Sankhya Darshan Chapter 1 , part 2

Sankhya Darshan

जिस प्रकार मन्द अन्धकार से सीप में चांदी का ज्ञान या रज्जू में सर्प का ज्ञान है, उसके नाश का नियत उपाय है, अर्थात् प्रकाश का होना, किन्तु प्रकाश के बिना किसी अन्य उपाय से यह अज्ञान नष्ट नही हो सकता। इसी प्रकार अविवेक से उत्पन्न होने वाला जो बन्धन है, उसके नष्ट करने का उपाय विवेक अर्थात् पदार्थ ज्ञान है।

जीव में प्रधान अर्थात् प्रकृति के अविवेक अर्थात् पदार्थ ज्ञान के न होने से और कारण आदि से पदार्थों वा अज्ञान होता है। आशय यह है कि बन्धन का कारण जीव की अल्पज्ञता है, क्योंकि जीव अपनी स्वाभाविक अल्पज्ञता से प्रकृति का विवेक नही रखता, जिससे प्राकृतिक पदार्थों में मिथ्या ज्ञान उत्पन्न होता है, और मिथ्या ज्ञान से राग-द्वेष से प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, और उससे बंधन अर्थात् तीन प्रकार का दुःख उत्पन्न होता है, और जिस समय प्रकृति का मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है, तब प्रकृति के पदार्थों का अविवेक दूर होकर दुःख रूप बन्धन से छूट जाता है।

दुःखादि को चित्त में रहने वाला होने से उनका पुरूष में कथमात्र ही है, जैसे- लाल डांक के आने से अंगूठी का हीरालाल मालूम होता है, ऐसे जीव मन के दुःखी मालूम होता है और मन के सुखी मालूम होता है, वास्तव में सुख-दुःख से पृथक् है। प्रश्न- यदि इस भांति दुःख कथनमात्र से भी दूर हो जाएगा, उसके लिए विवेक की क्या आवश्कता है, इसका उत्तर अगले सूत्र में देते है?

इस केवल कथनमात्र दुःख का भी युक्ति से नाश नही सकता, बिना अपरोक्ष ज्ञान के। जैसे किसी मनुष्य को पूर्व दिशा में उत्तर का भ्रम हो जावे तो जब तक पूर्व और उत्त दिशा का भली-भांति ज्ञान न हो जावे, तब तक यह भ्रम जा ही नही सकता, इस कारण विवेक की आवश्यकता है, और सूत्र में भी दिखलाया गया है कि जब तक दिशा का प्रत्यक्ष न हो जावे तब तक भ्रमनिवृत्ति नही हो सकती। इसलिए जब तक प्रकृति और पुरूष के धर्मं का ठीक निश्चय करके प्रकृति ससे निवृत्ति और पुरूष की प्राप्ति न हो तब तक दुःख भी दूर न होगा।

प्रकृति, पुरूष अर्थात् जीवात्मा परमात्मा और प्रकृति का तो प्रत्यक्ष नही है, अनुमान से ज्ञान हो ता है।

सत्वगुण प्रकाश करने वाला, रजोगुण न प्रकाश और न आवरण करने वाला, तमोगुण आवरण करने वाला जब ये तीनो गुण समान रहते है, उस दशा का नाम प्रकृति है, क्योंकि वर्तमान दशा में सत्वगुण, तमोगुणा परस्पर विरोध है। इस समय जिस शरीर में सत्वगुण रहता है, पवहां तमोगुण का वास नही और इसीतरह जहां तमोगुण का निवास है वहां सत्वगुण नही, परन्तु कारण अर्थत् परमाणु की दशा में एक दूसरे के विरूद्ध हीं कर सकते, उस समय पास ही पास रह सकते है। अब उस प्रकृति से महत्तम अर्थात् मन उत्पन्न होता है और मन अहंकार और अहंकार से पंच सूक्षम तन्मात्रा या रूप, रस, गंध स्पर्श और शब्द उत्पन्न होते है, उनसे पांच ज्ञानेन्द्रि और पांच कमेंन्द्रिय उत्पन्न होते है,और नचंतन्मात्राओं से पांच भूत अर्थात् पृथ्वी, अप, तेज वायु और आकाश होते है और जब इनसे पुरूष अर्थात् जीव और ब्रह्य मिल जाता है। तो २५ गुण कहलाते है।

