Patanjali Yog Sutra Chapter 3
देशबन्धः चित्तस्य धारणा ॥ 3.1 ॥
(चित्तस्य) चित्त का (देशबन्ध:) देशविशेष में स्थिरकरना (धारणा) धारणा कहलाती है।।
Dharana is the binding of the mind to a single object.
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥ 3.2 ॥
(तत्र) धारणा के अनन्तर ध्येय पदार्थ में होनेवाले (प्रत्ययैकतानता) चित्तवृत्ति की एकतानता को (ध्यानं) ध्यान कहते हैं।।
Dhyana is the one-pointed direction of the thoughts towards the object of concentration.
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिवसमाधिः ॥ 3.3 ॥
(स्वरूपशून्यं, इव) अपने ध्यानात्मकरूप से रहित (अर्थमात्रनिर्भासं) केवल ध्ययेरूप से प्रतीत होनेवाले (तत्एव) उक्त ध्यान का ही नाम (समाधि:) समाधि है।।
Samadhi is when the mind is empty of all sense of self and only the object of concentration shines forth.
त्रयमेकत्र संयमः ॥ 3.4 ॥
(एकत्र) एक विषय में होनेवाले (त्रयम्) तीनों का नाम (संयम:) संयम है।।
The three practiced together on the same object is samyama.
तज्जयात् प्रज्ञालोकः ॥ 3.5॥
(तज्जयात्) संयम के सिद्ध होजाने से योगी को (प्रज्ञालोक:) प्रज्ञालोक की प्राप्ति होती है।।
Through mastery of samyama there ensues the flashing-forth of mystical insight.
तस्य भूमिषु विनियोगः ॥ 3.6 ॥
(तस्य) संयम का (भूमिपु) सवितर्क आदि योगभूमियों में (विनियोग:) विनियोग है।।
Samyama is to be applied in progressive stages.
त्रयमन्तरन्गं पूर्वेभ्यः॥ 3.7 ॥
(त्रयम्) धारण, ध्यान, समाधि, यह तीनों (पूर्वेभ्य:) यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, इन पांचो की अपेक्षा (अन्तरग्डं) सम्प्रज्ञातयोग के अन्तरग्डं साधन हैं।
These three are the inner limbs in relation to the previous limbs.
तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य॥ 3.8 ॥
(तत्) धारणादि तीनों (अपि) भी (निर्बीजस्य) असम्प्रज्ञात योग के वहिरग्डं साधन हैं।।
Yet they are outer limbs in relation to the objectless samadhi.
व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोः अभिभवप्रादुर्भावौ निरोधक्षण चित्तान्वयो निरोधपरिणामः॥ 3.9 ॥
(निरोधक्षणचित्तान्वय:) निरूद्धचित्त में होनेवाले (व्युत्थाननिरोधसंस्कारयो:) सम्प्रज्ञात तथा परवैराग्यजन्य संस्कारों के (अभिभवकप्रादुर्भावौ) तिरोभाव और आविर्भाव का नाम (निरोधपरिणाम:) निरोधपरिणाम है।।
Restraint transformation is when the externalizing samskaras are subjugated by the appearance of restraint samskaras. These emerge in the mind at the moment of restraint.
तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारत् ॥ 3.10 ॥
(संस्कारात्) निरोधरूप संस्कारों से (तस्य) चित्त को (प्रशान्तवाहिता) प्रशान्तवाहितां की प्राप्ति होती है।।
A tranquil flow of consciousness is produced by these restraint-samskaras.
सर्वार्थता एकाग्रातयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः॥ 3.11 ॥
(चित्तस्य) चित्त में होने वाले (सर्वार्थतैकाग्रतयो:) विक्षिप्तता तथा एकाग्रता के (क्षयोदयौ) नाश और आविर्भाव का नाम (समाधिपरिणाम:) समाधिपरिणाम है।।
The dwindling of all-objectness and the rising of one-pointedness is the samadhi transformation of the mind.
