वामी से क्षमा करा कर अपने स्वामी की सेवा में तत्पर रहे, किन्तु अन्य टीकाकारों ने इस दृष्टांत के गूढ़ आशय को बिना समझे जो लिख दिया है, सो योग्य नहीं है अथवा आचार्य को यही बात माननीय थी कि मुक्ति से फिर नहीं लौंटता, तो इनसे पहिले सूत्र में इस बात को एक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादन कर ही चुके थे, फिर इस सूत्र को बनाकर पुनरूक्ति क्यों करते। इसी ज्ञापक से सिद्ध है कि मुक्ति से लौट आता है, लेकिन इस पुनरूक्ति को अन्य आचार्य नहीं समझे। पुरूष का बन्ध और मोक्ष किससे होता है? इस बात का विचार करते हैं ।

नैकान्ततो बन्धमोक्षौ पुरुषस्याविवेकादृते ॥ 3.71 ॥

अर्थ- पुरूष को बन्ध मोक्ष स्वाभाविक नहीं हैं। किन्तु अविवेक ही से होते हैं ।

प्रकृतेराञ्जस्यात्ससङ्गत्वात्पशुवत् ॥ 3.72 ॥

अर्थ- जब विचार करते हैं, तो ज्ञात होता है, कि प्रकृति का संयोग छूटना ही मोक्ष है, जैसे पशु रस्सी के संयोग से बंध जाता है, और उसका संयोग छूट जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है, इसी तरह मनुष्य को भी जानना चाहिये। प्रश्न- प्रकृति कौन-से साधनों से बन्धन करती है, और और कैसे मुक्त करती हैं ?

रूपैः सप्तभिरात्मानं बध्नाति प्राधानं कोशकारवद्विमोचयत्येकरूपेण ॥ 3.73 ॥

अर्थ- धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान अवैराग्य और अनैश्वर्य-इन सात रूपों से प्रकृति पुरूष का बन्धन करती है, जैसे तलवार के म्यान बनाने वाले की कारीगरी से तलवार ढकी रहती हैं, इसी तरह प्रकृति से पुरूष को भी समझना चाहिये, और वही प्रकृति ज्ञान से आत्मा को दुःखों से मुक्त कर देती है। प्रश्न- जब मुक्ति में हेतु ज्ञान कहा, और धर्मादिक सब बन्धन के हेतु कहे, तो धर्म में क्यों प्रवृत्ति होगी, और क्यों ध्यानादि के वास्ते उपाय किया जावेगा ?

निमित्तत्वमविवेकस्य न दृष्टहानिः ॥ 3.74 ॥

अर्थ- मुक्ति के न होने अज्ञान ही निमित्त हैं, इस वास्ते उसकी निवृत्ति ही वास्ते यत्न करना चाहिये और उस यत्न में धम्र्मानुष्ठान आदि चित्तशेधक कर्म भी परिगणित हैं, अतः उसकी हानि नहीं हो सकती, क्योंकि बिना धर्म ध्यान आदि किये कोई भी ज्ञानवान् हो ही नहीं सकता। अब विवेक कैसे होता है, उसका उपाय कहते हैं ।

तत्त्वाभ्यासान्नेति नेतीति त्यागाद्वि-वेकसिद्धिः ॥ 3.75 ॥

अर्थ- देह आत्मा नहीं हैं, पुत्र आत्मा नहीं हैं, इन्द्रियां आत्मा नहीं हैं मन आत्मा नहीं है। इस प्रकार नेति-नेति करके त्याग से और तत्वाभ्यास करने से विवक की सिद्धि हो जाती है। श्रुति भी इसी आशय को कहती है, अर्थात् ‘आदेशो नेति नेतोति त्यागनैके अमतत्वमानशु । ’

अधिकारिप्रभेदान्न नियमः ॥ 3.76 ॥

अर्थ- कोई मूर्ख बुद्धि वाले होते हैं, कोई विलक्षण वाले होते हैं। इस कारण एक ही जन्म में सब विवेक हो जावे, यह नियम नहीं है, किन्तु श्रेष्ठ अधिकारी एक जन्म में भी विवेकी हो सकता है ।

बाधितानुवृत्त्या मध्यविवे-कतोऽप्युपभोगः ॥ 3.77 ॥

अर्थ- जिसको विवेक साक्षात्कार हो भी गया है, उसको भी कर्मों का भोग भोगना होगा ही, क्योंकि यद्यपि कर्म एक बार वाधित भी कर दिये जाते हैं तथापि उनकी अनुवृत्ति होती है। प्रारव्ध आदि संज्ञा वाले कर्म सर्वथा विनाश को प्राप्त नहीं होते ।