इन पांच प्रकाशवान् तत्त्वों से उन सूक्ष्म तन्मात्रों का अनुमान होता है जिस प्रकार कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है. जैसे लिखा है - अर्थात् कार्यो के गुणों के अनुसार कारण और और कारण के अनुसार कार्य के गुणों का अनुमान होता है। इसी प्रकार यहां कार्य तत्त्वों को देखकर तन्मात्र का ज्ञान हो जाता है।

बाहर की ओर आभ्यन्तरीय इन्द्रियों से पंच तन्मात्र रूप कार्य का ज्ञान होकर उसके कारण अहंकार का भी ज्ञान होता है, क्योंकि स्पर्शादि विषयों का ज्ञान समाधि और सुषुप्ति अवस्था में जबकि अहंकार रूप वृत्ति का अभाव होता है नही होता, इससे अनुमान होता है कि यह इस वृत्ति से उत्पन्न होते है, अर्थात् अहंकार के कार्य है और अहड्.कार इनका कारण है, क्योंकि यह नियम है कि जो जिसके बिना पैदा न हो सके वह उसका कारण होता है और भूत बिना अहंकार के सुषुप्ति अवस्था में दृष्टिगत नही होते, अतएव यहाँ उनका कारण अनुमान से प्रतीत होता है।

और अहंकारूपी कार्यं से उसके कारण अन्तः कारण का अनुमान होता है, क्योंकि प्रथम मन में वस्तु के, अस्तित्व का निश्चय करके उसमें अहंकार किया जाता है, अर्थात् उसे अपना मानते है। जिस समय तक वस्तु का अस्तित्व का निश्चय न हो तब तक उसमें अभिमान नही होता है, अर्थात् मै हूं, और मेरा है, यह ज्ञान जब तक अपने और चीज के अस्तित्व का ज्ञान न हो, किस तरह हो सकता है?

और उस मन से प्रकृति, जो मन का कारण है, उसका अनुमान होता है, क्योंकि मन मध्यम परिणाम वाला होने से कार्य है और प्रत्येक कार्य का कारण अवश्य होता है, अब मन का कारण प्रकृति के अतिरिक्त और कुछ हो नही सकता। क्योंकि पुरूष तो परिणाम रहित है, और मन का शरीर की तरह मध्यम परिणाम वाला होना श्रुति, स्मृति और युक्ति से सिद्ध है? क्योकि मन सुख, दुःख और मोह धर्मंवाला है, इस वास्ते उसका कारण भी मोह धर्म वाला होना चाहिए। दुःख परतन्त्रता का नाम है, और पुरूष की परतन्त्रता हो नही सकतो। परतन्त्रता केवल जडद्य प्रकृति का धर्म है उसका कार्य मन है।

प्रकृति के अवयवों की संहित सर्वदा दूसरे के वास्ते होती है, अपने लिए नही इससे पुरूष का अनुमान होता है, क्योंकि मन आदि जो प्रकृति के कार्य है, उनसे पुरूष को लाभ होता है। मन आदिक अपने लिए कुछ भी नही कर सकते, और जितने शरीर स लेकर अन्न, वस्त्र, पात्रादि के विकार है, उनसे दूसरों का ही उपकार होता है, और पुरूष की त्रिया का भोग पदार्थ नही है, क्योंकि उपनिषद् में लिखा है। ‘‘न वा अरे सर्वस्य का माय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु का माप सर्वं प्रियं भवति अर्थात् सम्पूण वस्तुओं के उपयोगी होने से सब वस्तुयें प्यारी नही, किन्तु आत्मा के उपयोगी होने से सब वस्तुयें प्यारी प्रतीत होती है।

२२ तत्वों का मूल उपादान कारण प्रकृति है, और मल अर्थात् जड़ की नही होती, इस पास्ते मूल बिना के ही होता है।

कारणों की परम्परा के विचार से परमाणु ही घट का कारण है, मृत्तिका तो नाममात्र है।

घट और मृत्तिका के साथ प्रकृति का समान सम्बन्ध है, अर्थात् परम्परा से प्रकृति ही घट और मृत्तिका का कारण है, और निरयव होने से नित्य है, उसका कोई कारण नहि।