ततः पुनः शातोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः॥ 3.12 ॥
(तत:) सर्वार्थता के क्षय होने पर (पुन:) फिर (चित्तस्य) चित्त में (तुल्यप्रत्ययौ) समान प्रकार के (शान्तोदितौ) अतीत तथा वत्र्तमान श्रत्ययों के उदय का नाम (एकाग्रतापरिणाम:) एकाग्रतापरिणाम है।।
Then again when the quiescent and the uprisen thoughts are similar, this is the one-pointedness transformation of the mind.
एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः॥ 3.13 ॥
(एतेन) चित्त के समान (भूतेन्द्रियेषु) भूत और इन्द्रियों मे भी (धर्मलक्षणावस्थपरिणामा:) धर्मपरिणाम, लक्षणपरिणाम, अवस्थापरिणाम, यह तीनों परिणाम (व्याख्याता:) जानने चाहिये।।
By this are also explained the transformations of form, time variation and condition with regard to the elements and the sense organs.
शानोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी ॥ 3.14 ॥
(शान्तोदि०) अतीत, वत्र्तमान तथा अनागत धर्मो में अनुगत का नाम (धर्मी) धर्मी है।
The substance is that which underpins the form of the quiescent past, uprisen present and indeterminable future.
क्रमान्यत्वं परिणामान्यतेवे हेतुः॥ 3.15 ॥
(परिणामन्यत्वे) धर्मपरिणाम, लक्षणपरिणाम तथा अवस्था परिणाम के नानाभेद होने से (क्रमान्यत्वं) उनके कम का भेद (हेतु:) कारण है।।
The differentiation in the sequence is the reason for the differentiation in the transformations.
परिणामत्रयसंयमाततीतानागत ज्ञानम् ॥ 3.16 ॥
(परिणामत्रयसंयमात्) पूर्वोक्त तीनों परिणामों में संयम करने से (अतीतानागज्ञानम्) अतीत, अनागत पदार्थों के उक्त परिणामों का ज्ञान होता है।।
Through samyama on the three forms of transformation, knowledge of the past and future can be acquired.
शब्दार्थप्रत्ययामामितरेतराध्यासात्संकरः तत्प्रविभागसंयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम्॥ 3.17 ॥
(शब्दांथप्रत्ययानां) शब्द, अर्थ तथा प्रत्यय इन तीनों के (इतरेतराध्यासात्) परस्पर विभाग का ग्रहण न होने से (सड्डंर:) अविभक्तरूप से प्रतीति होती है (तत्प्रविभागसंयमात्) उनके विभाग में संयम करने से (सर्वभूतरूतज्ञानं) प्राणीमात्र की भाषा का ज्ञान होजाता है।।
There is a natural confusion of word, object, and the idea thereof on account of their superimposition on one another. Through samyama on the distinction between them, understanding of the sounds uttered by all creatures is acquired.
संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्॥ 3.18 ॥
(संस्कारसाक्षात्करणात्) संयम द्वारा संस्कारों के साक्षात्कार होने से (पूर्वजातिज्ञानं) पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।।
Through direct perception of one’s samskaras, knowledge of one’s previous births is acquired.
प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्॥ 3.19 ॥
(प्रत्ययस्य) संयमद्वारा पर पुरूष की चित्तवृत्ति का साक्षात्कार होने से (परचित्तज्ञानं) पर के चित्त का ज्ञान होता है।।
Through direct perception of the thoughts of another, knowledge of that person’s mind is acquired.