जीवन्मुक्तश्च ॥ 3.78 ॥

अर्थ- जब विवेक हो जाता है तब शरीर की मौजूदगी में भी मुक्त हो सकता हैं। उसको ही जीवन्मुक्त कहते हैं। अब जीवन्मुक्त होने का उपाय भी कहते हैं ।

उपदेश्योपदेष्टृत्वात्तत्सिद्धिः ॥ 3.79 ॥

अर्थ- जब शिष्य बनकर गुरू के मुख से शास्त्रों को पढ़ेगा और विचार करने से विवेक की उत्पत्ति हो जावेगी, तो जीवन मुक्त होना कुछ कठिन बात नहीं हो सकती। इसी विषय को श्रुति भी प्रतिपादन करती है ‘‘तद्धिज्ञानार्थ स गुरूमेवाभिगच्छेत् समित्पणिः श्रेत्रियं ब्रह्यनिष्ठम। तस्मै स विद्वानुपासन्नाय सम्यक् प्रशान्तचत्ताय शमान्विताय येनाक्षरं पुरूषं वेद सत्यं प्रोवाचतान्तत्त्वतो ब्रह्यविद्याम् । ’’

श्रुतिश्च ॥ 3.80 ॥

अर्थ- जबकि जिज्ञासु पुरूष को सत्य के जानने की अभिज्ञाषा हो, उस समय सनित्पाणि अर्थात् पुष्पादिक हाथ में लेकर श्रेत्रिय, ब्रह्यनिष्ठ गुरू की शरण ले, फिर उस महात्मा गुरू को चाहिए कि ऐसे शिष्य को धोखे में न डाले, और वह उपदेश करना चाहिए। जिस कारण से वह शिष्य सत्यमार्ग को प्राप्त हो जाय। प्रश्न- ब्रह्यनिष्ठ गुरू की ही शरण क्यों ले और भी तो बहुतेरे होते हैं ?

इतरथान्धपरम्परा ॥ 3.81 ॥

अर्थ- यदि ज्ञानवान ब्रह्यनिष्ठ गुरू से ज्ञान न लिया जावे, तो क्या मूर्खों से लिया जायेगा, फिर तो अन्ध परम्परा गिनी जायेगी, जैसे-एक अन्धा कुयें में गिरा तो सब हो अन्धे कुयें में गिर पड़े, इसी प्रकार मूर्ख की शरण लेने से सब मूर्ख रह जाते हैं। प्रश्न- अब ज्ञान से कर्म नाश हो जाते हैं, तो फिर शरीर क्यों रहता है और उसकी जीवान्मुक्त संज्ञा कैसे होती है ?

चक्रभ्रमणवद्धृतशरीरः ॥ 3.82 ॥

अर्थ- जैसे कुम्हार का चाक भोलुआ इत्यादि के बनाने के समय डंडे से चलाया जाता है और कुम्हार बर्तनों को बना कर उतार भी लेता हैं, लेकिन उसे चलाने का ऐसा वेग होता है कि पीछे बहुत देर त कवह चत्र घूमता रहता है, इसी तरह ज्ञान के उत्पन्न होते ही यद्यपि नये कमं उत्पन्न नहीं होते तथापि प्रारब्ध कर्मों के वेग से शरीर को धारण किये हुए जीवन्मुक्त रहता है। प्रश्न- यद्यपि चक्त के घुमने में डण्डे की कोई ताड़ना उस समय नहीं है, तो भी वह पहिली ताड़ना के कारण से चलता है किन्तु जब जीवन्मुक्त के सब रागादि नाश हो जाते हैं, तो तो उपयोग किसके महारे से करता है ?

संस्कार-लेशतस्तत्सिद्धिः ॥ 3.83 ॥

अर्थ- रागादिको के संस्कार का भी लेश रहता है, उसी के सहारे से उपभोग की सिद्धि जीवन्मुक्त हो जाती है, वास्तविक राग जीवन्मुक्त को नहीं रहते। यह सब जीवनमुक्त के विषय में कहा। अब बिना देह की मुक्ति के वास्ते अपना परम सिद्धान्त कहकर अध्याय को समाप्त करते हैं ।

विवेकान्निःशेषदुःखनिवृत्तौ कृतकृत्यता नेतरान्नेतरात् ॥ 3.84 ॥

अर्थ- विवेक ही से सब दुःख दूर होते हैं, तब जीव कृतकृत्य होता है, दूसरे से नहीं होता, नहीं होता। पुनरूक्ति अर्थात् ‘नेतरात्’ इसका दुबारा कहना पक्ष पुष्टि और अयाय की समाप्ति के वास्ते है। ।। इति सांख्यदर्शने तृतीयोऽध्यायः समाप्तः ।

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