यद्यपि प्रकृति सबका उपादान कारण है परन्तु प्रत्येक कार्य में जो तीन प्रकार के कारण माने जाते है अर्थात् (१) उपादान, (२) निमित्त और (३) साधारण इनकी भी व्यवस्था न रहेगी, क्योकि जब कुम्हार मिट्टी दण्डादि का कारण प्रकृति ही ठहरी तो इन तीन कारणों की अनावश्यकता होने से बहुत गोलमाल हो जायेगा जायेगा। इसमें हेतु यह है कि फिर कोई भी किसी का निमित्त व असाधारण कारण न रहेगा, अतएव जहां-जहां कारणत्व कहा जाये वहाँ-वहां प्रकृति को छोड़कर कहना चाहिए, क्योंकि प्रकृति तो सबका कारण है ही उसके कहने को कोई भी बावश्यकता नही है, जैसे- कुम्हार के पिता को घट का कारण कहना आवश्यक है, क्योंकि वह तो अन्यथासिद्ध है। यदि वही न होता तो कुलाल कहां से आता? परन्तु घट के बनने में कुलाल के पिता की कोई भी आवश्यकता नही है, ऐसा ही नवीन नैयायिका भी मानते है, कि कारणत्व प्रकृति को छोड़कर कहना चाहिए।

प्रकृति का पहला कार्य महत् है और वह मन कहलाता है। मन अहड्.कारादि होते है, मन की उत्पतत्त ६१ सूत्र में कह चुके है।

और प्रकृति का दूसरा कार्य अहड्.कार है। इन तीनों सूत्रों का अभिप्राय यह है कि यदि प्रकृति को कारणत्व कहा जावे, तो केवल उन्ही दो कार्यों का कहना अन्य कार्यों का कारण महदादि को कहना चाहिए। इसी बात को अगले सूत्रों से स्पष्ट करते है।

महत् और अहंकार को छोड़कर बाकी सब प्रकृति के कार्य नही, किन्तु उनके कारण महदादि है।

जिस प्रकार परम्परा सम्बन्ध में घटादि के कारण अणु माने थे, उसी भांति परम्परा सम्बन्ध से महादादिकों का कारण भी प्रकृति ही है, अतएव कुछ दोष न रहेगा।

पहिले होने में एक यह भी युक्ति है कि कार्य नाश होकर कारण में मिल जाता है, और अन्त में सब कार्य पदार्थ प्रकृति में लय हो जाते है। यदि को शंका करे कि जब प्रकृति और पुरूष दोनों कार्य जगत् से पहले थे, तो अकेली प्रकृति को क्यों कारण माना जावे? इसका उत्तर यह है कि पुरूष परिणामी नही और उपादान कारण का परिणाम ही कार्य कहलाता है, और पुरूष के अपरिणामी होने में १५-१६ के सूत्र प्रमाण है। यदि प्रकृति सम्बन्ध से प्रकृति द्वारा पुरूष में परिणाम मानें और दोनों को कारण माने तो वृथा गौरव होगा।

एक देशी और अनित्य पदार्थ सर्व जगत् का उपदान कारण नही हो सकते, क्योंकि, अनित्य पदार्थ को कार्य होने से स्वयं कारण की आवश्यकता है। प्रश्न- एक देशी पदार्थ की उत्पत्ति में क्या प्रमाण है?

अनित्य और एक देशी पदार्थों की उत्पत्ति श्रुति में मानी है और जिसकी उत्पत्ति है उसका विनाश अवश्य होगा। प्रश्न- अविद्या सम्बन्ध से जगदुत्पत्ति है, इसमें क्या दोष है? इसका उत्तर महात्मा कपिल जी देते है।

जो अवि़द्या द्रव्य नही है केवल मात्र है, या कोई वस्तु नही है, उससे तगत् जो द्रव्य वस्तु है, किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है? क्योंकि गुण द्रव्य का एक अवयव होता है। एक अवयव से अवयवी की उत्पत्ति नही हो सकती और न अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है? जैसे- मनुष्य के सींग नही हो तो उस सींग से कमान कैसे बन सकती है? प्रश्न- यह संसार भी अवस्तु है, इसलिए यह अविद्या से बना है?