कायरूपसंयमात् तत्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुः प्रकाशासंप्रयोगेऽन्तर्धानम्॥ 3.20 ॥
(कायरूपसंयमात्) संयमद्वारा शरीर के रूप की (तद्ग्राह्मशक्तिस्तम्भे) ग्राह्मशक्ति का प्रतिबन्ध होने पर चक्षुःप्रकाशसम्प्रयोगे) नेत्र का सम्बन्ध न होने से (अन्तद्र्धानम्) अन्तद्र्धान की प्राप्ति होती है।।
सोपक्रमं निरुपक्रमं च कर्म तत्संयमातपरान्तज्ञानम् अरिष्टेभ्यो वा॥ 3.21 ॥
(सोपक्रमं, निरूपकमं , च , कर्म) सोमकम, निरूपक्रम भेद से कर्म दो प्रकार के हैं (तत्संयात्) उनमे संयम करने (वा) और (अरिष्टेभ्य:) अरिष्टों के देखने से (अपरान्तज्ञानं) मृत्यु का ज्ञान होता है।।
मैत्र्यदिषु बलानि॥ 3.22 ॥
(मैन्न्यादिषु) मैत्री, करूणा, मुद्रिता, इन तीनों भावनाओं में संयम करने से (बलानि) मैत्री आदि बल की प्राप्ति होती है।।
बलेषु हस्तिबलादीनी॥ 3.23 ॥
(बलेपु) बलों में संयम करने से (हस्तिबलादीनि) हस्ति आदि के बल समान बल की प्राप्ति होती है।।
प्रवृत्त्यालोकन्यासात् सूक्ष्माव्यावहितविप्रकृष्टज्ञानम्॥ 3.24 ॥
(प्रवृत्यालोकन्यासत्) संयमद्वारा प्रवृत्त्यालोक के न्यास से (सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानम्) सूक्ष्म, व्यवहित तथा विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान होता है।
भुवज्ञानं सूर्येसंयमात्॥ 3.25 ॥
सूय्र्ये) सूय्य मण्डल में (संयमात्) संयम करने से (भुवनज्ञान) भुवन का ज्ञान होता है।
Through samyama on the sun, knowledge of the planes of existence is acquired.
चन्द्रे तारव्यूहज्ञानम् ॥ 3.26 ॥
(चन्द्रे) चन्द्रलोक से संयम करने से (ताराव्यूहज्ञानं) तारों के व्यूह का ज्ञान होता है।।
Through samyama on the moon, knowledge of the arrangement of the stars is acquired.
ध्रुवे तद्गतिज्ञानम्॥ 3.27 ॥
(ध्रवे) धुवनामक तारे में संयम करने सें (तद्रतिज्ञानं) तारों की गति का ज्ञान होता है।।
Through samyama on the polestar, knowledge of the motion of the stars is acquired.
नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्॥ 3.28 ॥
नाभिचक में संयम करने से (कायव्यूहज्ञानं) शरीरवत्र्ती सम्पूर्ण पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध विशेष का ज्ञान हो जाता है।।
कन्ठकूपे क्षुत्पिपासा निवृत्तिः॥ 3.29 ॥
(कण्डकूपे) कण्ठकूपे में संयम करने से (क्षुत्पिपासानिवृत्ति:) भूख प्यास की निवृत्ति होती है।।
कूर्मनाड्यां स्थैर्यम्॥ 3.30 ॥
(कूर्मनाडयां) कूर्मनाडी में संयम करने से (स्थैर्यम्) स्थिरता की प्राप्ति होती है।।
मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्॥ 3.31 ॥
(मूद्र्धाज्योतिषि) मूर्धज्योति में संयम करेन से (सिद्धदर्शनं) सिद्धों का दर्शन होता है।।
प्रातिभाद्वा सर्वम्॥ 3.32 ॥
(वा) अथवा (प्रातिभात्) प्रातिभ के प्राप्त होने पर (सर्वम्) पूर्वोक्त सम्पूर्ण विभूतियें प्राप्त होती हैं।
ह्र्डये चित्तसंवित्॥ 3.33 ॥
हृदये) हृदय में संयम करने से (चित्तसंवित्) चित्त का ज्ञान होता है।।
सत्त्वपुरुषायोः अत्यन्तासंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषोभोगः परार्थत्वात्स्वार्थसंयमात् पुरुषज्ञानम्॥ 3.34 ॥