यदि कहो जगत् भी अवस्तु है, तो कहना ठीन नही, क्योंकि न तो स्वप्न पदार्थों के तुल्य जगत् का किसी अवस्था विशेष में बोध होता है, जैसे स्वप्न के पदार्थों का जाग्रत अवस्था में बोध हो जाता है औ न जगत् किसी इन्द्रिय के दोष से प्रतीत होता है, जैसे- पीलिया रोग अवस्था में सब वस्तुओं को पीला प्रतीत करता ह परन्तु यह पीलापन सत्य नही। जगत् इस प्रकार के किसी दोषयुक्त कारण से उत्पन्न नही हुआ, जगत् इस प्रकार को अवस्तु नही कह सकते।

कारण के होने से उसके संयोग से कार्य बन सकता है और कारण के अभाव में किसके योग से द्रव्यरूप कार्य बनेगा जैसे- मिट्टी के होने से तो उसका घट बन जायेगा, मृत्तिका नही तो किसका घट बनेगा। प्रश्न- तुम प्रधान अर्थात् प्रकृति को क्यों कारण मानते हो? कर्म को मानना चाहिये।

कर्म से जगत् की उत्पत्ति नही हो सकती, क्योकि कर्म द्रव्य तो है ही नही। द्रव्य के बिना गुणादि में उपादान कारण होने की योग्यता नही। कारण यह है कि दुव्य का उपादान कारण द्रव्य होता है। यहद कहो हम कल्पन करते है तो कल्पना दृष्टि के अनुसार प्राण्माणिक और विरूद्ध होने से अप्रामाणिक है और वैशेषिक में कहे हुए गुण और कर्म कही उपादान कारण होते नही। देखा यहां कर्म शब्द से अविद्या और गुणों को भी लेना चाहिये, वह भी उपादान के योग्य नही।

यह तो पहिले कह चुके है कि दुष्ट पदार्थों वा कर्म से दुःखत्यन्त निवृत्ति नही होती। अब कहते है कि ज्ञान के बिना वेदोक्त कर्म से भी मुक्ति नही होती, क्योकि वैदिक कर्मों से जो स्वर्गादि सुख मिलते है उनका भी नाश हो जाता है, इस वास्ते यह पुरूषार्थ नही। पहिले ‘‘न कर्मण अन्यधर्मत्वात्’’ इस सूत्र में कम से बन्धन नही होता, इसका खण्डन किया था, अब कर्म से मुक्ति होती है इसका भी खंडन कर दिया। प्रश्न- श्रुति में बतलाया गया है कि इस प्रकार कर्म से बंह्यलोक को प्राप्तहोकर ब्रह्यलोक की आयु तक पुनरावृत्ति नही होती?

इस श्रुति में भी प्राप्त विवेक ही के वास्ते वैदिक कमों से अनावृत्ति से मानी गई है। यदि ऐसा न मानो तो दूसरी श्रुतियों से जो ब्रह्यलोक से पुनरावृत्ति का कथन करती है, विरोध होकर दोनों का प्रमाण नही रहेगा, इसलिए प्राप्त विवेक ही से मुक्ति माननी चाहिए।

जो कर्म शरीर से उत्पन्न होता है और शरीर के न होने पर नही होता, इस वास्ते कर्म स्वयं दुःख रूप या अविद्या स्वरूप है। जिस प्रकार दुःख से दुःख का नाश नही होता, उसी प्रकार कर्म से दुःख का नाश नही हो सकता, जैसे- जल नहाने से शीत बढ़ता हैद्व नाश नही होता, ऐसे ही विवेक रहित कर्म से मुक्ति नही होती नही होती।

चाहे कर्म निष्काम हो चाहे सकाम हो, परन्तु ज्ञान के बिना मुक्ति का साधन नही हो सकता, क्योंकि दोनोंप्रकार के कर्मो में साध्यत्व अर्थात् शरीर से उत्पत्ति वाला होना समान है और श्रुति में भी लिखा है ‘न कर्मणा न प्रजया’’ इत्यादि अर्थात् न तो कर्म से मुक्ति होती, न प्रजा से, न धन से, ज्ञान के बिना किसी साधन से मुक्ति नही होती है ?

कर्मं का फल तो भावरूप सुख है, इसलिए वह अनित्य है, परन्तु ज्ञान का फल तो अविद्या का विनाश रूप है। जब कार्याभाव रूप न ही तो उसका नाश होगा। दूसरे कर्म देहात्म विशिष्ट से होता है, और उसका फल भी देहात्मा मिलकर भोगते है, परन्तु देह विनाशी है, इसलिए कर्म का फल भी विनाशी है ज्ञानात्मा का धर्म आत्मा में नित्य हो सकता है।

ज्ञाता और ज्ञेय के पास-पास होने से जो ज्ञान होता है, उसे प्रमा कहते है। इस प्रमा के साधन तीन प्र्रकार के प्रमाण है- एक प्रत्यक्ष, दूसरा अनुमान, तीसरा शब्द। जो पदार्थं भोतिक और समीप है उनका ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है, और जो पदार्थ अभौतिक तथा दूर है, उनका शब्द और अनुमान से होता है,यहां दूर का आशय परोक्ष है। जिन पदार्थों का तीन काल प्रत्यक्ष न हो उनका शब्द प्रमाण से बोध होता है। यहां शब्द का आशय योगी और ईश्वर की आज्ञा है। जहां भोतिक पदार्थों का परोक्ष होने में शब्द प्रमाण लिया गया है, वहां सत्यवादी आप्त पुरूष का वाक्य समझना चाहिए।

इन तीन प्रमाणों के सिद्ध होने से सब पदार्थों की सिद्धिहो जाती है, इसलिए और प्रमाण मानने की आवश्यकता नही, क्योंकि महात्मा मनु ने भी लिखा हैः- अर्थ- प्रत्यक्ष अनुमान शास्त्र के अनकूल जान कर कार्य करना चाहिए, क्योंकि धर्म की शुद्धि की इच्छा वालों की इच्छा इनसे पूरी हो सकती है और उपमानादि प्रमाण नही के अन्दर आ जाते है।

जिस सामने उपस्थित पदार्थ के साथ ज्ञानेन्द्रिय का सम्बन्ध हो और मन को भी उस इन्दिंय के द्वारा उसका यथार्थ बोध हो जाय, तो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते है और इस ज्ञान का कारण ज्ञानेन्द्रिय और मन की वृत्ति है। इसलिए मन और इन्द्रियें प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाती है और इनका विषय केवल प्राकृत पदार्थ ही है। प्रत्यक्ष से अप्राकृत पदार्थों का ज्ञान नही हो सकता। प्रश्न- योगियों को तीनों काल के पदार्थों का साक्षात ज्ञान हो सकता है और योगी समाधि अवस्था में आत्मा और अन्दर के पदार्थों को पत्यक्ष करता है, इस वास्ते तुम्हारा पत्यक्ष लक्षण ठीक नही?

यह लक्षण बाह्य प्रत्यक्ष का है और योगियों को अबाह्य प्रत्यक्ष भी होता है, इसलिए योगियों का प्रत्यक्ष बाह्य रूप न होने से दोष नही। इसके लिए और युक्ति देते है।

योगियों ऐसी वस्तु का जो दूर हो अथवा दूसरे के चित्त में हो उसके साथ भी सम्बन्ध रखते है, इस वास्ते योगियों के ऐसे प्रत्यक्ष में दोष नही आता।

मानसिक प्रत्यक्ष के न मानने से ईश्वर की सिद्धि न होगी क्योंकि रूप न होने से वह चक्षु का विषय नही, सुगन्ध न होने से वह नासिक का विषय नही, रस न होने से वह रसना का विषय नही। जब ईश्वर का प्रत्यक्ष न हुआ तो अनमान भी न होगा, क्योंकि अनमान प्रत्यक्ष पूर्वक होता है। जिनका काल में प्रत्यक्ष न हो उसमें अनुमान हो ही नही सकता और शब्द प्रमाण से भी काम न चलेगा, क्योंकि वेद के ईश्वर-वाक्य होने से वेद को प्रमाण मानते है। जब ईश्वर स्वयं असिद्ध होगा तो उाका वाक्य वेद कैसे प्रमाण माना जाएगा? यहां अन्यान्याश्रय दोष है, क्योंकि ईश्वर की सिद्धि बिना, वेद का प्रमाण हो नही सकता, और वेद के बिना ईश्वर-वाक्य सिद्ध हुए प्रमाण ही नही हो सकता।