(अत्यन्तासक्कीर्णयो:) परस्पर अत्यन्त भिन्न (सत्त्वपुरूषयो:) बुद्धि तथा पुरूष के (प्रत्ययाविशेष:) प्रत्ययों की अभेद् प्रतीत का नाम (भोग:) भोग है और (परार्थात्) इस भोगरूप दोनों के मध्य बुद्धि प्रत्यय से भिन्न (स्वार्थसंयमात्) पौरूषेय प्रत्यय में संयम करने से (पुरूषज्ञानं) पुरूष का ज्ञान होता है।।
ततः प्रातिभस्रावाणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते॥ 3.35 ॥
(तत:) उक्त संयमद्वारा पुरूषज्ञान से पूर्व (प्रातिभश्रा०) प्रातिभ, श्रावण, वेदना, आर्दश, आस्वाद और वात्र्ता यह छः विभूतियें (जायन्ते) प्राप्त होती हैं।।
ते समाधवुपसर्गाव्युत्थाने सिद्धयः ॥ 3.36 ॥
(ते) उक्त प्रातिभादि सिद्धियें (समाघौ) समादि में (उपसर्गा:) विघ्र हैं, और (व्युत्थाने) व्युत्थानकाल में (सिद्धय:) सिद्धियें हैं ।।
बद्न्हकारणशैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः ॥ 3.37 ॥
(बन्धकारणशैथिल्यात्) संयमद्वारा शरीर में चित्त बन्धन के कारण धर्माधर्मरूप प्रारव्धकर्म की शिथिलता से (च) और (प्रचार संवेदनात्) नाड़ियों का ज्ञान होजाने से (चित्तस्य) चित्त का (परशरीरावेशः) दूसरे शरीर में प्रवेश होता है।।
उदानजयाअत् जलपण्खकण्टकादिष्वसङ्गोऽत्क्रान्तिश्च॥ 3.38 ॥
(उदानजयात्) उदान के जय होजाने से (जलपड्डकण्टकादिषु) जल, पड्ड तथा कण्टकादि के साथ (असड्ड:) सड्डं नहीं होता (च) और (उत्कान्ति:) उदर्व्यगमन होता है।।
समानजयाज्ज्वलनम्॥ 3.39 ॥
(समानजयात्) समान के जय होजाने से (ज्वलनम्) तेज की प्राप्ति होती है।।
श्रोत्राकाशयोः संबन्धसंयमात् दिव्यं श्रोत्रम्॥ 3.40 ॥
(श्रोत्राकाशयो:) श्रोत्र इन्द्रिय तथा आकाश के (सम्बन्धसंयमात्) सम्बन्ध में संयम करने से (श्रोंत्र) श्रोत्र इन्द्रिय (दिव्यं) अलौकिक समाथ्र्यवाला होजाता है।।
कायाकाशयोः संबन्धसंयमात् लघुतूलसमापत्तेश्चाकाश गमनम्॥ 3.41 ॥
(कायाकाशयो:) शरीर और आकाश के (सम्बन्धसंयमात्) सम्बन्ध मे संयम करने से (च) और (लघुतूलसमापत्ते:) तूल के समान लघु पदार्थों में संयम करने से (आकाशगमन) आकाश गमन की प्राप्ति होती है।।
बहिरकल्पिता वृत्तिः महाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षयः ॥ 3.42 ॥
(वहि:) शरीर के बाहर भीतर सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा में (अकल्पितावृत्ति:) बिना संकल्प के स्थित हुई चित्तवृत्ति का नाम (महाविदेहा) महाविदेहा धारणा है (तत:) इस धारणा की प्राप्ति से (प्रकाशावरणक्षयः) बुद्धि के आच्छादिक क्केशादिकों का क्षय हो जाता है।।
स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमात् भूतजयः॥ 3.43 ॥
(स्थूलस्वरू०) स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय तथा अर्थवत्त्व, में संयम करने से (भूतजय:) भूतजय की प्राप्ति होती है।।
ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसंपत् तद्धरानभिघात्श्च ॥ 3.44 ॥
भूतों के जय होने से (अणिमादिप्रादुर्भाव:) अणिमादि आठ सिद्धियों की प्राप्ति (च) और (कायसम्पत्) शरीर ऐश्वर्य तथा (तद्धर्मानभिघात:) भूतघम्मों के अनभिघात की प्राप्ति होती है।।
रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसंपत् ॥ 3.45 ॥