संसार में कोई चेतन मुक्त और बद्ध से भिन्न नही। यदि तुम ईश्वर को बद्ध मानो तो वह सृष्टि करने की शक्ति नही रखता। यह मुक्त मानो तो इच्छा के अभाव से सृष्टि उत्पन्न नही कर सकता क्योंकि संसार में जितनी सृष्टि को नियमित देखते है, वह कर्ता की इच्छा से होती है।

इस प्रकार मुक्त, बद्ध दोनों के चेतन से सृष्टि का होना अनुमान सिद्ध न होगा। इसलिए मानसिक प्रत्यक्ष अवश माना पड़ेगा। ईश्वर योगियों को समाधि अवस्था में प्रत्यक्ष होते है, क्योंकि स्थिर मन के बिना ईश्वर का बोधक कोई प्रमाण नह। ईश्वर बद्ध और मुक्त दोनों प्रकार का नही कह सकते, क्योंकि दोनों सापेक्ष है। अर्थात् जो पहिले बंधा हो, वह ही बंध छूटने से मुक्त कहला सकता है। ईश्वर इन दोनों अवस्थाओं से पृथक् है। जगत् का करना उसका स्वभाव है इसलिए इच्छा की आवश्यकता नही। प्रश्न- एक वस्तु में दो विरूद्ध स्वभाव हो नही सकते। यदि रचना ईश्वर का स्वभाव मानोगे तो विनाश किसका स्वभाव मानोगे। उत्तर- यह शंका परतन्त्र और अचेतन में हो सकती है क्योंकि कर्ता स्वतन्त्र होता है और स्वतन्त्र उसे कहते है, जिसें करने, न करने और उल्टा करने की सामथ्र्य हो।

उपासना के सिद्ध होने से जो मुक्तात्मा की प्रशंसा की जाती है, इससे प्रतीत है कि ईश्वरर है, जिसकी उपासना से अववेक की निवृत्ति और विवेक की प्राप्ति होकर मुक्ति प्राप्त होती है।

प्रकृति त्रिया रहित है। उसको त्रिया शक्ति ईश्वर की समीपता से प्र्राप्त होती है, जैसे मणि को कांच की समरपता से सुरखी प्राप्त होती है, परमात्मा में इच्छा के न होने से उसे अकत्र्ता कहा जाता है, और बिना उसकी समीपता के प्रकृति करने में असमर्थ है, जैसे बिना हाथ के जीव उठा नही सकता, इस वास्ते कहते है, उठाना जीव का धर्मं नही, परन्तु कत्र्ता हाथ में जीव त्रिया शक्ति नही इस वास्ते जीवात्मा को कत्र्ता माना जाता है।

जो कार्य सामान्य रूप से जगत् में होते है, वह तो परमात्मा की सत्ता से होते है, और जो कार्य विशेष रूप से प्रति शरीर में भिन्न -भिन्न होते है, वे जीव की सत्ता से होते है। संसार के आत्मा को परमात्मा और शरीर के आत्मा को जीवात्मा कहते है। प्रश्न- यहद प्रत्यक्ष प्रमाण से या और प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि हो गइ, तो वेद का क्या प्रमाण माना जाय? क्योंकि भोतिक पदार्थों का तो प्रत्यक्ष से ज्ञान हो ही जायेगा, और अभौतिक का योगियों के अवाह्य प्रत्यक्ष से हो जाऐगा।

अन्य प्रमाणों से ईश्वर के होने की तो सिद्धि हो जाएगी, परन्तु उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नही होगा, जैसे- पुत्र को देख कर उसके पिता के होने का ज्ञान तो अनुमान से हो सकता है, परन्तु उसके रूप और वायु आदि के ज्ञान के वास्ते शब्द की आवश्यकता है इस वास्ते वेद का अवश्य प्रमाण मानना चाहिये।