(रूपलावण्य०) रूप, लावण्य, बल तथा वज्रसंहननत्व, इन चारों का नाम (कायसम्पत्) कायसम्पत् है।।
ग्रहणस्वरूपास्मितावयार्थवत्त्वसंयमातिन्द्रिय जयः॥ 3.46॥
(ग्रहणस्वरू०) ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय तथा अर्थवत्त्व, इन पांच रूपों में संयम करने से (इन्द्रियजय:) इन्द्रिजय की प्राप्ति होती है।।
ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च॥ 3.47 ॥
(तत:) इन्द्रियजय से (मनोजवित्त्वं) मनोजवित्व (विकरणभाव:) विकरणभाव (च) और (प्रधानजय:) प्रधान जय की प्राप्ति होती है।।
सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च॥ 3.48 ॥
(सत्त्वपुरूपा ०) सत्त्वपुरूषान्यताख्यातिवाले योगी को (सर्वभावाधिष्ठातृत्वं) सर्वभावाधिष्ठातृत्व (च) और (सर्वज्ञातृत्वं) सर्वज्ञातृत्व की प्राप्ति होती है।।
तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्॥ 3.49 ॥
(तद्वैराग्यात्) उक्त ख्याति में वैराग्य होने से (दोषबीजक्षये) दोष बीज का नाश हो जाने पर (कैवल्यं) कैवल्य की (अपि) भी प्राप्ति होती है।।
स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात्॥ 3.50 ॥
(स्थान्युपनिमन्त्रणे) स्थानधारी महान् पुरूषों के निमन्त्रण करने पर (सड्डस्मयाकरणं) संग तथा स्मय नहीं करना चाहिये, (पुन:) इसलिये कि उसके करने से (अनिष्टप्रसंगत्) अनिष्ट की प्राप्ति होती है।।
क्षणतत्क्रमयोः संयमात् विवेकजंज्ञानम्॥ 3.51 ॥
(क्षणतत्कमयो:) क्षण तथा क्षणों के कम में (संयमात) संयम करने से (विवेकजं) विवकेज (ज्ञानं) की प्राप्ति होती है।।
Through samyama on the moment of time and its sequence, wisdom born of discrimination is acquired.
(क्षणतत्कमयो:) क्षण तथा क्षणों के कम में (संयमात) संयम करने से (विवेकजं) विवकेज (ज्ञानं) की प्राप्ति होती है।।॥ 3.52 ॥
(जातिलक्षणदेशै:) जाति, लक्षण तथा देश द्वारा (अन्य तानवच्छेदात्) भेद का निश्चय न होने से (तुल्ययो:) तुल्य पदार्थों के (प्रतिपत्ति:) भेद का निश्चय (तत:) विवेकजज्ञान से होता है।।
Thence arises an understanding of the difference between similar objects which cannot normally be distinguished due to an indeterminateness of the distinctions of category, characteristics and location.
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमंचेति विवेकजं ज्ञानम्॥ 3.53 ॥
(तारकं) तारक (अक्रमं) एकही काल में (सर्वविषयं) सर्वपदार्थ गोचर (च) तथा (सर्वथाविषयं) सर्व प्रकार से सर्व पदार्थ गोचर (इति) जो ज्ञान है, उसको (विवेकजं, ज्ञानं) विवेकजज्ञान कहते हैं।।
The wisdom born of discrimination is the deliverer and is of all objects, in all circumstances and is nonsequential.
सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यम्॥ 3.54॥
(सत्त्वपुरूषयो:) बुद्धि तथा पुरूष की (शुद्धिसाम्ये) शुद्धि समान होने से (कैवल्यं) कैवल्य की प्राप्ति होती है (इति) यह पाद समाप्त हुआ।
When the purity of the buddhi becomes equal to that of the purusha, kaivalya ensues.
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