अन्तःकरण भी चैतन्य के संयोग से उज्ज्वलित (प्रकाशित) है, अतएव संकल्प विकल्पादि कायों का अधिष्ठातृत्व अन्ःकरण को है, जैसे- अग्नि से तपाये हुए लोहे में यद्यपि दाहाशक्ति अग्नि संयोग के कारण है तथापि अन्य पदार्थों के दा करने को लोहशक्ति भी हेतु हो कती है।

जो इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ नही दीखता, उसके ज्ञान के साधन को अनमान कहते है, जैसे- अग्नि प्रत्यक्ष नही दीखती, किन्तु धूम को देखकर उसका ज्ञान हो जाना, इसी का नाम अनुमान है। यह अनुमान व्याप्ति और साहचर्य नियम के ज्ञान बिना नही होता, जैसे- जब तक कोई पुरूष पाकशाला आदि में धूम अग्नि को व्याप्त न समझ लगा कि जहां-जहां धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है तब तक धूम को देख कर अग्नि का अनुमान कदापि नही कर सकता। वह अनुमान कितने प्रकार का है, इसका निर्णय आगे करेगे। किन्तु प्रथम शब्द प्रमाण का लक्षण करते है।

यह सूत्र सब शास्त्रों में ऐसा ही है। जैसे तीनों वेदों में गायत्री मन्त्र एक सम है, इसी भांति इस सूत्र को भी जनता चाहिये। जो पुरूष धर्मनिष्ट वाह्य धर्म के ज्ञानको यथार्थ रीति पर जानते हैं, तथा शुद्ध आचरणवान् हैं, उनका नाम आप्त है। उनके उपदेश को शब्द प्रमाण कहते हैं, आप्ति का अर्थ योग्यता हैं, इस कारण तत्त्वज्ञान से युक्त अपोरूष वाक्य वेद हो शब्द प्रमाण जनता चाहिये। अब अगले सूत्र से प्रमाण मानने की आवश्यकता को प्रकट करते हैं।

जब तक मनुष्य को वस्तु का सामान्य ज्ञान हो, परन्तु यथार्थ ज्ञान न हो, तब तक वह संशय कहाता है। संशय की निवृत्ति बिना प्रमाण के हो नहीं सकती और संशय की निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती। प्रमाण के आत्म, अनात्म, सद्, दोनों प्रकार की सिद्धि होती हैं, इसी कारण प्रमाण का उपदेश किया है।

तीन प्रकार के अनुमान होते हैं-पूर्ववत् शेषवत् और सामान्य-तोदृष्ट। पूर्ववत् अनुमान उसे कहते हैं, जैसे धूम को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता हैं, क्योंकि पहले पाकशाला में धूम और अग्नि दोनों देखे थे, वैसे ही अन्यत्र होंगे, इस प्रकार का अनुमान पूर्ववत् कहाता हैं। जो विषय कभी प्रत्यक्षनहीं किया उसका कारण द्वारा अनुमान करना शेषवत् अनुमान कहाता है।, जैसे-स्त्री और पुरूष दोनों को निरोग और हृष्ट-पृष्ट देख कर इनके पुत्रोत्पत्ति होगी यह अनुमान करना मेघ को देखकर जल बरसेगा, यह अनमान करना शेषवत् का उदाहरण है। जिस जातिय विषय को प्रम्यक्ष कर लिया हैं, उसके द्वारा समस्त जाति मात्र के कार्य का अनुमान करना सामान्य तो दृष्ट कहाता हैं, जैसे- दो एक मनुष्य को देखकर यह बात निश्चय कर ली कि मनुष्य के सींग नहीं होते, तो अन्य मनुष्य मात्र के सींग न होंगे। यह सामान्यतोद्ष्ट का उदाहरण है। इसी भांति सामान्यतोदृष्ट अनुमान में यह बात भी आ सकती है, कि जैसे बिना कारण के कार्य की अनुत्पत्ति सामान्यतोदृष्ट है। इससे यह निश्चय कर लेना चाहिये कि जहां-जहां कार्यं होगा, वहां-वहां कारण अवश्य होगा।

चैतन्यता का जो अवसान अर्थात् अभाव है, उसे भोग कहते हैं। यहाँ पर महर्षि भोक्ता और भोग को पृथक्-पृथक् करते हैं, क्योंकि जड़ पदार्थ भोग होते और चैतन्य भोक्त होता है, तथा भोग सदा परिणामी होता है, और भोक्ता है, और भोक्ता एक-रस और चैतन्य होता है। प्रश्न- क्या जड़ मन और इन्द्रियां नही। उत्तर- नहीं, यह तो भोग के माधन हैं। प्रश्न- कर्मं तो मन और इन्द्रियाँ करते हैं तो अकर्ता जीवत्मा उसका फल क्यों भोक्ता है?

जिस प्रकार किसानों के उत्पन्न किये अन्नादि का भोग राजा करता है। और सेना के हार जाने से राजा का दूःख होता हैं, इसी प्रकार इन्द्रियों के किये कर्मों का फल आत्मा भोगता है। प्रश्न- पहिले मान चुके हो कि अन्य के कर्म से दूसरे का बन्धन नहीं होता, अब कहते हो दूसरे का किया दूसरा भोगता है? उत्तर- स्वतन्त्र कर्ता होता है स्वतन्त्र के किये का फल स्वतन्त्र को नहीं मिलता। यह इन्द्रियें और मन स्वतन्त्र नहीं, किन्तु आत्मा के करने के साधन हैं। जैसे खड्ग से काटने का कर्ता मनुष्य कहलाता है।, ऐसे ही इन्द्रियों के कर्मों का फल जीव को होता हैं। प्रश्न- चैतन्य जीवात्मा को दुःखादि विकार कैसे हो सकता हैं?

कर्ता को फल अविवेक से होता है, क्योंकि जीबात्मा अल्पज्ञ है। वस्तु का यथार्थ ज्ञान बिना नैमित्तिक ज्ञान के नहीं रहता, इसलिए वह अविवेक में शरीरादि के विकारों को अपने में मानता है, जिससे उसे दुःख सुख प्रतीत होते हैं और संसार में लोग प्राकृत धन को अपना मान कर उसके नाश से दुःख मानते हैं, ऐसे ही अविवेक के शरीरनिष्ठ विकारों से जीव अपने को दुःखी-सुखी अनुभव करता है।

जब पुरूष प्रमाणों से यथार्थ ज्ञान को प्राप्त हो जाता हैं, तो सुख दुःख दोनों नहीं रहते, क्योंकि जब हमें यह निश्चय हो जाता है।, हम शरीरनहीं और न यह शरीर हमारा है, किन्तु प्रकृति का विकार है, तो इसके दुःख सुख का हमें लेश भी नहीं प्रतीत होता।

इन्द्रियों के विषय अति दूरादि कारणें से अविषय हो जाते हैं, इस वास्ते किसी इन्द्रिय का विषय न होने से प्रकृति की असिद्धि नहीं हो सकती हैं, जैसे-अभी एक मनुष्य था, परन्तु थोड़े काल में दूर चला गया, अब वह किसी इन्द्रिय का विषय नहीं रहा।

प्रकृति और पुरूष का सूक्ष्म होने से प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, सूक्ष्म से अत्यन्त अणु होना अभिप्राय नहीं, क्योंकि प्रकृति और पुरूष सर्वत्र व्यापक हैं इनका प्रत्यक्ष योगियों को ही होता है। प्रश्न- प्रकृति के प्रत्यक्ष न होने से यह क्यों माना जावे; कि अति सूक्ष्म होने से प्रकृति का प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु प्रकृति का अभाव ही मानना चाहिये, नहीं तो शशश्रृड़ग की अप्रतीति भी सूक्ष्म होने से माननी पड़ेगी।

संसार में प्रकृति के कार्यों को देखने से प्रकृति का होना सिद्ध होता है, क्योंकि कार्यं को देखने से कारण का अनुमान होता है, और इन कार्यों को बिगाड़कर सूक्ष्म होकर कारण में लय होने से कारण की सूक्ष्मता का अनुमान होता है।

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